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बभिधान जनकन्यस्थापनम* A 'वन्देतोरेवेत्यादिन्यायातीतशब्दजनकतीतपवमानस्यैवाऽभिधातजनकत्वमस्त्विति वेत् ? का, अत्ततो विनिगमनाविरहेणाऽपि हवनेरभिघातजताकरसिध्देः, पवमानस्यातीप्सितत्वाच्च । प्रतिस्खलनरप्यस्य नासिन्दम, प्रतिस्खलितस्यैव विश्रेण्यां यहणात, तथा
-* जयलाII *भिन्यादिभिः सह शब्दम्य प्रतियात पति कदाचिन तन: शब्दाजनकन्रलक्षणो नीदनारख्या संयोगा जायने कदचित्र शब्दजनकत्वलक्षणाभिघाताभिधानः संयोगः स खात्यने । लनः संयोगान्छन्दावनेष कम उत्परते ततश्च धान्दावयविभागा भवति ।। पदि व शब्दस्य द्रव्यत्वं न स्यानहीने सर्व ग्लूिनीगं स्यादिति तदन्यथानपत्या उदस्य रत्वं सिध्यतीति भावः । | अथ 'तद्धतारवेत्यादिन्यायान् = 'तद्धतारच कार्यसम्भव कितन ? इति न्यायतः, तीनशब्दजनकतीत्रपवमानस्य || = तावत दिशाब्दहेताः तात्रस्य मम्त एव अभियानजनकत्वं = शब्दोल्पादकमयांगकारणत्वं अस्तु । नीन्त्रस्य परमानम्य
तीब्रशब्दहत्तं तांत्रशब्दस्य चाभिवानकारणत्वमित्यवं कल्पनापक्षया लायवगाभंतात प्रानन्यायात तत्रपयमानस्यत्र शब्दाभिधानाभयजनकत्वन्युपगन्तुमहनि । ततश्च शब्द न प्रनिघारजनकत्वं किन्तु नरुत्यवेनि न शन्दस्य मात्वं मित्र्यनि, हताः स्वरूपासिद्धवादित्यथाशयः ।
प्रकरणकारस्तन्निराकरने . नेति । तात्रशन्द - पवनयाभिधातीत्पादाब्यबहिन बगावच्छंदन निमनित्वात दान्दम्य तत्कारणत्वमाहास्वित् 'पवनस्य : इल्यमा विनिगमात अन्ततो गत्या विनिगमनाविरहेणापि ध्वनेरभिधानजनकत्व सिद्भः, अन्यथा अवैशमन्यायापातात् । सर्वत्र तीवदादात्यावस्थलं तात्रय पवमानस्य = मरुतः नादाब्दजनकत्वेन अनीप्सितत्याच । ताजपवमानस्य तीब्रदान एवोपक्षीणशक्तिकतेनाभिवानं प्रत्ययवासिद्धत्वमेव । न हि नानपचनजन्या भिन्ना: दादा: सूक्ष्मबहुत्याभ्यामन्यद्रव्यगायकत्वादनन्तगुणवृद्धियुक्ताः मन्नः पदम दिक्ष लंकान्तं सानुबन्ती यत्र यत्राभिधानं जनपन्ति नत्र तत्र तीत्रपवमानां वयं वर्तते । अनः न शन्दानरकालोनाभिधानमात्रं पर जीत्रपवनरय कारणत्यसम्भवः किन्तु शन्दस्यबत्यनियान - जनक्रत्वानन्दस्य हव्यन्न। न तु गुणमणिनगदम्पर्याधः ।
यत्र पूर्व 'द्वारवातानुपाताच धूमवचे त्युक्तं (पृष्ठ ६५) तन्मनासकृत्याहू प्रतिस्खलनमपि = उप्परमणं तत्फलभूतं वक्रीभवनमगि अस्य = दाब्दस्य नासिद्धं = न बाधितम, यतः प्रतिस्खलितस्यैव = समवेगिंगमनं उपरतल्यैव, नदनन्तरं बक्री भूतस्य चक्रमार्ग प्राप्तस्येति यावत, सबकारण समश्रेण्यां गतिशीलशब्दम्य व्यवच्छेदः कृतः, विश्रेण्यां = भाषाविषमक्षेत्रप्रदेशापदकी, ग्रहणात् = श्रावगप्रत्यक्षविषयीकरणान् । यद्यपि कुड्यादिना स्थूलवादप्रतिरूवलने प्रतिध्वन्यादित: सिद्धमंव तथापि प्रकृतरकारान्यथानुपपन्या प्रतिस्वलनमत्र प्राधान्यन द्वितीयादिसमयावच्छन्न प्रथमसमयगतेश्रेण्यपक्षया बक्रगननात्मक
है - यह सिद्ध होता है।
DHE IMEITU.tv है - मयाजादी । अथ न.। यहाँ यह शंका हो कि →शन को अभियानजनक मानने की अपेक्षा ग्रन्ट के जनक को ही अभिघातजनक मानने में लापत्र है, क्योंकि 'तडेतारेवास्तु किं न :' यह न्याय उपर्युक कल्पना का समर्थन करता है । इस न्याय झा अर्थ यह है कि किमी वस्तु में अन्य की कारणता मान कर अन्य को विक्षित कार्य का कारण मानना हो तब प्रथम को ही विवक्षिन कार्य का कारण मानना मनामिव है । अतः प्रग्नुन में 'नीच बहता हुआ पचन नीत्र शन्न का उत्पन्न करता है और तीनशब्द अभियान को उत्पन्न करता है' इस कल्पना की गक्षा उपर्युक्त न्याय से नीव रहते हुए पवन को ही अभियान का जनक मानना उचित है । अतः शब्द में अभियातजनकल न होने से व्यय की मिद्धि नहीं हो सकती है' -नी यह इसलिए नागनागिन है कि बहना हुआ पयन और शन्द दोनो ही अभिपात की उत्पनि के अत्यहिन पूर्ववती होने से किसी एक में कारणता का स्वीकार कर के अन्य में कारणता का अपलाप नहीं किया जा सकता, क्योंकि उमम कार्ड विनिगमक नहीं है। अत: चिनिगमनाचिरह से भी शन्द्र में अभियान जनकन्द की सिद्धि अन्गिकार्य है। अभिपातजनकल की इन नाह शब्द में सिद्धि होने से उसके व्यापक द्रव्यत्व को भी दाद में मिडि निगवाध होगी। इगक अनिग्नि यह भी ध्यातव्य है कि गर्वत्र पहना हुआ पचन ही अभियान को उत्पन्न करता है . यह अभिमत भी नहीं है । यहाँ यह शंका करना कि -> 'शब्द का प्रतिस्बलन हो तर उमग प्रतिघातजनकन्ना की गिडि हो गस्ती है. मग मन की सचलना ही असिद्ध है।
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