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६८८ मध्यमस्याद्वादरहरये खण्ड २ का.११ मुक्तावली नियोनिराकरणम् **
चैको विभुरेव सिध्यतीति, तम, दिशः सर्वथैकत्वे 'प्राच्यां घट' इतिवत् 'प्रतीच्यां घर' इत्यस्याप्यापत्तेः, एकस्या दिशोऽविशेषेणोदयाचलास्ताचलसम्बन्धकत्वात् ।
अथ धर्मिग्राहकमानेन स्वभावतस्ततद् दिशि तत्तत्पदार्थानामेव सम्बन्ध इति नातिप्रसङ्ग इति चेत् ? वर्हि आकाशस्यैव प्रतिनियतसम्बन्धघटकत्वं कुतो न कल्प्यते ? 'धर्मिकल्पनात '
अब प्रकरणकारः प्राह तन सम्यक दिशः सर्वधैकत्वं स्वीक्रियमाणं 'प्राच्यां घटः' इतिवत् तदैव तत्रैव प्रतीच्या घट' इत्यस्याप्यापत्तेः एकस्या विशोऽविशेषेण समानरूपेण उदयाचलास्ताचलसम्बन्धकत्वात् = उदयगिरीस्तगिरिसम्बद्ध
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स्वात । एतेन दिदा एकलं प्रत्युक्तम् । अथ धर्मग्राहकमानेन दिलक्षणधर्मिसाधकप्रमाणेन स्वभावतः प्रदर्शितप्रतीती तत्तद्विशि तत्तत्पदार्थानामंच सम्बन्धी भासने नाचलादिए तदुदिश: सम्बन्ध इति नातिप्रसङ्गः = तत्तत्रदार्थानामेकत्यविभुत्वयोरभावान्नाविशेषण सर्वासु दिक्षु सम्बद्धमिति 'प्राच्यां वट' इतिधाव न तदा प्रतीच्यां घर' इतिप्रतीतित्सङ्ग इति चेत् १ तर्हि भाकाशस्यैव 'धर्मिकल्पनाती धर्मकल्पना लघीयसी नि प्रतिनियत्तसम्बन्धघटकत्वं कुतो न कल्प्यते ? 'धर्मिकल्पनात' इत्यादित्यायात् न्यायात् । त्वयाऽतिरिक्त दिव्यं कल्पनीयं तत्र च दिवं तत्समवाय एकत्वं विभुत्वं द्रव्यादिभेद इत्यादिकञ्च स्वतंत्र्यं तदपेक्षया कम गगन एवं दिवत्वं कल्यतां लाघवान् । सर्वपामेव वर्षाणां मेरुरुतरत:' इत्यादिवचनात् गगनप्रदेशस्येव उदीच्यादिव्यवहारोपपत्तावतिरिक्तदिग्वकल्पनया सुतं गौरवान अन्यथा द्रव्यातिरिकल्य कल्पनापनेः 'अयमत पूर्वी देश' इत्यादिप्रत्ययस्याऽपि देशद्रव्यमन्तरेणानुपपन्नः । एतेन श्रनुरूपस्योदयगिरिसन्निहिता या दिक सा तत्पुरुषस्य प्राची एवमुदयगिरिव्यवहिता या दिक सा प्रतीची एवं गुरूपस्य गुरुसन्निहिता या दिक सांडीची तद्व्यवहिता त्याची' (का.८७. मु.पु. ३७८१ इति मुक्तावलीकारवचननपि परास्तम्, आकाशप्रदेशश्रेणिष्वपि तदुपपतेः ।
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वस्तुत: 'ततः प्राच्याम' इत्यादी तदपेक्षया सन्निहितं दयावदसंभोगावच्छिनाकाशवृत्तिरयमित्येव स्वारसिकीऽर्थः । तन न दिशोऽतिरेकः । तदपेक्षत्वस्य सन्निहितत्वस्य च तथास्वभावविशेयत्वम् । एतेन तदपेक्षयोदयगिरिसन्निहितत्वञ्च ऋष्ठदयगिरिसंयुक्तसंयोगापेक्षयाऽल्पतरीदयगिरिसंयुक्त् । इत्यच मधुराया: प्राच्यः प्रयाग' इत्यत्र मथुरानिष्ठोदयगिरिसंयुक्तपोगपर्याप्त संख्याव्याप्यसङख्यापर्याप्त्यधिकरणादगिरिसंयुक्तसंयोगवन्मृतंवृत्तिः प्रयाग इत्यन्वयबाधः ' (मु. दि. पू. ३७० ) इत्ति | दिनकरीयकारवचनमप्यपास्तम्, तथाऽननुभवात् आगमानुभवान्यामाकाशस्यैव सर्वाधारन कुकुमतथा दिवन मूर्तस्यानाधारत्वाच्च ।
लन्न दि। मगर विचार करने पर नैयायिक अभिमत आकशातिरिक्त एक दिशाद्रव्य का स्वीकार नहीं किया जा सकता, दिशा को सर्वधा एक अखण्ड मानने पर जैसे पूर्व में घट है। ऐसी प्रतीत होती है ठीक वैसे ही 'पश्चिम में घट है' ऐसी बुद्धि भी होने लगेगी, क्योंकि दिशा तो एक ही होने की वजह उदयाचल की भाँति अस्ताचल से भी समानरूप से सम्बद्ध हैं। दिशा का उदयाचल और अस्ताचल के साथ समानरूप से सम्बन्ध होने पर पूर्व में ही पट है, न कि पश्चिम में इसकी अनुपपत्ति हो जायेगी। यदि इसके परिहारार्थ नैयाबिक की ओर से कहा जाय कि 'दिशा तो वस्तुतः एक ही है मगर पूर्व में घट है' इत्यादि प्रतीति एवं व्यवहार में जिस सम्बन्ध का भान होता है वह तथास्वभाव से उदयाचलादि के साथ दिशा का सम्बन्ध नहीं मगर तत् तत् दिशा में तन तन पदार्थ का सम्बन्ध है, जो दिशास्वरूप धर्मी के ग्राहक = साधक प्रमाण से ही सिद्ध है । घटादि पदार्थ तो एक एवं व्यापक न होने से सब दिशा के साथ सम्बद्ध नहीं हो सकते हैं। अतः 'प्राच्यां घट:' इस प्रतीति की भाँति 'प्रतीच्यां घट:' इस बुद्धि का प्रसन्न नहीं आयेगा तो यह भी ठीक नहीं है. क्योंकि इसकी अपेक्षा तो प्रमाणसिद्ध उभयसम्मत आकाश का ही प्रतिनियतसम्बन्ध के पटकविधया स्वीकार करना उचित है, न कि अतिरिक्त एवं उभयाऽसम्मत दिशाद्रव्य का । इसका कारण यह है कि दिशात्मक अतिरिक्त धर्मों की कल्पना करना और उसमें विकृत्व, एकत्व, विभुत्व आदि की कल्पना करना इसकी अपेक्षा 'धर्मिकल्पनातो धर्मकल्पना लघीयसी' यानी 'धर्मी की कल्पना की अपेक्षा धर्म की कल्पना अत्यन्त लघु है। इस न्याय से वादी प्रतिवादी उभयसम्मत आकाश में ही दिकृत्व धर्म की कल्पना करना मुनासिब है । अतः लाघव सहकार से दिशा आकाशात्मक ही सिद्ध होगी, न कि अतिरिक्त +देशिकसम्बन्धवादी जन्यमत का निराकरण के
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