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माध्यमस्याहादरहस्य खण्डः ३ . का.११ मतभेदेन मान्दगुगत्वापाकरणम एवचाऽस्य पौलिकत्वप्रतिक्षेपाय (9) स्पर्शशून्याश्रयत्वं, (२) अतिनिबिहप्रदेशप्रवेश
* ज्ञयलता हैस्वतन्त्रास्तु 'म । शब्दो द्रव्य तथापि तस्य न गुणत्वम यूपगन्यामः किन्वतिरिकत्वं, न चैवं पदार्थान्तरकल्पने गौरवमिनि वान्यम, विचारा:सहत्वात् । तथाहि- शन्दस्यातिरिकले कतो:स्माकं गौरवम् ? न हि शब्दस्त्वदनभिमती येन ततोऽस्माकं गौरा स्यात् प्रत्युत तस्मिन् गुणत्वजातिकल्पने तवैव गौरवम् । न च तस्मिन गुणत्वजातिसम्बन्धाभावस्त्वया काल्पनीय इति साम्यरिति वाच्यम, प्रतियोगिग्राहक- प्रमाणाभावनिवन्धनस्था.त्यन्ताभावरय प्रतियोग्यसिद्धब सिद्धत्वात. अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । कर्णशष्फल्यां च तस्य स्वरूप समवायो वा सत्रिकर्षः तस्य समवाप्स्यन्तरं कल्पपद्भिः यस्मिन् यस्मिन दोगनकल्वं कल्प्यने तस्मिन तस्मिन् अस्माभिः स्वरूपसम्बन्धस्य समयायस्य वा कल्पनेन गौरवा भावात. प्रत्युत ममवाप्यन्नरं कल्पयनां पराभव गौरवमिनि वदन्ति । नैयायिकैकदेशिनस्तु । “संयोगिद्रन्यं शाब्दः दूरना भएँ प्रहतायां 'आगन्छति शन्द' इनि प्रतीतः । अत एवाकस्मि
शिथिलकड़यादिकं डोलागत, दीर्यति झीर्यति च हठात् साटन्ति च अवणपटषु घटमानाः रिअषपिण्डा | शिम्य दया नयनगोलकाण्डा विटित भ्रमन्ति पतन्ति च । स्पृश्यते चानुभवरसिकः सूक्ष्मदर्शिभिरदरदेशपरिप्लुटायस - नानी
नपतन जन्मा निष्ठुरतरो निर्वादः कर्षविच देहमभिधान्नितःस्पर्शचानपि शब्दः । स च स्पर्श क्वचिदुद्भुतः कचिदनुभृतः । ततश्च काश-सरत्र्या-परिमाण-पृथक्त-संयोग-विभाग - परत्वापरत्व-वेगारल्याणनवकवान सावयवदत्र्यं शन्द" इति व्याचक्षन ।
यत् शब्दस्य गुणत्वं न स्यात् तदा नत्र गुणनिली किकविषयतासम्बम्धेन श्रावणप्रत्यक्षात्पादासम्भवेन चभरतिरिक | अंन्द्रियरूपं पनुबहिरिन्द्रिय सदनात्वं न स्यादिति तन शन्दत्र्यत्वपशे द्रव्यवृत्तिला किकविषयताया पर वादकापता
केन्दकसम्बन्धमा कसम्भन्तरतुगर कात्तिौशिवरगयनाया एत्र शब्दकार्यतावचंदकत्वमित्यादिकं चहुतरमहनीयं मारमयपरिकर्मितमतिभिरिति दिक् ।।
एवन = निरुक्तरीत्या शब्दस्य द्रव्यन्वं सिद्धे पति च, अस्य = शब्दस्य. पौलिकत्वप्रतिक्षेपाय = 'गुगलपरिणामवनिराकरणाय, अन्वयश्चास्याऽये 'उपन्यस्ता' इत्यनेन सह । स्पर्शशुन्याश्रयत्वमिति । प्रयोगस्त्वकम् - शन्दी न पादर्गालकः स्पर्शशून्याश्रयकत्वात, आकादापरिमाणनत् । स्पर्शशून्यायकत्वञ्च स्पारहितसमयायिकारणकत्वरूप ध्यं, तन |
कालिकादिना स्पर्शरहिताश्रयकत्वमादाय व्यभिचारः । दान्दसमवापिकारणस्याकाशस्य म्पर्शशून्यत्वेन न हताः स्वरूपासिद्धत्वमिति । त्यस्वरूप ही माना जाय, जिसकी वजह ये मब समस्याएं नी-दो ग्यारह हो जाय । यहाँ यह शङ्का हो कि - 'शन को द्रव्य मानने पर शन्द में अनन्त कर्ण आदि के संयोग की कल्पना का गौरव प्रसक्न होगा, जो महागौरवग्रस्त:' -तो इसका समाधान यह है कि शब्द को पचनगुण मानने काले नव्यनैयायिक के मत में भी शन्द्र में सामानाधिकरण्य सम्बन्ध में अनन्त कर्णसंयोगादि की कल्पना ती करनी ही पडेगी, क्योंकि 'कर्णसंयुक्त पचन का शब्द गुण है' यह नव्य नैयायिक की मान्यता है, जब कि हमारे मन में शब्द में अपृथग्भावनामक लघु सम्बन्ध से ही अनन्तकर्णसंयोगादि की कल्पना की जाती है। मतलब यह है कि शब्द में अनन्त कर्णसंयोगादि नयनयायिक के मतानुसार सामानाधिकरण्यमम्बन्ध से अवश्य कल्पनीय है जो सामानाधिकरण्यसम्बन्ध एकाधिकरणनिरूपितसमवायसम्बन्धावचिनवृत्तित्वस्वरूप गुमशरीरबाला है । जब कि हम स्याद्रादी तो अपृथग्भाव नामक लघुसम्बन्ध से ही शब्द में नाइश संयोग की कल्पना करते हैं। स्पष्ट ही है कि नव्य नैयायिक के मन में सम्बन्ध गुरुतर है जब कि स्यावादी का अभिमत सम्बन्ध लघुतर है, जो नैयायिकमतानुसार समवापात्मक हो सकता है । अत्तः इस गौरव दोप की वजह शन्द में व्रज्यत्व का स्वीकार ही मुनासिब है - यह फलित होता है।
* शादद्रव्यत्षा हेतुपकनिराकरण पचश्व, । प्राचीन नैयायिक शब्द में पौद्गलिकन्च - इन्यन्व के निरासार्थ पांच हेतुओं को बताते हैं। संक्षेप में उमका बयान इस तरह है कि . 'शब्द पौदुगलिक नहीं है, क्योंकि वह स्पर्शशून्य में आश्रित है । जिसका आश्रय स्पर्शशून्य होना है, नह पौगलिक नहीं होना है, जैसे आकाशपरिमाण । शन्द के आश्रय आकाश में पर्श नहीं होने से शब्द आकाग्मपरिमाणानि की भौति पीलिक नहीं हो सकता ॥३॥ इस तरह अतिनिबिड प्रदशा में भी शन्न के गमन-आगमन का प्रतिधात नहीं होने में वह पौलिक नहीं है। जो पौद्गलिक होता है उसके गमन-आगमन में अतिनिचिर भिनि आदि प्रतिबन्धक बनते है, जैसे पत्थर आदि पीलिक द्रव्य के गमनागमन में दीवार प्रनिरन्धक बनती है। मगर अनिनिरिट दीवार को भेट कर भी