Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 168
________________ * शब्दस्य वीणादिगुणत्वनिरास: ताव्यास्तु निमित्तपवनस्यैव शब्दो गुण: । अत एव निमित्तपवननाशात्तनाश:, समवायिकारणनाशस्य समवेतकार्यनाशं प्रति हेतुत्वात् । कर्णसंयुक्तनिमित्तपवनसमवायाच्च तद्ग्रहः । न च वीणा-वेणु-मृदङ्गादेरेव कुतो नायं गुण इति वाच्यम्, तेषामननुगतत्वात् निमित्तपवन जै नरालता ॐ | जात्या व्यञ्जकत्वस्य युक्त्सहत्वात् । मतिज्ञानप्रत्यक्षत्वसाक्षादुत्र्याप्यधर्माविच्छिन्नहेतुत्वमवेन्द्रियलक्षणम् । इन्द्रिय षद्धर्विधसन्निकर्षान्पतमप्रत्यासन्या लौकिकप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नहेतुत्वं निराबाधम् । न च जन्यपृथिवीत्याद्यवच्छिन्ने पृथिवीत्वादिना हेतुत्वस्य क्लृप्तत्वाद प्राणादेः पृथिवीत्वादिकमेवेति वाच्यम्, पृथिवीत्वादिकं जलत्वादिकं वा ? इत्यन्नाऽविनिंगमादिति दिक् । नव्या नव्यास्तु रति । आहुरित्यनेनाऽस्याऽन्वयः । तुः पूर्वोक्तापेक्षया विशेषद्योतनार्थः । तथाहि निमित्तमवनस्येव शब्दनिमित्तकारणत्वेनाऽभिभतस्य मरुतः, एककांरणाम्बरन्यवच्छेदः कृतः । शब्दनिर्मिनकारणत्वेन प्राचामभिमतस्य पवनस्यैव शब्दसमवायिकारणत्वेन शब्दस्य पवनगुणत्वमित्यर्थः अत एव शब्दं प्रति क्लुप्तनिमित्तकारणताकस्प पवनस्थ समवायेन दान्दं प्रति हेतुत्वकल्पनाचित्पादव, निमित्तपचननाशात् = शब्दनिमित्तकारणत्वेन प्राचाननैयायिकः श्रभिमतस्य वस्तुतः शब्दसमवायिकारणस्य अनिलस्य विनाशात् तन्नाशः = समवेतशब्दध्वंसः सोपपत्तिकः, प्रतियोगिता समवायिकारणनाशस्य स्वरूपतः समवेतकार्यनाशं = समवेतकार्यनाशत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वात् । अनुभूयते हि शब्दोत्पादकःनिलविरामाच्छन्दविराम: । यदि च पवनस्य शब्दसमवायिकारणत्वं न स्यात् न स्यादेव अनिलविनाशाच्छन्दविनाशः । न हि निमित्तकारणस्थित्यधीना नैमित्तिकस्थितिर्भवति । अतोऽनिलस्य तादात्म्येनैव शब्दकारणत्वमङ्गीकर्तुमर्हति । = 30% ननु शब्दस्याऽम्बरगुणत्वानङ्गीकारे श्रीत्रावच्छिन्नसभवायात्तद्ग्रहो न स्यादित्याशङ्कायामाहुः - कर्णसंयुक्तनिमित्तपवनसमत्रायाच्च तद्ग्रहः = शब्दसाक्षात्कारः । कर्णसंयुक्ते निमित्तकारणत्वेन प्राचामभिमतं पवने शब्दस्य समवेतत्वात् स्वमंयुक्तसमवायप्रत्यासस्था श्रीञरस शब्दग्राहकत्वात स्वसंयुक्तसमवेतसमवायसन्निकर्षेण वाब्दत्वकत्वादिसाक्षात्कारजनकत्वान्न श्रोत्रावछिन्नसमवायश्रीभावच्छिन्नसमवेतसमवाययोः प्रत्यासत्तित्वकल्पनागौरवं न वा शब्दादिप्रत्यक्षानुपपत्तिरिति नव्यनैयायिकाभिप्रायः न च प्राचां मते व वीणादेरपि शब्दनिमित्तकारणत्वाऽविशेषात् नव्यमले पवनस्यैव शब्दः कुती गुणः ? बीणावेणु- मृदङ्गादेरेव कुतो नायं गुणः । इति वाच्यम्, तपां वीणा-वेणु- मृदङ्गादीनां अननुगतत्वात् अनतिप्रसक्तसाधारण धर्मशून्यत्वात्, विजातीयत्यात् । न च वीणावादिनंच तत्कारणत्वमस्त्विति वाच्यम्, व्यतिरेकव्यभिचारप्रसङ्गात् । न च अन्यवहितोत्तरत्वनिवेशान्नायं दोष इति वक्तव्यम्, तादृशनानाकार्य कारणभावकल्पने महागौरवात् । पचनस्तु न शब्दव्यभिचारी. तस्य शब्दत्वावच्छिन्नाव्यवहितपूर्वक्षणावच्छिन्नाभावाऽप्रतियोगित्वात् पचनत्वेनानुगतत्वाचेति निमित्तपवनस्यैव पवनत्वेन रूपेण - - तो यह असङ्गत है, क्योंकि प्राण इन्द्रिय पार्थिव है इसमें कोई प्रमाण ही नहीं है, तब सांकर्य को अवकाश कैसे १ अतः इन्द्रियत्वरूप से लौकिक प्रत्यासत्ति से इन्द्रिय को लौकिक प्रत्यक्ष का कारण माना जा सकता है । शब्द पवनगुण है जव्यगत 3 नव्या । शब्द के बारे में नव्य विद्वानों का यह कथन है कि शब्द न तो आकाश का गुण है और न तो अन्य है किन्तु शब्दनिमित्तकारणविया अभिमत पवन का ही गुण है। इसीलिए तो निमिनीभूत पवन के नाश से शब्द का नाश हो जाता है, क्योंकि समवायिकारण का नाश समवेत कार्य के नाश का हेतु बनता है। यहाँ यह शंका कि शब्द आकाश का गुण न होगा तो आंत्र के द्वारा स्वसम्बन्ध से शब्द का प्रत्यक्ष न हो सकेगा' <- इसलिए निराधार हो जाती है कि स्वसंयुक्तसमवायसम्बन्ध ने क्षेत्र शब्दग्राहक बन सकता है। स्व = श्रोत्रेन्द्रिय, उससे संयुक्त होगा निमित्तकारणविश्रया अभिमत पवन और उसमें समवेत है शब्द | अतः स्वसंयुक्तसमवायसन्निकर्ष सेन्दका प्रत्यक्ष हो सकता है। यहाँ इस शंका का कि 'शब्द को निर्मिनकारणविघया अभिभत पचन का गुण मानना या तादृश वीणा-वेणु-मृदंग आदि का गुण मानना : इसमें कोई चिनिगमक नहीं होने से शब्द को वीणादि का ही गुण क्यों न माना जाय ?' समाधान यह है कि वीणा, वेणु, मृदङ्ग आदि गल्दनिमित्तकारण अननुगत हैं । उनमें कोई एक अनुगत धर्म नहीं है, जिस रूप से उनमें शब्दसमवायिकारणता मानी जा सके । जब कि शब्दनिमित्तकारणविघया अभिमत पवन में तत्व धर्म अनुगत है । अतः पवनत्वस्वरूप अनुगत = सर्वपवनसाधारण धर्म से पवन को शब्दसमवायिकारण मानना ही मुनासिब है पवन में कारणता तो अवश्यक्तृप्त ही है, तब हम उसमें रही हुई शब्दकारणता को निमित्तकारणतास्वरूप न मान कर समवायिकारणतारूप मानते H

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