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६९: मध्यमस्याडादरहस्ये खण्ड ३ का. १९ * तत्रागादः
इत्थच शब्दगुणत्वेनाकाशासिद्धिरपि नास्माकं दोषाय, शब्दस्य द्रव्यत्वेनाभिमतत्वात् । तथा चार्ष - 'सदधयारऊजोआ पभा छाया तहेव य' ति (उत्त. २८ / १२ ) । किय, मूर्तत्वादपि शब्दस्य द्रव्यत्वमुपपत्तिगत् । न च मूर्तत्वमेव ध्वनेरसिद्धं प्रतिघातविधायित्वादिभ्यस्तत्सिद्धेः । तदुक्तं 'प्रतिघातविधायित्वात् लोष्टुकमूर्तताध्वनेः । व्दारवातानुपाताच्च धूमवच्च परिस्फुटम् ॥ ) इति । न च तस्य गुणत्वेऽपि प्रतिघातजनकत्वं निराबाधम्, तस्य द्रव्यत्व एव तज्जन्यनोदनादिजन्यक्रिययाऽवयवविभागसम्भवात् ।
दलता है
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इत्थअ = सर्वाधारत्वेनाकाशसिद्धीच शब्दगुणत्वेन
गुणात्मकवादसम्बायिकारणत्वेन आकाशाऽसिद्धि: अतिरिक्तस्य गगनस्य अप्रसिद्धिः अपि न अस्माकं स्याद्भादिनां दोषाय । न च गुणात्मकशन्याश्रयत्वेन कुती नाकाशसिद्धिरभिमत ति वक्तव्यम्, शब्दस्य द्रव्यत्वेन अस्माकं स्याद्धादिन अभिमतत्त्वात् । उत्तराध्ययनसंवादमाह तथा चार्य 'संबंधयाज्जोआ' इति 1 वादे केवलमागमरण किचित्करत्वादुपायस्यां पायान्तरादुपकत्वाचानमानननत्यमपति किथेति । मूर्त्तत्वापीति । प्रयोगस्त्येवं शब्दां द्रव्यं मूर्तल्यात घटवदिति । न च मूर्त्तत्वमेव वनेर सिद्धमिति स्वरूपासिद्धिस्तत्वं हेतोरिति वाच्यम् प्रतिघातविधायित्वादिभ्यः तत्सिद्धेः = नूत्तत्वसिद्धेः, आदिपटेन द्वावातानुविधावित्याभिभवनीयत्वानिभावुकत्वादीनां ग्रहणम् । अत्रैव प्राचां संवादमाह - तदुक्तं प्रतिघातेति । प्रयोग एवन शब्द मूर्त प्रतिघातविधायित्वान् कुङमाइनलेटुवत्, ध्वनिः द्रव्यं द्वारबातानुयायित्वात् धूमवतु इति । तदुक्तं तत्त्वार्थसिद्धसेनीयवृत्तावपि शब्द: पुद्गलद्रव्यपरिणामः तत्परिणामता चाम्य मूर्त्तत्वात् मूर्तता च द्रव्यान्तरविक्रियापादनसामर्थ्याति । दृष्टं हि तश्रणवधिरीकरणसामर्थ्यम् । इतच तस्य मूर्त्तत्वं प्रतीपयावित्वात् पर्वतप्रतिहतारमवत् द्वारानुविधावित्वादात्पयत् सहाय्यार्थ्यादिगुरुधूत वायुना प्रमाणत्वानृणपर्णादिवत् सर्व दिग्ग्राह्यत्वात् प्रदीपवत्, अभिभवनीयत्वा नारासम्वत् अभिभावकत्वात्सवितृ मण्डलप्रकाशवन महता हि शब्देनाऽल्पो भिभूयते दान्द:' (त.सि.वृ./१८) इति ।
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ननु विपक्षवाचक तर्कविरहात 'शब्दी द्रव्यं प्रतिघातविधायित्वादित्यनुमानं न तस्य द्रव्यत्वसाधने प्रत्यलमित्यागकाम - पाकर्तुमुपक्रमते न च तस्य शब्दस्य गुणत्वे सति अपि प्रतिघातजनकत्वं निराबाधं स्यात् यत: तल्य = शब्दस्य द्रव्यत्वं स्वीक्रियमाण एवं तज्जन्यनोदनादिजन्यक्रियया = प्रतिवातजन्यनी दनाभिघातजन्यकगंगा, अवयवविभागसम्भवात् ।
शब्ददव्यत्वसिद्धि (ॐ)
भागम से ही नहीं, युक्ति से भी शब्द द्रव्यं मूर्तत्वात् घटवत् 'शब्द में मूर्तत्व ही असिद्ध है'
इथं । इस तरह सर्वाधारत्वेन आकाश द्रव्य की सिद्धि हो जाने से शब्दगुणत्वेन यानी शब्दात्मक गुण के हेतुत्वरूप से आकाश की सिद्धि न हो सके तो भी हम स्याद्वाद के मत में यह दोपात्मक नहीं है, क्योंकि शब्द को हम गुण ही नहीं मानते हैं । शब्द तो द्रव्यात्मक ही है। इस विषय में उत्तराध्यय आगम का लोक भी साक्षी है, जिसका अर्थ है 'शब्द, अन्धकार, उद्योत, प्रभा, छाया ये सब पुद्गलात्मक दें। केवल शब्द में द्रव्यात्मकता की सिद्धि होती है। अनुमानप्रयोग इस तरह किया जा सकता है कि मूर्त होने की वजह शब्द उल्यात्मक ही है। यहाँ यह शंका नहीं करनी चाहिए कि क्योंकि प्रतियात होने की वजह वह मूर्त ही है। जैसे फेंका हुआ पत्थर आदि दीवार आदि से टकराकर वापस आते हैं, आगे नहीं जाते हैं; ठीक वैसे ही शब्द भी दीवार आदि के साथ टकराकर प्रतिध्वनि के रूप में उपलब्ध होता है, आगे नहीं जाता है । अतः वह भी मूर्त ही है। इसलिए तो अन्यत्र भी दाद में भूर्तत्व की सिद्धि के लिए कहा गया है कि 'ध्वनि मूर्त हैं, क्योंकि लेट = शुष्क मृत्पिण्ड की भांति वह प्रतिघातविधयां है जैसे महानसादि का धूम महानसादि के द्वार के पवन के अनुसार गति करता है ठीक वैसे ही शब्द भी पवनानुसार गति करने की वजह धूम की भाँति मूर्त है। यहाँ इस प्रश्न का कि शब्द भले ही प्रतिघानजनक हो, मगर वह गुणात्मक हो और इत्यात्मक न हो तो क्या दीप है !" समाधान यह है कि शब्द में प्रतिपात उत्पन्न होने के बाद नोटन शब्दाजनक संयोग या अभिघात = शब्दजनकसंयोग की उत्पनि होती है, जो शब्द के अवयव में क्रिया को उत्पन्न करते है। उस क्रिया में शब्दावयव का विभाग होता है तब संगत हो सकता है यदि शब्द द्रव्यस्वरूप ही हो, क्योंकि गुण का अवयव ही नहीं होने से गुणात्मक शब्द के अवयव में विभाग संयोग, क्रिया का होना नामुमकिन है। इसलिए शब्द को गुणस्वरूप नहीं किन्तु द्रव्यात्मक ही मानना मुनासिब
- यह सब
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