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रिनारकानवनार*
___ या 'प्राच्यां घटः' इत्यादावुदयाचलसंयोगादिरूपणाच्यादेतादिना साक्षात्सम्बन्धबाधात् तत्संयुक्तसंयोगादिरूपपरम्परासाबन्धघटकतत्यका विश्वेव च दिक सिध्यति, आकाशात्मनोरतिप्रसङ्घन तत्सम्बन्धाऽघटकत्वात् । एवं कालोऽपि तपनपरिस्पन्दनियतसम्बन्धघटकत्वेन
- जयला * नैयायिकम्तं दूपयितुमपन्यन्यति - यत्तु प्राग त्यानापान । या य::' इत्यादी ज्ञाने व्यबहार च उदयाचलसंयोगादिरूपप्राच्यादः व्यबहिनत्वन घटादिना सह साक्षात्सम्बन्धवाधान परम्परासम्बन्ध एव कल्पनीय इति तत्संयुक्तसंयोगादिरूपपरम्परागम्बन्धघटकनया = स्वरभक्तसंयोगलक्षणसम्परागर्गघटकविधया एका निर्वच च दिक सिध्यति । स्वेन संयुक्त दिव्यं नत्रयुनश्च घटादिः । नतः पसंयुक्तसंयोगप्रत्यासन्या प्राच्यादिः घटादिना यम्यते । दिग्दन्यं चन्न नहि. विभिन्न. द्रव्यषु तदन्यवहारानुगंधादनंकद्रव्यकल्पनागौरचम, तम्या:सर्वगनव युगपत्सन्निकृष्ट - विप्रष्ट-नाना द्रव्येषु तादशधाव्यवहारानुपपनिगिनि दिश गकत्वं विभत्वञ्च धर्मिग्राहकमानसिद्धग । न च स्वसंयुक्तसंयोगप्रत्यासनिघटकविधया काशस्यात्मनो वा बाकार उचितः कप्तत्वादिति वक्तव्यम्, आकाशात्मनीः निरुन प्रत्यासजिघटकविधयाङ्गाकार अतिप्रसङ्गन = अनिप्रसङ्गापान तत्सम्बन्धाऽघटकत्वात् । एवं कालोऽपि इति । 'इदानीं घटः' = 'अस्यां सूर्यक्रियायः घटः' इत्यत्र सूर्यपरिस्पन्दक्रियया साकं घटस्थ साक्षात्सम्बन्धनाधान स्वगंयुक्तसंयुकामवायम्पपरस्पासम्बन्धघटकतया निरिनकाल: सिध्यनि, ज्वेन - बटन मंयुक्तां य: काल; नत्संयुक्त सूर्य परिस्पन्दक्रियाया: समवेतन स्वसंयुक्त संयुक्तसमवायसम्बन्धन घटस्य सूर्यपरिम्पन्द्रक्रियावृनिन्, सिध्यति । एवं परत्वादि-धीत्र्यवहारहेतृत्वनापि कालसिद्धिः ददया । यदि च स एको न स्यानहि नाना द्रश्यप नारधीव्यवहागनरोधनानन्तकालकल्पनापत्तिः । यदि । स सर्वव्यापी न स्याचाहि दरस्थ - समापरथनानाद्राणु युगपनागभीमबहागनुपानिमिति धर्मिग्राहकमाननव कालस्यकलं विभत्वच सिध्यतीति यत्ततापर्यम् ।।
बनु । दिशा और काल को स्वतन्त्र द्रव्य माननेवाले नैयायिकों का यह मन्नन्य है कि -> "लोगों को यह प्रतीनि होती है कि 'प्रान्यां घट:' यानी 'घट पूर्व दिशा में है' । जगे 'भूतले घटः' इस प्रतीति में घट के साथ भूतल का माक्षात (मंयोगनामक) सम्बन्ध होता है वैसे उपयुक्त प्रतीनि में प्राचीपदार्थ को उदयाचलमयोगस्वरूप मानने पर घट के नाच उदर्यागी के संयोग का साक्षात्सम्बन्ध नहीं हो सकता है, क्योंकि उदयगिरि यहाँ में अपरिमित योजन दूर है और घद यहाँ है । बिना सम्बन्ध के नो आधाराधयभावारगाही 'प्रायां घटा' ऐसी प्रतीति उपपत्र नहीं हो सकती है। अतः उदयाचलसंयुक्त यापक दिशा द्रव्य की कल्पना करन होगी जो उदयगिरि और घट के माध संयुक्त होने की वजह उदयपर्वत के साथ पट का स्वसंयुकर्मयोगमम्बन्ध सम्भषित बनने से 'प्राच्या घटः' इस प्रतीनि की उपपत्ति हो सकती है। इस तरह 'प्राच्या घट:' इम प्रतीति में स्वसंयुक्तसंयोगरूप परम्परासम्बन्ध के घटकविधया एक और विभु = सर्वव्यापी विवादल्य की सिद्धि होती है, क्योंकि आकाश या आत्मा को उक्त सम्बन्ध का घटक मानने पर अतिप्रसा दोष आने की वजह आवाश, आत्मा उस सम्बन्ध के घटक नहीं माने जा सकते हैं। जैसे दिवा स्वतन्त्र द्रव्य है दीक वैसे ही काल भी एक अतिरिक्त विभु द्रव्य है, जिमकी मिद्धि इस तरह की जा मकती है कि 'इदानी घटः = अस्या सूर्यक्रियायां घटा'. 'सूर्य की अमुक क्रिया में घट है। इस प्रकार की बुद्धि का होना सर्वमान्य है। यह बुद्धि सूर्य क्रिया के साथ मम्बन्ध को विपय करनी है । यह सुनिश्चित है कि सूर्यक्रिया के साथ दूरस्थ यद का कोई साक्षात सम्बन्ध न होने से काई परम्पगसम्बन्ध ही मान्य करना पंडगा और वह तभी हो सकता है यदि सूर्य और पद को जोड़नेवाला कोई पदाध हो, जिसके द्वाग सूर्यक्रिया के गाय घट का स्वसंयुक्तसंयुक्तसमवायरूप परम्पगसम्बन्ध बन मके 1 काल एक ऐसा व्यापक पदार्थ है जो एक ही समय सूर्य और घट दोनों के माध संयुक्त होता है । फलत: घट में संयुक्त होता है काल और काल में संयुक्त होना है सूर्य और सूर्य का समवायसम्बन्ध होता है सूर्यक्रिया के साथ । इस नग्ह सूर्यपरिस्पन्द्रक्रिया के घटकविधया एक और व्यापक = रिभ कालद्रव्य की सिद्धि होती है। यदि उसे एक न माना जाय तर विभिन्न देश में रहे हा विभित्र द्रव्यां में युगपत् 'इदानी' इत्याकारक प्रतीति की उपपनि करने के लिए. अनन्त द्रव्यों की गुरुनर कल्पना करनी होगी एवं यदि उसे विभु न माना जायगा तो ! विभिन्न देश में रहे हा. अनेक द्रव्यों के साथ उसका युगपत मंयोग न होने से उनमें एककालीन 'इदानीं मी प्रतीति न हो सकेगी । इस तरह पक, अतिरिक्त और विभ ऐसे दिशाद्रव्य एव कालद्रव्य का स्वीकार करना आवश्यक है" -
EMATLATतितिक दिशादत्य अनुपपल्ला - म्यादादी ।