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५२२ मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: ३ . का." * गगनम्य भित्र नयमन *
स्यैवानुगतत्वे समवायिकारणत्वौचित्यात्तेषां निमित्तकारणत्वे क्लृप्तेऽपि समवायकारणत्वाऽकल्पनात्, सम्बन्धभेदेन कारणताभेदात् । आकाश: पुनरीश्वर एवेन्याहुः ।
तर, पवनगुणत्वे शब्दस्य स्पर्शवस्पार्शनापत्तेः । न च त्वाचाऽयोग्यत्वाम्म तस्य स्पार्शनं, श्रावणं तु निराबाधं गुणश्रावणत्वाच्छेनं प्रति शब्दत्वेन हेतुत्वादिति राम्,
-* जयल - अनुगतत्वेन समवायिकारणत्वीचित्यात् = नादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नकारणत्यन्याय्यत्वात् ।
तर्हि किं वीणा-वेण-मदङ्गादानां शब्दकारणवमेव नास्ति ? इत्याशडकायामाहः . तपां = वाणा-वेणुमदङ्गादाना निमित्तकारणत्वे = तृणाणि-मगिन्यायन तादात्म्यातिरिक्तसम्बन्धान्छिन्नकारणत्वं कलून = प्रमाणसिद्ध मनि अपि ने समवायिकारणत्वाऽकल्पनात, समवायिकारणत्वम्य तादाम्यसम्बन्धावच्छिन्नत्वात. ततः किम् ? सम्बन्धभेदन कारणताभेदान्. घटक दे चटितभेदस्य न्याय्यत्वात् । एतेन वीणा-वण-मदरगादीनां शब्दनिमिनकरणत्वनानुगताकन्य शन्दरामवायिकारगत्वकल्पना:पि प्रत्युक्ता, एककार्यनिरूपिताया निमिनकारगनायाः समाविकारणतायाश्चैकचाः सम्भवाञ्च ।
ननु शब्दरत्याकाशविशेषगुणवानगीकारेऽम्बरसिद्धिरब दुर्घदा, शब्दसमरायिकारणत्वनैव नस्मिद्धिसम्भवादित्याशङ्कायामाहुः - आकाशः = आकाशपदप्रतिपाबः पुनरीश्वर एव । अत एवाकाशेश्वरपदयोः पर्यापनापनिरित्यक्तावपि न क्षत्तिः, इष्टापन:, जगत्कर्तृत्वन सिद्धादीश्वरादाकाशा नातिरिच्यत इत्यस्माल नयनयायिकानामभिनवराद्धान्तान् ।
दशब्दव्यत्ववादी प्रकरणकार: प्रदर्शितनव्यमतमपहन्तयदि - तति । पवनगुणत्व शब्दस्य स्वीक्रियमाग स्पर्शवत् स्पार्शनापत्तः। पथा पवनस्पस्य पवनगणल्यात्स्पार्शन भवति तद्वदेव शब्दस्यापि त्वगिन्द्रियजन्यसाक्षात्कारविषयत्वं प्रसज्यन, पवनगणत्वस्य स्पार्शनस्वरूपयोग्यत्वब्याप्यत्वात् । न च शब्दम्पार्शनं भवतीति व्यापकनिवृन्या व्याप्यनिनिमिदनानिलगणवं शब्दस्य, तस्य स्पार्शनप्रतिबन्धकत्वकल्पने च गौरवमित्वत्तपत्रादायः ।
ननु वायुगुणत्वं न लौकिकत्वाचबरूपयाम्पत्वब्याज्यं पवनाकाशसंयोग-पवनपरिमाणांदरपि स्पार्शनत्यापनः किन्न लागयोग्य. वायुगुणत्वमेव तधा । शब्दस्य वायगुणत्वेऽपि पचनाकाशसंयोग दिवत्स्पार्शनायोग्यत्वान त्वत्र ग्रह इत्या दाङकामपाकमपन्यस्यान -न चेति । वाच्यमित्यनेनान्वेनि । त्वाचाऽयोग्यत्वात् = लाकिकस्पार्शनम्वरूपयांच्या विरहात. न तस्य - शब्दम्य, स्पाईनं - त्वाविषयत्वं भवितमहंति, थावणं = श्रीनजन्यरोक्किान्यक्षविपयत्वं त शब्दन्य निगबाधम. लौकिकश्रावणान्यक्षस्वरूपयोग्यत्वात् । तदेवाह - गुणश्रावणत्वावच्छिन्नं प्रति शब्दत्वेन हेतुत्वादिति । शब्दत्व-कवादिश्रावण व्यतिकिमिनारबारणाय शब्दत्वावच्छिन्नकार्यतावच्छेदकं न श्रावणत्वं किन्तु गुणश्रावगत्वम । तच पूर्वोक्तदिशा गुगश्रावणमात्रवृत्निवजात्यस्वरूपं शंध्यम : है । अतः गौग्च दाप का भी अवकाश नहीं है। यहाँ यह शङ्का हो कि -> 'जैस पवन में कारणता अवश्यकलुप्त है, ठीक वैसे ही वीणा, बंणु, मृदङ्ग आदि में भी कारणना अवश्यक्लुप्त ही है। तब उनमें रही हुई कारणता को भी समवायिकारणतास्वरूप क्यों न मानी जाय ! आक्षेप परिहार तो दोनों पक्ष में समान रहेंगे' - तो यह अज्ञानमूलक है, क्योंकि बीणा, वेणु, मृग आदि में समवापिकारणता की कल्पना नहीं करते हैं। समवाधिकारणता तादात्म्पसम्बन्धारच्छिन्न होनी है, जब कि निमित्तकारणना तादात्म्याऽनिरिक्तसम्बन्धावचिन्न होती है। सम्बन्ध बदलने पर कारणता बदल जाती है । अतः वीणा. वंणु आदि अनेक में समयापिकारणता की कल्पना करने पर गौरय दोष प्रसक्त होत है। इसलिए उनमें निर्मिनकापणना का स्वीकार करना ही संगत है। यहाँ इस शंका का कि -> 'शन्द को आकाश का गुण न माना जाय नर तो आकाश की ही मिद्धि न हो सकेगी, क्योंकि दादाश्रयत्व या वादसमवायिकारणवरूप में ही आकाश की मिद्धि होती है' - समाधान यह है कि ईश्वर से अतिरिक्त आकाश नहीं है ईश्वरवादी हम नव्य नैयायिक आकाश को ईश्वरस्वरूप ही मानते हैं । अत: शब्दाश्रयत्वम्प से अतिरिक्त आकाश की सिद्धि न हो तो भी काई दीप हमारे मत में प्रसक्त नहीं है ।
स पyw] नहीं है - सादादी - तन्न. | मगर विचार करने पर नल्य मेगापिका का उपर्युक्त मत भी श्रद्धेय नहीं हो सकता है, क्योंकि शब्द को पवन का गुण मानने पर तो जैसे पवन के गुण स्पर्श का स्पादन प्रत्यक्ष होता है ठीक वैसे ही शन्द का भी स्पानि प्रत्यक्ष होने लगेगा । पवन के गुण का त्वगिन्द्रियजन्य ही माक्षात्कार होता है, न कि थांत्रन्द्रियजन्य साक्षात्कार । अत: इस दांप के सवच शब्द का पवनगुण नहीं माना जा सकता । यहाँ यह शंका हो कि > 'शद वायगुण होने पर भी स्पार्शन प्रत्यक्ष