________________
E
६८२ मध्यमस्याद्वादरह खण्ड ३ का. ९४ *अनुमितविययाजकाः *
रोमी' तिधीप्रतिबन्धकताकल्पनेन तद्दोषानवकाशात्, उपदर्शितानुमिती लौकिकाऽलौकिकोभयविषयतायाः स्वीकारात् ।
लौकिकविषयतावनिश्चयत्वेनैव 'साक्षात्करोमी 'तिधीहेतुत्वम् । निश्वयत्वञ्च तदभावप्रकारकत्वानुमितित्वो भयाभाववत्त्वे सति तत्प्रकारकज्ञानत्वम् । अतो नाऽयं दोष इत्यपि कश्चित् । * जयलता है
'परामदजन्यायाः 'सुखवानात्मा' इत्यनुमितरनन्तरं 'सुखितेनात्मानं साक्षात्करोमीतिप्रतीतिप्रसङ्गलक्षणदोषस्या नवकाशात, उपदर्शिनानुमिती = 'सुखानात्मं' लपनुमिती लौकिकाऽलौकिकोभयविपयतायाः = कारणसन्निकर्षनिपम्पलौकिकविधायतातदनियम्यालीकिकविषयतानिरूपितविषयतयो: स्वीकारात् । यदि च लौकिकविषयतानिरूपितविषयितायाः 'साक्षात्करोमीति प्रतीति प्रतिनियामकत्वमेव स्वीक्रियते न तु तां प्रति अलौकिकविपयतानिरूपितविषयितायाः प्रतिबन्धकत्वं तदा तु 'अयं पुरुषों न वा " इति संशयानन्तरमपि साक्षात्करोमीति पीप्रसङ्गस्य दूरत्वम् । अतः तदपाकरणकृतं सन्निकर्षजन्यसन्देह "साक्षात्करोगी' तिश्रीप्रतिबन्धकीभूता अलौकिकवितानिरूपितवति कल्पनीयैव विपयतया साक्षात्करीमी नबुद्धिं प्रति स्वरूपेण वलुप्त प्रतिबन्धकनाकस्यालीकिक विषयत्वस्य सुखवानात्मा' इत्यनुनिताचायजीकारान साक्षात्करोमी निधीप्रसङ्गः तादृशानुमित्यनन्तरमिति तात्पर्यम् ।
कस्यचिन्मत
'सुखवानात्मा' इत्यनुमित्यनन्तरं 'आत्मनि कुखं साक्षात्करोमि इत्यनुव्यवसायनिराकरणाय प्रकरणकार: सुपदर्शयति लौकिकविषयतावनिश्चयत्वेन = लौकिकविषक्ता निरूपितविपरिताविशिष्टनिश्चयत्वेन रूपेण एव 'साक्षात्करोमी'तिहेतुत्वं कल्यते । न चैवं पदस्थम् 'सुखानामेत्यनुमित मनः संयुक्तसमवेतत्वसत्रिकर्मनियम्पलीकिकविषयतानिरूविपथितायाः तदभावा प्रकारत्तविशिष्टप्रकारकज्ञानत्वलक्षणनिश्रयत्वस्य च सत्त्वादिति वाच्यम्, यती निश्रयत्वं च तदभावप्रकारकत्वाऽनुमितित्वो भयाभाववत्त्वे सति तत्प्रकारकज्ञानत्वमिति स्वीक्रियते । अतो न अयं = ‘सुखवानात्नं’त्यनुमित्यनन्तरं 'आत्मनि सुखं साक्षात्करोत्यनुव्यवसायक्ष दीपः परानजन्यां सुखवानात्मेति बुद्धी अनुमितित्वस्य सत्चन लौकिकप्रियता से निरूपित विपयिता मुमकिन है, क्योंकि सुख तो मनसंयुक्त आत्मा में समवेत होता है। तब तो 'अयं घट: ' इस चाक्षुप में लीकिकविपयतानिरूपित विपयिता होने की वजह तदनन्तर 'घटं साक्षात् करोमी' त्याकारक अनुव्यवसाय वृद्धि होती है ठीक वैसे ही 'सुखवानात्मा' इस अनुमिति के बाद आत्मनि सुखं सुखित्वेनाऽऽत्मानं वा साक्षात्करोमि इत्याकारक अनुव्यवसायात्मक बुद्धि भी होने लगेगी" - किन्तु यह आक्षेप इसलिए निराधार है कि 'साक्षात्करोमि ऐसी अनुव्यवसाय प्रतीति के प्रति लौकिकविपयता से भिन्न विपयता से निरूपित वियिता प्रतिबन्धक होती है। अगर यह प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव मान्य न किया जाय तब तो 'अयं स्थाणुः वा पुरुषी का ?' इत्याकारक चाप सन्देह के अनन्तर भी 'साक्षात्करोमि इत्याकारक प्रतीति होने लगेगी, क्योंकि 'साक्षात्करोमि उस प्रतीति की नियामक लीकिकविषयतानिरूपित विपयिता उस सन्देह में रहती है। दरअसल बात यह है कि इन्द्रियसनिकजन्य संशय के उत्तर काल में किसीको 'साक्षात्करोमि ऐसी प्रतीति नहीं होती है। अतएव इन्द्रियसन्निकर्षजन्य शङ्का आदि में साधारण एक ऐसी अलोविकविषयतानिरूपित विपयिता का स्वीकार करने की आवश्यकता है जो 'साक्षात्करोमि ' इस प्रतीति का प्रतिबन्धक हो। तभी संशय के अनन्तर 'साक्षात्करोमि इस प्रतीति का परिहार हो सकता है। 'साक्षात्करोमि उस प्रतीति की प्रतिबन्धक अलौकिक विषयतानिरूपित विषयिता 'सुचवान् आत्मा' इस अनुमिति में भी रहती है, क्योंकि वह लौकिक एवं अलौकिक विपयता से निरूपित विपयिता का आश्रय है । इस तरह उक्त अनुमिति में प्रतिबन्धक होने की वजह 'साक्षात्करोमि इस प्रतीति का तदनन्तर अवकाश नहीं है । यह प्रासङ्गिक निरूपण है ।
उप । 'अहं सुखी' इस अनुमिति के अनन्तर 'आत्मनि सुखं साक्षात्करोमि इस अनुच्यवसाय प्रतीति के निराकरणाचे अन्य किसी विद्वान का यह वक्तव्य है कि "साक्षात्करोमि इत्याकारक अनुव्यवसाय बुद्धि के प्रति लीकिकविपषितावाला निश्रय ही हेतु है। जिस व्यवसाय में लीकिकविपयनानिरूपितत्रिपयिताविशिष्ट निश्चयत्व रहता है उसके अनन्तर 'साक्षात्करोमि ऐसी बुद्धि होती है। यहाँ कारणतावच्छेदकीभूत निश्वयत्व का शरीर केवल तदभावात्प्रकारकत्वे सति तत्प्रकारकत्वस्वरूप नहीं है किन्तु विशेषणकुक्षि में अनुमितित्त्वाभाव का भी निवेश करना अभिमत है। तब निश्रयत्व का अर्थ होगा तदभावप्रकारकत्व एवं अनुमितित्व उभय के अभाव से विशिष्ट ऐसा तत्प्रकारकज्ञानत्य । 'अहं सुखी' इस अनुमिति में यद्यपि तदभावप्रकारकत्वाऽभावविशिष्ट तत्प्रकारकज्ञानत्व है मगर अनुमितित्व का अभाव नहीं होने से उपर्युक्त नियत्व उसमें नहीं है । अत: उस अनुमिति में