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६०६ मध्यमस्पाद्वादरहस्ये खण्डः ३ का.९१ * गुणान्तविनेन्द्रियान्तरव्ययस्थान में कारः * विपश्चित्, इन्द्रियान्तराऽग्राहगाहकत्वमेव मिनेन्द्रियत्वव्याप्यं, न तु गुणान्तर्भावेन गौरवादित्युक्तत्वात, शब्दैकत्वादिग्रहस्याऽपि श्रोप्राधीनत्वाच्च । तेता श्रोग्रेन्द्रियं द्रव्याग्राहकं रूपस्पर्शाऽग्राहकबहिरिन्द्रियत्वाद्रसनवदि'त्यपि निरस्तम्,
-* जयलता * न व्यापकाभावसाधकत्वं तथापि स्फुटन्वानदुपेक्ष्य दोषान्तरमाह, इन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकत्वमेव = इन्द्रियान्तराग्राह्यगांचर - लौकिकप्रत्यक्षजनकतावच्छेदकमेव, भिन्नेन्द्रियत्वव्याप्यं = इन्द्रियान्तरत्वव्याप्यं, न तु गुणान्तर्भावेन इन्द्रियान्नराम्राह्मगुण. ग्राहकवं, गौरवादिति = शरीरकृतगौरवादिति उस्तत्वात = 'लावादिन्द्रियान्तराऽग्राह्यग्राहकल्वमात्रस्यैव मिलेन्द्रियत्वव्यवस्थापकत्वादिति (दृश्यतां ३५२ नम पृष्ठे) तमोद्रव्यत्ववाद तौतातिककदेशिमतनिरूपणाबसरे गदितल्यात्, इन्द्रियान्तराग्राह्यगुणाग्राहकत्वत्वस्य गुरुतया हेतुतानवच्छेदकत्वेन ब्याण्यत्वासिद्धिरिति भावः । न चैवं तामसेन्द्रियसिद्धिप्रसङ्ग इति वाच्यम्, आलोकनिरपेक्षचक्षुपच तमोग्रहसम्भवस्योक्तत्त्वात् । कर्णशकुल्यवच्छिन्नाकाशम्य नु श्रीन्द्रियत्वं नेवास्माकमिष्टमित्यनभ्युपगतोपालम्भ इत्यपि द्रष्टव्यम् ।
अस्तु वेन्द्रियान्नराग्राह्मगुणग्राहकत्वस्पेन्द्रियान्तरत्वच्याप्यत्वं तथापि श्रोत्रस्येन्द्रियान्तरत्वं सिध्यतीत्याहापनाह . शब्दकत्वादिग्रहस्याऽपि ओराधीनत्वाच । न हि शब्दवृत्त्येकत्वादिक कर्गतरेन्द्रियेण गृह्यते । ततश्चन्द्रियान्तराना हास्य शब्दनिष्ट - कत्वादिगणस्य ग्राहकत्वाच्छोत्रस्यन्द्रियान्तरत्वमनाविलमव । न च स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेनवेकत्वं शदे भासत इति वक्तव्यम्, साक्षात्सम्बन्धसम्भवे परम्परासम्बन्धकल्यन गैरवात, द्वित्व- बहुत्यादिप्रतीत्यनुपपत्तेश्च । एतेनापेक्षावद्भिविशेषविषयत्वरूपकत्वादिकल्पनापि प्रत्युक्ता, प्रदादाविव निरुपचरितैकत्व दरेव शब्दे प्रतीतः ।
एतेन = ओत्रस्प एकत्वाद्याश्रपशब्दग्राहकत्वप्रतिपादनेन । निरस्तमित्यनेनास्यान्वयः । श्रीन्द्रियमिति पक्ष-निर्देशाः द्रव्याऽग्राहकमिति। द्रव्यगोचरलौकिकप्रत्यक्षजनकत्वाभावः साध्यः । हेतुमाह रूपस्पर्शाग्राहकबहिरिन्द्रियत्वात् । इन्द्रियत्वादित्युक्ते मनसि व्यभिचारः तस्यात्म-द्रमग्राहकत्वादिति बहिरित्युक्तम् । तथापि घटस्पार्शनजनकस्पर्शनेन्द्रिवंग व्यभिचार इनि स्पांग्राहकेयुक्तम् । तथापि घटचाक्षुषजनकचक्षुरिन्द्रिपे व्यभिचाराद्रूपस्याऽपि तन्न निवेशः । यद्योग चक्षुषि भएपभियाग्राहकबहिरिन्द्रियत्न सत्यपि द्रव्यग्राहकत्वमस्ति तथापि रूपस्पर्शान्यतराग्राहकबहिरिन्द्रियत्वत्वस्य हेततावच्छेदकत्वमिन्यन्न तात्पर्यमिति न दोपः । दृष्टान्तमाह . रसनवदिति यथा रूपस्पशाग्राहकबाहिरिन्द्रियत्वेन रसनस्य न द्रव्यग्राहकत्वं नथव श्रोत्रस्यापि द्रव्याग्राहकञ्चसिद्भया
हो जाता है कि भिनेन्द्रियत्व का व्याप्य केवल इन्द्रियान्नगाग्राहाग्राहकत्व ही है, न कि उसमें गुप का प्रवेश कर के इन्द्रियान्नराग्राह्यगुणग्राहकत्व उसका व्याप्य है, क्योंकि गुग का निवेश करने पर गौरव है - यह तो पहले अन्धकारवाद में (देखिये द्वितीय संघ पृ. ३५५) कहा जा चुका है। जर. लघुरूप में व्याप्यता मुमकिन हो तब गुरुमप से व्याप्ति का स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि तब व्याप्यत्वाऽसिद्धि दोप प्रसस्त होता है। अतः पान्द गुणात्मक न हो तो भी इन्द्रियान्तर से अग्राह्य ऐसे शब्द का ग्राहक होने से श्रोत्र में इन्द्रियान्तरत्व की सिद्धि निरागाध है। इसलिए शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि निराबाध है । दूसरी रात यह है कि अभ्युपगमवाद से नैयापिकमान्य इन्द्रियान्तराऽग्राह्यगुणग्राहकत्व को भित्रन्द्रियत्व का व्याप्य माना जाय तो भी आंत्र में इन्द्रियान्तरत्व की सिद्धि निरागाध है, क्योंकि इन्द्रियान्तर में अग्राह्य ऐसे एकत्व, द्वित्व, महत्त्वादि गुणों का, जो शब्दनिष्ठ हैं, ग्राहकत्व श्रोत्र में रहता ही है । शब्दनिष्ट एकत्व आदि गुण का साक्षात्कार कंबल श्रोत्र के ही अधीन है। इस तरह एकत्वादि गुण का आश्रय होने से शब्द में द्रव्यत्व की सिद्धि भी निगराध है । इस तरह जब शन्दनिष्ट एकत्व | आदि गुण का एवं गुणाश्रय होने की वजह द्रव्यात्मक शब्द के ग्राहकत्व = लौकिक-साक्षात्कारजनकत्व की श्रोत्र में सिद्धि हो जाने पर यह कहना कि --श्रोत्रेन्द्रिय द्रव्यग्राहक - द्रव्यविषयकलौकिकसाक्षात्कारजनकत्वविशिष्ट नहीं है, क्योंकि यह रूप एवं स्पर्श की अग्राहक चहिरिन्द्रिय है . जो रहिरिन्द्रिय रूप या स्पर्श की ग्राइक नहीं होती है वह व्यग्राहक नहीं होती है, जैसे कि रसनेन्द्रिय । श्रोत्रात्मक रहिरिन्द्रिय भी रूप-स्पान्यतर की ग्राहक नहीं है । अतएच वह भी द्रव्यग्राहक नहीं है । अतः शन्द को द्रन्य मानने पर उसमें श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यता नामुमकिन हो जायेगी । मगर थोत्रेन्द्रिय शब्दग्राहक है यह तो छोटे बच्चे भी जानते हैं। इसलिए शब्द में प्रसिद्ध श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यन्य की अनुपपत्ति के बल से शन्न में द्रव्यच राधित होता है' -भी बेकार है, क्योंकि इस अनुमान में कोई विपक्षवाधक तर्क नहीं है। रूपस्पशांन्वतराग्राहकहिरिन्द्रियत्व होने पर भी श्रोत्र में शब्दात्मक द्रव्य की ग्राहकता हो तो क्या दोष है ? इस व्यभिचारशका का निवर्तक कोई नर्क नैयायिकपक्ष में नहीं है। विपक्षबाधक नर्क न होने पर विवक्षित हेतु मे साध्य की सिद्धि कैसे हो सकेगी ? यदि यहाँ नयायिक की