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१.८४ मध्यमस्य दादरम्य खण्डः ३ . का. १५ *सचिन्तामणिद्वयनमण्टनम *
किछ, शरीरस्याऽऽत्मत्वे 'अहमात्मे तिवद 'अहं शरीरमि'तिप्रत्ययोऽपि प्रमा स्यात, न स्थाच्च 'अहमात्मवाति तिवद 'अहं शरीरवानिति अपि ।
दिककालयोरनतिरेके च न किचिनिष्टं नः, आकाशस्यैव दिकत्वात, उदयाचलादिसन्निहितेन तेनैव प्राच्यादिव्यपदेशात् ।। नाम:
-* राता - तदुक्तमाक्षेपपरिहारपूर्व तत्त्वचिन्तामणी 'ननु संयुक्तसमवायनाइवयचिग्रहास्तु न तु संयोगादिस्तत्र हनः, तस्य म्पादिनहे. तृप्तत्यान् । न च टायबाट स्थान पन तथा, तस्य कल्पनीयकारणत्वादिनि चेत् ? न, आत्मग्रहे इन्द्रियसंयोगस्य कारणत्वादन्यत्रापि द्रव्यसाक्षात्कारत्वन तथा कल्पनात् । नव (आत्ममानमत्यम्यव मन:संयोगकायंदावन्दकल्यान) बहिरिन्द्रियजद्रयग्रहवांचिग्रहे वा संयुकसमयाय : कारणं लावन संयोगऱ्याच कारणत्वन कल्पनात' (न.चिं.प्र.रवण्ई सन्निकर्षवादः - पृ...८८) इति । युक्त श्चतत स्याः वयवसंयोगापेक्ष्या स्वसंयोगस्य लघुत्वन हेतुत्वाचित्यात् । न चैवं परसमयप्रवेश इति वाच्यम्, नपान्तरणाभाविटनपान्तरखन्डनस्यापि शास्त्रार्थलान, 'दष्टांशमंदता नाही दपद विपकण्टक' इनिन्यायादित्यादि प्रिया विनावायं सुधीभिः ।
प्रकृत एव दोपान्तरमावदति - किति । शरीरस्म आत्मत्वं = आत्मपदयाच्या भिन्नत्व स्वीक्रियमाण 'अहमात्मा' इतिवत् 'अहं शरीरमित्यपि प्रमा स्यात्, आत्मदागरपदयारनान्तरतास्वीकारात । उपलक्षणात् 'अह शरीर वान' इनियत 'अई. आत्मवान्' इत्याए प्रमा म्यात । तधा न स्याच 'अहमात्मवानि'तिवन 'अहं शरीरवानि त्यपि । यथा 'अहमात्मनानि तिप्रतातिनं भवति नदेय 'अहं द्वाररवानिदि प्रतानिनं स्यात । भवति च 'अहं शर्गवानि निधा: । ततश्च नदन्यथा-- नुपपन्या झर्गत्मनाभेदः स्वातंत्र्य एव । 'गुर्वी में तनुः' इत्यादी भंदददांनादपि नयाभदायगन्तव्यः । अनन 'अहं. जाने' इत्यादेनं नान्नल्यं, आई गम:' उत्पाद भन्निन्वमित्यत्र किं विनिगमकं ? इत्यपि प्रत्याख्यातम्, 'गर्मी में तनः' इत्यादी भंदोलखाधुना तस्य भ्रान्तमा 'अझ जाने इत्यादौ तु बाधकानयतारादेवा:भ्रान्नन्यम् । यद्यप ‘ममात्मा' इत्यदापि पाठीप्रयोग. दमयने तथापि गरुत्वादावाहन्वयाधिकरणलं. अन्यत्र लगत्यात, इदन्त्वसंचलनवाच्च, न तु ज्ञानादाविन्यत्र तात्पर्यमिति व्यतमेव स्यावाटकल्पलतायाम् ।।
नूतननास्तिकमतनिराकरण वक्तव्यदारमाह . दिककालयो: अनतिक = द्रव्यान्तरत्वविरह, च न किञिानिएं नः = स्यावादिनाभस्माकम, आकाशस्पैच दिकत्वात् - दिकत्वाभ्युपगमात् । न चातिरिक्तदिग्दन्यस्याः मन्वं कथं प्रायदिव्यबहार नियहदिति वाच्यम, उदयाचलादिमनिहितेन ननैव = आकाशनंब, प्राच्यादिन्यपदेशात = वांदिव्यवहारांपपन:, नदनं है । अतः संग्णु के चाक्षुप की उपपत्ति के लिए संयोग को स्वतन्त्र सत्रिका मानना आवश्यक है । इसलिए आन्मशरीरबादी नल्पनास्तिक का यह वक्तव्य कि -> 'हमारे मन में मयांग को पृथक् द्रव्यप्रत्यक्षकारणतावच्छेदक सम्बन्ध मानने की आवश्यकता न होने में लाघन है' -नितान्न तथ्यहीन है . सा सिद्ध होता है। इस विषय का विस्तार अन्यत्र प्राप्य होने से प्रकरणकार ने यहाँ इस विषय का विस्तार में निरूपण नहीं किया है । (देग्विये, दिव्यदान ट्रस्ट प्रकाशित न्यायालोक सटीक मविवरण)
किश्च.। इसके अनिग्नि, नव्य नास्तिक के मत में दोप यह है कि 'अहं आत्मा यह प्रतीति नग प्रमा है ठीक वैस ही 'अहं शरीरं यह प्रनीति भी प्रमात्मक हो जायगी, क्योंकि आन्मा और दागेर उनके मतानमार अभिन्न है। अनः आत्मा कहो या शरीर कहां - अर्थ में तो कोई फर्क नहीं है । तथा जैसे मब गंगा का 'अहं. आत्मवान् मी प्रनीति नहीं होती है ठीक वैसे ही 'अहं शरीरवान्' : ' में शीरवाला है। यह प्रतीति भी नहीं हो सका, म्यांकि आत्मा शरीर में अतिग्निरूप से उन्हें अमान्य है। आत्मा को शरीगामक मानन पर जिस प्रनीति में आत्मा का भान होता है उस प्रनीति में आत्मा के स्थान में शरीर का उन्मुख होने पर उप प्रनानि को अमान्य नहीं किया जा सकता है । पत्रं जिम प्रतीति में आत्मा का अवगाहन नहीं होता है उस प्रतीति में आत्मा के स्थान में शरीर की उपस्थिति का इकरार नहीं किया जा सकता । उपर्युन दांपों के गबन आत्मा को गरोगन्मक = दारोगाऽभित्र नहीं मानी जा सकती। नव्यनानिकों ने पूर्व (पु.१५॥ में जा कहा था कि दिशा में काल नामक अतिरिक तत्त्व नहीं है' नह नो इमार मन में दीपावह नहीं है, क्योंकि हम | स्यावाटी भी दिशा को आकासात्मक ही मानते हैं, न कि अतिरिक्त व्यस्वरूप । यद्यपि आकाग एक ही है और दिशा नो पूर्व, पश्चिम भाति भंद से अनेकविध है अधापि 'यह पूर्व दिशा है'. 'वह पश्चिम दिशा है' इत्यादि व्यपदेश = व्यवहार की असहनि की आपनि नहीं है, क्योंकि उदयाचल के मविहित आकाश में पूर्वटिशा, अस्ताचलावन्दिन्न आकाश में पवित्र दिशा, मेमपनत्तममीप आकाश में उत्तर दिशा इत्यादि व्यवहार हो सकता है।