________________
** नृसिंहशास्त्रिवचननिगसः * कि शब्दस्याकाशगुणत्वे सर्वस्य सर्वशब्दग्रहणापत्तिः श्रोत्रसमवायाऽविशेषात् । तत्पुरुषीयकर्णशष्कुल्यच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिाधारतायास्तत्पुरुषीयशब्दग्रहं प्रति नाना हेतुत्वकल्पने च गौरवात, श्रोत्रसंयोगस्यैव शब्दप्रत्यासत्तित्वमुचितम् । अत एव च प्रत्यवादि परमर्षिणा 'पुठं सुणेइ सहू' (आ.नि.१) इति।।
- -* नायलता *शब्दस्य द्रव्यत्वं समर्थ्य तस्य गुणत्वं बाधकमाह - किश्चेति । शब्दस्य आकाशगुणत्वे स्वीक्रियमाणे सर्वस्य जीवस्य सर्वशब्दग्रहणापत्तिः = पावच्छब्दगोचरश्रावणप्रत्यक्षत्रसङ्गः सर्वेषु श्रोत्रसमवायाऽविशेपात् गगनात्मकश्रोत्र - शब्दसमवाययोरकत्वात् । न च विषयतासम्बन्धेन चेत्रीय दाब्दगोचरश्रावणप्रत्यक्ष प्रति चैत्रीयकर्णशकुल्यवनिछत्रसमवायावच्छिनाधारता-निरूपिताधेयतासम्बन्धेन श्रोत्रस्य कारणत्वं पद्वा स्वसम्बायेन श्रोत्रस्य स्वरूपसंसर्गेण चैत्रीयकर्णशष्कुल्यवच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतानिरूपिताधेयतायाश्च कारणत्वाभ्युपगमान्न मैत्रीयकर्णशष्कुल्यवच्छेदेन वर्तमानस्य शब्दस्य चत्रादिना ग्रहणप्रसङ्ग: तच्छन्दनिष्ठाधेयतानिरूपका धारतायाः चैत्रीयादिकर्णशष्कुल्यवच्छिन्नसमवायसम्बन्धानबच्छिन्नत्वादिति वाच्यम्, तत्पुरुपीयकर्णशकुल्यवच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिनाधारतायाः = तत्पुरुषसम्बन्धिकर्णशष्कुल्यवच्छिन समवायसंसर्गेणावच्छित्रया - नियन्त्रिनया आधारतया निरूपिनाया आधेयतायाः तत्पुरुपीयशब्दग्रहं = तत्पुरुषसमंवतं शब्दगोचरथावणप्रत्यक्ष प्रति नानाहेतुत्वकल्पने च गौरवात् । पतेन शब्दनिष्ठलौकिकविषयतासम्बन्धन तत्पुरुषयश्रावणं प्रति तत्पुरुषायकांवच्छेद्यसमवयस्यैव सत्रिकर्षविधया हेतुत्वस्वीकारेणोक्तदाघाभावात शब्दस्येव तत्समदायस्यापि कर्णावच्छेद्यत्वस्वीकारात अथवा केवलसमबाय एव सन्निकर्षः निरुक्तसम्बन्धन तत्पुरुषीयश्रावणं प्रति तत्पुरुषीयकर्गावच्छंद्यशब्दस्य तादात्म्यसम्बन्धेन हेतुत्वीकारणवानतिप्रसङगान' (त.सं.न.पृ.२८१) इति नृसिंहवचनं पराकृतम्, शब्दत्वापेक्षया तत्पुरुपीयकवच्छंद्यशब्दत्वस्य गुरुत्वात । तहि कथं नियतशब्दप्रत्यक्षी-गपत्तिः ? इत्याशड़कायामाह . श्रोत्रसंयोगस्यैव शब्दप्रत्यासतित्वमुचितं, न तु श्रीत्रसमवायस्य । अत एव = विषयतया शब्दप्रत्यक्ष प्रति स्वसंयोगसम्बन्धेन श्रीत्रस्य कारणत्वादेव च प्रत्यपादि परमर्पिणा श्रीभद्रवाहस्यामिना आवश्यकनियुक्ती 'पुढे सुणइ सई' इति । न्याख्यातश्चात्र 'स्पृष्टं इत्यालिङ्गितं तनी रेणुवत शृणोति गृहणाति उपलभत इति पर्यायाः, कं ? शव्यतमनेनेति शब्दस्नं शब्दप्रायोग्यं द्रव्यसङ्घातम । इदमत्र हृदयम् - तस्य सूक्ष्मत्वात् भावुकत्वात् प्रचुरद्रव्यरूपत्वात श्रीन्द्रियस्य चान्येन्द्रियगणात्प्रायः पदतरत्वात्स्पष्टमात्रमेव शब्दद्रव्यनिवई गृहणाति' इत्येवं श्रीयाकिनीमहत्तरासूनुभिः।
किा श. । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि शब्द का आकाश का गुण माननेवाले नयापिक आदि विद्वानों के मत में तो सभी को सभी शब्दों के श्रावण प्रत्यक्ष की आपत्ति आयेगी, क्योंकि सभी पुरुपों के आकाशात्मक श्रोत्र का समवाप सम्बन्ध सत्र शन्दों के साथ समान ही है। आकाश एक है, शन का समवाय भी एक है तब तो प्रत्येक शब्द में श्रोत्रसमवाय अविशेष होने से सभी को सभी शब्दों के श्रावण प्रत्यक्ष की आपत्ति अपरिहार्य है। यदि इसके समाधानार्थ, नैयायिक की ओर से यह कहा जाय कि > 'हम तत् तत् पुरुप के शब्दप्रत्यक्ष के प्रति केवल समवाय को श्रावण कारणतावच्छेदक सम्बन्ध नहीं मानते हैं किन्तु तत् तत् पुरुपीय कर्णशप्कुली से अवछिन्न ऐसे ममवाय सम्बन्ध से अवच्छिन्न आधारना से निरूपित्त आधेयता को ही श्रावण प्रत्यक्ष का कारणतावच्छेदकसंसर्ग मानने हैं। अतः जर चैत्र की कर्णशप्कुली से अवच्छिन आकाश में शन्द होगा तब उस शब्द का मैत्रादि को श्रावण प्रत्यक्ष नहीं होगा किन्तु चैत्र को ही होगा, क्योंकि तब उस शन्न में रही हई आधेयता की निरूपक आधास्ता मैत्रीयकर्णशप्कुली से अवच्छिन्न समयाय से अवच्छित्र नहीं है किन्तु क्षेत्रीय कर्णशकुली से अवच्छिन्न = विशिष्ट समवायसम्बन्ध से अचच्छित्र : नियन्त्रित है। अतः शब्द को विभु आकापाद्रव्य का गुण मानने पर भी सभी पुरुपों को सभी शब्दों के श्रावण प्रत्यक्ष की आपनि का अवकाश नहीं है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि तब अपरिमित पुरुषों के भित्र भित्र श्रावण प्रत्यक्ष के प्रति अनेक कारणताचच्छेदकसम्बन्ध की उपयुक्त रीति से कल्पना करने का गौरव टोप उपस्थित होता है । इसकी अपेक्षा उचित तो यही है कि वान्दप्रत्यक्ष में श्रोत्रमंयोग को ही कारणतावच्छेदक सम्बन्ध माना जाय । मतलब कि विषयतासम्बन्ध से गन्दप्रत्यक्ष के प्रति स्वमयोगसम्बन्ध में श्रीत्र कारण है . यही कार्यकारणभाव मानना मुनासिब है, जिसका शन्दद्रव्यवादी हम स्याद्वादी स्वीकार करते हैं । शन्द आंत्र से संयुक्त होने पर ही धावण प्रत्यक्ष का चिपय होता है - इसलिए तो परमपिं श्रीभद्रबाहस्वामीजी ने भी आरश्यक नियुक्ति में कहा है कि 'श्रोत्रेन्द्रिय स्पृष्ट शन्द्र को सुनती है' । स्पृष्ट का अर्थ है कर्णेन्द्रिय में संयुक्त । शन्द में श्रोत्र का संयोग रहने पर ही विपपतासम्बन्ध से उसमें श्रावण प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है । यह आपनचन का तात्पर्य है। यह युक्तिम्ङ्गत भी है, क्योंकि द्रव्यप्रत्यक्ष में क्लम = सिद्ध संयोगसम्बन्ध