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७१. मध्यमम्यादादहरये खण्ट: ३ . का.१
*स्वाहाटकापारतासवान: *
चतुर्थोऽपि धूमादिना । पक्षमस्तु स्पष्टमेव प्रागसिदत्वेन प्रदर्शित इति ।। स्यादेतत् - द्रव्यं भवनयं नित्यो वा स्यादनित्यो वा ? अत्र मीमांसकानुयायिततो → नित्य एव शब्दो 'यमेव पूर्वमश्रौषं स एवाऽयं मकार'
-* जयतdi सूक्ष्ममूत्तान्तरा प्रेरकत्वलक्षणः चतुर्थी हेतुः अपि धूमादिना सन्यभिचार: । आदिपदेनीमाप्रभादिग्रहगम । चूमस्य सुक्ष्ममूर्नान्तरा:प्रेरकत्येपि पौद्गलिकत्वाभावविरहात, तस्य स्पर्शबन्चात । तदुक्तं स्याद्वादकल्पलतायां → ‘म्पर्शस्ता शब्देन कर्णविचरं प्रविशता वायुनेव तदवारलगतूलांशुकादेः प्रेरणं स्यात् । न स्यात, धूमनाउनकान्तात् । धूमा ह स्पर्गवान्, तदभिः सम्बन्धन पांशुसम्बन्धेनेव चक्षुषा स्वास्थ्योपलव्धेः । न च तेन चक्षुःप्रदेवां प्रविदाता नल्पक्ष्ममानस्याऽपि प्रेरणं समुपल-यत इति । नवपर्शवत्वे शब्दस्य यायोरिंच स्पाइन सड़गः, धूम-प्रभादिबदनद्भुतस्पर्शल्यादि' (म्या.क.स्स.१०.गा.३६) त्यादि।
वस्तृतस्त मुनान्तरणरकल्वमपि दस्त्येव मेघगजनादिनो भित्त्यादिडोलनादी प्रसिदत्वान. आधुनिकध्वनियन्त्रादिजन्यमहावनेरपि पत्रादिप्रेरकत्वस्यापि दृष्टत्वात्स्वमगाऽसिद्धिः भागामिद्भिःपि चतर्ध वापि स्फुटत्यान्न सांपर्शिननि ध्येयम् ।
गगनगुणत्वलक्षणः पनमस्तु पौदगलिकत्वप्रतिपंधको हेदः स्पष्टमय प्राक सदस्याकाागणव मस्य सर्वशब्दग्रहणात्तिः श्रोत्रसमवाया विशेषादित्यादिना (पृष्ठ ६९.३) असिद्धत्वेन = स्वरूपाऽसिद्भलेन प्रदर्शित इति सोऽपि न दादपोद्गलिकन्यप्रतिक्षेपकृतेलमित्यलं. विस्तरेण । विस्नरस्तु स्याद्वादरत्नाकर-सम्मनितर्क-स्याद्वादकल्पलतादिनोग्यमयः ।
दनित्यानित्यत्वामांसाधम पक्रयते - स्यादेतदिति । द्रव्यं भवन = द्रव्यत्वेन सिध्यन् अयं = शब्दः नित्यो वा स्यादनित्पो वा ? इति । अत्र नित्यत्वकाटिर्मीमांसकानामनित्यत्वकाटिस्न नयाविकानाम् । क्रमेण तन्मतं प्रददौडने गन्दस्य नित्यानित्यत्वं स्याद्रादिनामिति दर्शयिष्यनि प्रकरणकार इति सन्दर्भः ।
अत्र = निस्ताविनति पत्नी मीमांसकानुयायिन इनि आहरित्वनना ग्रेन्चति । नित्य एच शब्द इति । शब्दस्यानित्यत्वव्यधिकरणनित्यमित्यर्थः । कुनः ? 'यमेव पूर्वमश्रीपं स एवायं गकार' इत्यबाधितप्रत्यभिज्ञानात् । श्रुतश्रूयमाण
न होने पर भी उनमें पौद्गलिकन्वाभावात्मक माध्य नहीं रहता है। अतएव तृतीय हेतु भी ज्यभिचारी होने के मरव शन्न में पीद्गलिकत्व का प्रनिषेध करने में असमर्थ बन जायेगा। इस तरह मूक्ष्ममून्तिग:प्रेरकत्वस्वरूप चतुर्थ हेनु भी धूम. प्रभा आदि में पौगलिकत्वाभाव का व्यभिचारी है। धून, प्रभ, उप्मा आदि द्रव्य गमनागमन करते हुए भी मूक्ष्म रूई आदि मन द्रव्यों के प्रेरक बनते नहीं हैं। फिर भी उनमें पौद्गलिकत्वाऽभाव नहीं रहता है, किन्तु पीद्गलिकत्व ही रहता है। इसलिप चतुर्थ हेतु भी व्यभिचारी होने से शन्द में पौद्गलिकत्वाभाव का साधक नहीं हो सकता है ।
* पचमहेतु स्वस्यासित पश्च. । इस तरह प्राचीन नैयायिक से उपनयस्न गगनगुणत्वात्मक पाँचवा हेतु भी शब्द में पाद्गलिकत्व का निराकरण नहीं कर सकता है, क्योंकि गगनगुण-यम्वरूप इंतु ही शन्न में स्वरूपाऽसिद्ध है - यह ना पहले शन्द्र के द्रव्यवमिडिप्रस्नाच में बताया गया है। जब कि. शब्द द्रव्यस्वरूप है तब उसमें गुणच ही कम रह सकंगा ' गुणत्व ही शन्द में नहीं रहता है, तब आकारागुणव ती शब्द में नितरां नहीं रह सकता है। इंतु ही पक्ष में न रहने पर गन्दात्मक पक्ष में पालकत्याभावात्मक साध्य की मिद्धि वृद्ध नैयायिक कम कर सकते है ? अतः पाँचवा हेतु भी पक्ष में ग्वरूपामिल है। इस तरह प्राचीन नयायिक से उपन्यस्त हुनु पञ्चक में से एक भी हेतु शन्न में पौदगरिकत्व का प्रतिक्षप नहीं कर सकता है। अतः शन्द द्रव्यात्मक ही है, पौदगलिक ही है . यह निरागधरूप में कहा जा सकता है।
ONGथा नित्य है - मीमांसक म्याद, । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि 'शब्द यदि द्रव्य है तो यह क्या नित्य द्रव्य है या अनित्य द्रव्य ?' इसके प्रत्युत्तर में मीमांसकानुयायिों का यह बकव्य है कि → "शब्द नित्य ही है अर्थात् पकान्तनित्य है । इसका कारण यह है कि 'पहले जिस ग शद को मैंने सुना था वही यह ग शद : गकार है ऐसी प्रत्यभिज्ञा होती है, जो अबाधित होती