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११ मध्यभस्वादादराहार-य खण्डः ३ का.
नन्नाश्च राकानिकातिवाः * येषां परलोकात्ममोक्षेष्वेव मोहः तै: सह विचारान्तरविमतिसंमती अपर्यालोचितमूलारोपाग- ॥ कप्रासादकल्पनसङ्कल्पकल्प इति भावः ।
ते हीत्थं सहिते -> न स्वल निस्विलेऽपि भुवनगोले भूतचतुष्टयातिरिक्तं किमप्यात्मादि वस्तु विद्यते, अलपलब्धेः । किन्तु कायाकारपरिणतं भूतचतुष्टयमेव चैतन्यमाबिभर्ति ।
- जयला* पिकाकल्पितम् । तदनं प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कार - य: पुनरपागार्थिकद्रव्यपर्यायविभागभिप्रेति म व्यवहागभायः यथा दाकदर्शनम् । (प्र.न.न.परि. - सू -२०/२६) इति । शिष्टं स्पष्टम् ।
मुलग्रन्थ -> चाकरयति । चारी = आपातम्या विपाकदाम्पा चाक पस्द म चाकः, तस्य !
मायांकान। पूर्वपक्षनि --->हीत्थं सहिरन्त इति । न खल = नव निग्विालेऽपि भवनगोले इति । अधनातनान नास्तिकानां मने भग्नस्य = प्रधिच्या गालकात्मकत्वान भवनमाले इत्युक्तं, न तु नृपनकलय इति ध्येयम् । भूगलमतखण्डन न तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकाट्यगंयम । भूतचतुष्टयातिरिक्त = पृधिव्याने जात्रायुलक्षणभूतचतुष्कव्यतिरिक, यद्यगि गैगनम्यापि | भूतत्वमेव तथापि नम्गातीन्द्रियत्न चाकिरन गुपगमाद् भूतपञ्चकातिरिक्तमित्यनुकत्वा भूनचतुष्टयातिरिनामित्युनम । किमपि
आत्मादि वस्तु विद्यते अनुपलव्यः = प्रमाणात उपलब्धिविरहात् । नचाहि न तावत प्रत्यक्षंण तसिद्धिः, इन्द्रियनाचतिक्रान्तत्वात् । न च 'अहं सुखी' इत्यादिमानससाक्षात्कारविषयत्वन नसिद्धिति वाच्यम्, तस्य अहं गौर श्यामा वा' इत्यादिनानिपत शगविण्यतयाप्युपपनेः । किञ्चा-हवागत्ययः गरमाथन आतागोचरः स्यात तदा न जादाचित्क: स्यात् आत्मनः सदा सविहितत्वात् । कादाचित्कं हि ज्ञानं कादाचित्ककामापूर्वकं दुष्टं यथा सौदामिनाज्ञानमिनि व्यापकाभावाद् न्यायाभावमिद्धिः। नाप्यनुमानन त्मिद्धिः अव्यभिचारीलड़गारहणात । नापि आगमत: तय परम्परागरुनाथांनां नास्त्येव प्रामाग्यम् । किन योगिना व्यवस्थापितार्थम्या:भियुक्ततररन्यन्यथैव व्यवस्थापनान । स्वयमन्यास्थितप्रामाण्यानाथ तेषां करमन्यव्यवस्थापन सामथ्यंम ? नायुपमानेन. नत्सदृदाम्या न्यग्य विरहान । नायर्धापच्या, तदभावःयकरया अयनुपपने विग्हात् । तस्मादभावप्रगाणकगम्यता तस्य । तदुक्तं लोकवार्तिक कुमारिलेन 'एमागपञ्चकं यत्र, यस्तृको न जायते, भावसनावबोधार्थ, नयाभाव
यां. । अब प्रकरणकार महोपाध्यायजी महाराजा वीतरागस्नोत्र के अश्म प्रकाश की ११ ची कारिका की व्याख्या का श्रीगणेश करते हैं कि जिनको परलोक, आत्मा एवं मोक्ष के बारे में ही मुदता है उनके साथ अन्य विचार = अनेकान्नवाद के बारे में विप्रतिपत्ति या सम्मति की खोज करना बिना मलविचार के महल को बनाने के संकल्प के तुल्य होने में चाक के साथ चर्चा करना अर्थशून्य है . यह कारिका का भावार्य है। अब उपाध्यायजी महाराजा नास्तिकों की पुक्तियों को खरनार्थ विस्तार में बता रहे हैं। यह रहा दीर्घ पूर्वपक्ष ।
* तरातुर से अन्य प्रारमा नहीं है - जाति 'पूर्नपक्ष :- सकल भूवलय में पृथ्वी, जल, नेज, वाय-इन चार भूतों को छोड कर उससे भिन्न काई आत्मा नाम की चीज ही नहीं है, क्योंकि वह प्रमाण में उपलब्ध नहीं होती है । ची, जल, तेज और वायु से बनी हुई काया से अतिरिक्त आत्मा चाक्षुप, स्पार्शन आदि प्रत्यक्ष प्रमाण से ज्ञात नहीं होने से कायाकार में परिणत पृथ्वी आदि भूनचतुक चैतन्य को धारण करना है। अतः तादृश धागर ही आत्मा है, जिसका जन्म एवं मरण यहाँ ही होते हैं । इमशान में शरीर को जलाने के बाद कोई परलोक जैसी यज नहीं है, जहाँ यह कायान्मक आत्मा जा सके। क्योंकि कापारूपी आत्मा का यहाँ ही विनाश हो जाता है । यहाँ यह प्रश्न हो कि. --> 'पृथ्वी आदि प्रत्येक भूत अचंतन होने से उनक समुदाय में भी चैतन्य की उत्पन्न हो सकता है - तो इसका यह समाधान है कि प्रत्यक क्रमुक फल, पत्र, पूर्ण आदि माटकता सहित होने पर भी सम्मिलित होने पर उन्मे जैसे मादकताशक्ति उत्पन्न होती है ठीक वैसे ही प्रत्येक पुच्ची आदि चतन्यशून्य होने पर भी उसके समुदाय में चैतन्य उत्पन्न हो सकता है, 1 यह कोई बड़ी समस्या नहीं है। यहाँ यह शंका हो कि -> 'प्रत्येक क्रमकफल. आदि में भी मादकता होती है। हो, वह अल्पमात्रा में होनी है, यह एक अन्दग बात है। पटि उनमें से प्रत्यक को सर्वथा मादकत्ताशक्तिविफल माना जाय तर तो वे कितने भी इकई हो मगर उनमें मादकतामक्ति उत्पत्र नहीं हो सकती । जो सर्वथा अशक व परस्पर मालिल भी कार्य को इत्पत्र नहीं कर मकन । वान के प्रत्येक कण
अपका उम्पक्ष ६८ पृष्ट पर है।
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