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* अस्वलाका बना* आत्मनः शरीरानतिरेके संयोगस्य पृथक्प्रत्यासतित्वाकल्पनलाघवमपि वार्तम्, अखण्डाभावहेतुताया दूषितत्वात्, अन्याशहेतुताकल्पने गौरवात, महत्त्वोद्भूतमपयोः प्रत्यासत्तिमध्ये निवेशेन सुटिंग्रहार्थ तत्स्वीकारावश्यकत्वादित्यत्या विस्तरः ।
-* जगलता - सामानाधिकरण्यसम्बन्धेन तदभावप्रकारकलानगितित्वोभवाभाविशिष्टताकारकज्ञानत्वलक्षण यनिश्चयत्वं तस्य विरहन् । नत्र लोककविषगतानिरूपितविधयितायाः पचपि निरुक्तनिश्चयत्तग्य विरहग विशेष्याभावप्रयुक्तविशिष्टकारणताबचंदकाभावाश्रपत्यान्न 'मुखधानात्म'न्यनुमित्पनन्तरं 'आन्मनि सुखं साक्षात्कारमी'त्यनुव्यचमायमानः । न हि विशिष्ट कारणतावच्छदकविकलेन कार्यमुत्पादयितुं शक्यते । सन्निकर्षजगन्देहे सत्यपि 'साक्षात्कंगमी निप्रनानग्नुयादश्चियत्वांपादानम् ।
निश्चयत्वे मितित्वाभावघाटनत्वस्य चरत्वात, विशय-विशेषगभाव विनिंगमनाविरहणीभयधिकारणतास्वीकार कारण. तावदकशरीरगीरयात. लाघवेन लौकिकान्यविषयताया एव तत्प्रतिबन्धकत्वकल्पनाचित्याग नेट मनं समर्माचीमिनि प्रदर्शनाय कश्चिदिभिहितम् । ___पायनिकमुक्त्या प्रकरणकार: पुनर्नव्यानिकननव्यपंहकृतं आह - अात्मनः शारीरानतिरेके = कागकारपरिणतभूनपञ्चकात्मक वीक्रियमाणे द्रव्यप्रत्यक्षमात्रयुनिवजात्य वलिन पनि संयोगस्य पृथक्प्रत्यासत्तिन्नाऽकल्पनलाधवपि पाग नव्यनास्तिकप्रदर्शिनं बात = असारम, यतः परमाणघटितमभिकर्णत प्रथ्वालादिप्रत्यक्षनिवारणाय अयोग्यनिघाल्योग्यनिकांद्यभावकूटस्या खण्डाभावत्वन नहेतुता न यानि, उदासीनप्रवंशशास्यां चिनिगमनाविग्हादित्या दायेन प्रकाशकदाह - अखण्डाभावहत्तायाः - अखादा भावत्वन रूपेण कारणताया चित्ररूपवादले नकगंः दृपितन्यात् । अन्यादृशहलुताकल्पन = द्रव्य - तत्समयन प्रत्यक्ष महत्वोडताया : सम्बाय - माननाधिकरण्याभ्यां पृथककाग्गवम्ब कार कारणनायञ्छदकवर्गशर्गर गौरवात्, नदोक्षया परमाणी गृधिगत्यदिग्रहवागणार महत्त्वाद्भनरूपयोः प्रत्यासत्तिमध्यनिवेशन = तत्सतबापकारणताय कादकसन्निकर्षगध्ये प्रवेशेन त्रुटिग्रहार्थ = त्रसंगाचानुवा पत्नय, तत्स्वीकारावश्यकत्वात् = चन:संयोगसन्निकांभ्युपगमरय कप्तल्गन, दिगमचायिनी पण कम्य महन्महानन्धन जुटौ स्पसंयुममहद्य प्रयत्समबनन्यसम्बन्धेन चक्षुपासवान ।
लौकिकविषयतानिरूपित विपयिता होने पर भी तदनन्तर 'साक्षात्कगमि' इस बुद्धि की आपत्ति नहीं आपगी। विशिष्ट कारणनावच्छंदक धर्म का विशेप्याभावप्रयुन अभाव होने पर उस कारण से कार्योत्पनि का आपादान शक्य नहीं है। इसलिए 'सुखच्याप्यज्ञानवानान्मा' इस परामर्श के अनन्तर होनेवाली 'सुग्यवान आत्मा' इस अनुमिति के अनन्नर क्षण में 'मुखित्वेनात्मानं साक्षात्करोमि' इत्याकारक अनुयरमाय वृद्धि की आपत्ति निरवकाश है' -
मान्मनः । अन्य विद्वान का मत प्रदर्शित करन के राद प्रकरणकार श्रीमदजी पुनः नन्य नास्तिक के वक्तव्य की समालोचना कारने हुए यह कहते हैं कि - नन्य नास्तिक ने पूर्व में जो कहा था कि -> 'अनुमिति को मानग प्रत्यक्ष मानने पर स्वसंगोग नामक पृथक = स्वतंत्र प्रत्यक्षकारणनादक प्रत्यासत्ति की कल्पना आवश्यकः न होने से लाघब है - वह भी असंगन है. क्योंकि अग्रण्डाभाव की हेनना पूर्व (चित्ररूपवादस्पद में अनेकशः दृपित की गई है और अन्यविध हेनुता की कल्पना करने में महागौग्य दोष उपस्थित होने में वह मान्य नहीं की जा सकती । आशय यह है कि ज्वगंयुक्तसमनायसम्बन्ध में पक्ष आदि को द्रव्य - तत्समौत के माक्षात्कार का हेतु माना जाप नब तो परमाणुगत पृथ्वीत्वादि के साक्षात्कार की आपनि भाती है । इसलिंग पूर्वोक गनि में अयोग्यवृनियर्मभाव अयोग्यमन्निदिअभाव आदि का कारण मानना नन्य नास्तिक. मतानुसार आवश्यक बनता है । मगर नादृशाभावममुदाय को अम्ण्टाभाववरूप से उसका कारण नहीं माना जा सकता, क्योंकि तादा अखण्टाभाव की प्रतियोगिति में उदासीन का प्रवेश किया जाय या नहीं ? इस विषय में कोई चिनिगमक नहीं है । अनाब अखण्रभावन हेनता का पहले खण्डन किया गया था। यदि इस आपत्ति के निवारणार्थ महत्व और उद्धतरूप को दव्य नत्ममवतप्रत्यक्ष के प्रति स्वतन्त्र कारण माना जाय तब तो गोग्य दांप प्रसक्त होगा। इसकी अपेक्षा तो उचित पही है, कि. एग्माणनि गृथ्वीत्वआदि के बाप के परिहागथं महत्व और उदभुनरूप का प्रन्यामनिझार्ग में प्रवेश कर के ग्वसंयुकमहङ्गतरूपवन्यमवेतत्व सम्बन्ध में वक्ष को द्रव्य · तत्समवताविषयक चाक्षुप के प्रति कारण माना जाय तब परमाणुसमन धिचीत्व की चाभपात्यान की कोई आपनि नहीं आयगी । मगर तर प्रसारण का बानप प्रत्यक्ष न हो मकंगा, क्योंकि यणक में महन्च नहीं होने में असरण चक्षामंयकमहत्ममवन नहीं है । अनएन त्रसंगण के साथ चा का स्वर्गयुक्तमद्धतम्रवन्समवंतत्वसम्बन्ध सम्भव नहीं