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* अप्टसहस्रीसंवादः
अतिनिबिडप्रदेशे प्रसर्पणानङ्गीकारो ऽप्युभयत्र समानस्तुल्ययोगक्षेमत्वात् । तृतीयोऽप्युल्कादिना सव्यभिचारः ।
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जयलता
विरहेण व्यभिचारोऽपि प्रसज्यते । एतेन प्रयोग उभयसिद्धहेतुप्रदर्शनस्यावस्यकत्वेऽपि प्रसङ्गेऽन्यतरसिद्धस्याऽपि गमकत्वादस्तु प्रकृते प्रसङ्गापादनमेवं शब्दः पौगलिकः स्यात् अतिनिबिडप्रदेशप्रवेशनिर्गमयीः प्रतिघातस्स्यादित्यपि पराकृतम्, गन्धपरमाणूनामि तत्प्रसङ्गात्। एतेन न पुद्गलस्वभाव: शब्द: निद्रिभवनाभ्यन्तरतो निर्गमनात, तत्र बाह्यतः प्रवेशाद व्यवधायक वेदनादेश्च दर्शनात् यस्तु गुद्गलस्वभावो न तस्यैवम्दर्शनं यथा लोप्टादेरित्यपि निराकृतम्, पुद्गलस्वभावत्येऽपि तदविरोधात् । तदुक्तं विद्यानन्देनाऽष्टसहस्यां > तस्य हि निश्चिंद्र- निर्गमनादयः सूक्ष्मस्वभावत्वात् स्नेहादिस्पदादिवन विरुध्येरन् कथमन्यथा पिहितताम्रकलशाम्यन्तगल जलादहिर्निर्गमनं स्निग्धतादिविशेषदर्शनादनुमति ? वा पिहितः सलिलाभ्यन्तरनिहितस्यान्तः शीतस्पर्शपलम्भात् सलिलप्रवेशी नुमीयेत ? तदभेदनादिकं वा तस्य निश्छिद्रतयेक्षणात्कथमुत्प्रेक्षेत १ ततो निरिनिर्गमनादिः स्नेहादिस्पर्शादिभिर्व्याभिचारी, न सम्यग्येतुर्यतः शब्दस्य पुद्गलस्वभावत्वं प्रतिक्षिपेत् तस्य मुदगलस्वभावत्वनिर्णयात्सर्वधाऽप्यविरोधान् । अ.स.पू. १५१) इति ।
कि अतिनिविडप्रदेशे प्रसर्पणानङ्गीकारः अपि उभयत्र सन्धपरमाणूनामिव शब्दमुद्गलानामपि शब्दद्रव्यत्वगुणन्ववादिनोगते समान इति अतिनिधिप्रदेशत्रवेदानिर्गमयोरप्रतिघानस्य भागासिद्धि: स्वरूपाऽसिद्धि उभयमतसिद्धा, तुल्ययोगक्षेमत्त्वात् । अत एव निचितरकुड़यादिना समस्त्यैव गन्धपरमाणुनां प्रतिघात उत्सुक्तावपि न नः क्षतिः शब्दगुगलप्रतिघातस्याऽपि दृष्टत्वात् ।
वस्तुतस्तु भिन्नभाषाद्रव्याणां चतुःसमयनीकव्यापित्वाऽभ्युपगमान् अतिनिचिङकुइयादिनाऽपि न तत्प्रतिवानः, औदारिकपुद्गलानामेवीदारिकदुगलप्रतिघातकत्वसम्भवात् वैक्रियादिस्कन्धानां तु ततोऽतिसूक्ष्मत्वान्न तद्व्यापातकारित्वमौदारिकस्कन्धानां सम्भवति । तथापि संपूर्णांकल्पापिनां निन्नशब्दद्रव्याणामतिनिविङकुइयादिकं विभिन्य पदसु दिक्षु विसर्पतां प्रायोऽस्मदादिश्रावणाऽगोचरत्वात अतिनिचिङप्रदेशे प्रसर्पणानङ्गगी कारोऽप्युभयन्त्र समान इति प्रकृतं प्रकरणकृतीतमिति ध्येयम् ।
पूर्वं पश्चाचावयवानुपलब्धिलक्षण: तृतीयां हेतुः अपि उल्कादिना आदिपदेन विद्युदणुकादिग्रहणं व्यभिचार:, निरुकहेतुत्वपि पौगलिकत्वाभावविरहात् न च योगिनिस्तृल्काद्यवयवाः पूर्वं पश्चाचोपलभ्यन्त एवेति वाच्यम्, शब्देि समसमाधानत्वान
भी क्रिया नहीं रहती है। क्रिया का समवायिकारण केवल द्रव्य ही होता है । इसलिए नैयायिक के मतानुसार क्रियामात्र का शब्दात्मक गुण में अभाव होने से अतिनिविडप्रदेशप्रवेशनिर्गम भी शब्द में असिद्ध होने पर अतिनिविडप्रदेशप्रवेशनिर्गमाऽप्रतिघातात्मक हेतु शब्दात्मक पक्ष में कैसे रहेगा ? जब प्रतिवादी से दर्शित अनुमान का हेतु ही प्रतिवादी के मतानुसार पक्ष में नहीं रहता है तब उस हेतु से प्रतिवादी को अभिमत साध्य की सिद्धि पक्ष में कैसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती हैं ।
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दूसरी बात यह है कि प्राचीन नैयायिक से उपन्यस्त द्वितीय हेतु व्यभिचारी भी है. क्योंकि कस्तुरी आदि द्रव्य दीवार आदि की दूसरी ओर भी जाते हैं। मतलब कि कस्तुरी आदि के प्रवेश निर्गम में अतिनिबिड दीवारादि प्रदेश से प्रतिपात नहीं होने से नादृश हेतु उसमें रहता है फिर भी पौद्गलिकत्वाऽभावात्मक साध्य कस्तूरी आदि द्रव्य में नहीं रहता है । इसलिए द्वितीय हेतु में साध्याभाववदवृत्तित्त्वलक्षण व्यभिचार दोष भी है तथा अधिक विचार किया जाय तो नैयायिक और स्याद्वादी दोनों के मतानुसार अत्यन्त निश्छिद्र दीवार या पर्वत आदि तो शब्द के गमनागमन दोनों में प्रतिघात = व्याघात करते ही हैं । अतः अतिनिविडप्रदेशप्रवेशनिर्गमाऽप्रतिघानात्मक हेतु शब्द में स्वरूपाऽमि होता है । गन्धपरमाणु और शब्दपुद्गल दोनों में अनिनिवि दीवार आदि से प्रतिघात का होना या न होना • इस विषय के प्रश्न और प्रत्युत्तर तो नैयायिक और स्याद्वादी दोनों के मतानुसार समान ही रहेंगे । अतः दूसरा हेतु भी
शब्द में पीगलिक का प्रतिक्षेप कर सकता नहीं है । नैयायिक के तृतीय चतुर्थ हेतु भी व्यभिचारी
तुती । इस तरह शब्द में पौद्गलिकत्व के प्रतिकारार्थ प्राचीन नैयायिकों का पूर्व और पश्वादवयवानुपलब्धिस्वरूप तृतीय हेतु भी उल्का, बिजली आदि में व्यभिचारी है, क्योंकि उनकी उत्पत्ति के पूर्व और विनाश के बाद उनके अवयवों की उपलब्धि