Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 118
________________ ६... मम्बाजानहाये न्यान् ? काम दादगाना::* शैवं स्तम्भे पिशाचस्वभावानुपलबिश: कथं ? तपैकज्ञानसंसर्गितया पिशाचस्य पूर्वमननुभूतत्वेनाऽलाशेप्यत्वादिति चेत् ?, , कथमपि तस्याः, सहचाराधनुपलब्ध्यैव प्रतिषेधव्यवहारात् । इत्थक्षात्मनि चक्षुरादिना स्वभावानुपलधिनस्त्येिव, आत्मनश्चराययोग्यत्वात् । गतसा तूपलब्धि ढगस्येव, अहं सुखी' इत्यायनुभवस्य सार्वजनीनत्वात् । -S ACTIपनियागिन्दमानग्यायन्यनियोग्युपमा मनमगवधाना गाया: तमितपतियागियत्व मानमञ्जिनप्रतियोगिसत्यापाया ना योग्यताया अभायात् योम्यानपर यमपन्या न शाबाद: म्यमाबानुपाब्धिः, तत्सहकनायर नस्य नदभात्र ग्राहकवनियमादिनि सङ्कपः । अथएवं = आरोपयोग्यम्यवासाभवयागने मति, स्तम्भ पिशाचम्नभावानुपरन्धिः = पिशाचतादात्म्यानपलम्भः कथं ? नत्र = प्रदशादी एकजनम्यर्णितया पिशाचस्य पूर्व अननुभूनन अनारोष्यवान = आगंगनईत्वात् । न एकज्ञानमंसगिणि प्रदेशादावन म्यमान पिशानादिः प्रजनम्तः । अननभनल्य च कथमागसम्भवः । तदसम्भवं च कर्य तन्नादात्म्यनिषेधः सम्भवादन्ययातः । यद्यपि प्रकृतं लघुस्याद्वादरहस्य माग्यमहकारिसम्पन्नत्तान्तम्य विक्षगादत्रा-धिकरणयोग्यताया एब नियामकत्यादिति 'दाग' (ल.स्या र '...८)ति समाहिना । स्याद्वादरत्नाकरन यस्तु पिझा चादिना प्रतिबन्धचालतो न्यमापादितः कुम्भ: म ने निषिध्यते । इह, चक्रज्ञानगंगा भासमानार्थस्त ज्ञानञ्च पहुंदामच्या घटस्यासनानुपलब्धिश्चान्यत' (स्या. र.:/ /पृ.६२५) इत्युक्तं तथापि प्रकारान्तरेण प्रकरणकात्र समाधने - न कथमपि तस्याः इति । स्वभावानुपलब्धित: स्तम्भ पिशाग्नुपरब्धिर्नव म्याक्रियत इत्यर्थः । नहि कथं स्नम्म पिशाचार्टन्धव्यवहार: ? इत्याराकायामाह - सहचराद्यनुपलब्ध्यैव नत्र निशानादः प्रतिपंचव्यवहादिति । यथा नारयस्मिन सन्मानानं सम्पन्न निनानुपलभ्यर्गित सह चगनुपलब्धियत नव नास्ति स्तम्भ पिशाचादितदारयं तन्महावरांपशाचाय-सपा अनपलब्धर्गित महचानलगन निषेधधान्यवहागणपतिः । माह चानुयाधिकादशधा नौ प्रकृत असिन गडवाच्यापकानुपलनिसहचरन्यापककारणानुपलब्ध्यादिग्रहणमवगन्तव्यम् । उपमंहनि - इत्यन = स्वभावानगर या उपलब्धिलक्षणाप्तिटितन्ये च, आत्मनि चक्षुरादिना वहिरिन्द्रियेण स्वभावानुपलब्धिः नास्त्येव, आत्मनश्वक्षगद्ययांग्यवान् । यो यदिन्द्रियाहयान्य: तदिन्द्रियापेक्षगव नवभावानुपलब्धिस्तुमर्हति. अन्यथा प्राणादितोपि रूपादीनां ग्वभावान पत्र धिप्रसङगान् । आत्मनि रूपचिरहण न माग्यवं म्पादिहण च न स्पर्शनन्द्रिय . ग्रहणयोग्यत्लम । बहिगिन्द्रियादग्नाहान्वान्न नग्य तदापेक्षया मभावानपलब्धिः सम्भवति । चाम्न ताहि मनसेचानानः स्वभावानुपलथि:. "यमपि नः समीहिनसिझेरित्यागकामामाह, . मनमा तुपलब्धिः आत्मनः बाइमस्त्येव, 'अहं सुरखी' इत्यायनुभवस्य सार्वजनीनत्वात् । न न सुखादः नागमाश्रिनत्वमाकनीयम्, जात्यन्धादीनामपि तथानुभगत् । न च शरीरस्यैव सुन्वा - श्रयत्वमारकणीयम्, अरशस्वादिनदहानामपियोगि सेनापनिप्रभुतीनां मुखसंवेदनस्य सिद्धत्वान । अन इन्द्रियदारी निरिक्तम्ब आत्मन एच मुग्वादिसमाश्रत युनं वक्तुमिन्यात्मसिद्भिग्नाविला । आदि का आरोप किया नहीं जा सकना । यह बात स्याद्रादरत्नाकर ग्रन्धरत्न में स्पष्ट ही बताई गई है। अध. | -> 'यदि एक ज्ञान में नंमर्गी भासमान प्रदेश, स्थल, पर्चतादि में पूर्व में अनुभूत की ही अन्यत्र सभाव अनुपलब्धि मान्य हो नब स्नम्भ में पिशाचस्वभाव की अनुपलब्धि यानी पिशाचस्वरूप = पिशावनातारम्य का निषेध कम हो मकेगा ? क्योंकि किसी स्थल में पक ज्ञान के संसगिनिधया पिशाच का पहले तो अनुभव ही नहीं हुआ है' <- इस प्रश्न का सीधा प्रन्युनर यह दिया जा मकता है कि 'स्तम्भा न पिशाप:' मा पिशाचतादाम्यनिपंधव्यवहार स्वभाव अनुपलन्नि में नहीं होता है किन्तु सहबर अनुपरन्धि से ही होता है । भात; वहाँ दंप का मावन करना ठीक नहीं है। इस तरह आत्मा में चक्षु आदि इन्द्रियों से स्वभाव अनुपलब्धि नहीं ही है . यह सिद्ध होता है, क्योंकि आमा चक्षु आदि इन्द्रिय के अयोग्य है । मगर इससं ही आत्मा का अभाव सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि मन के द्वारा तो भान्मा का ज्ञान होता ही है । 'अहं मुम्बी, अहं दामी, अह. जाने' इत्यादि ज्ञान नो म जन को होने से मन के द्वारा आत्मा की मिद्धि होनी है 1 मतलब कि मन के दाग आन्मा ग्राहा होने से मनग्नरूप अभ्यन्तर इन्द्रिय से आत्म की स्वभाव अनुपलब्धि कही जा सकता है । मगर मन के द्वारा एक बार भी आत्मा की मिडि होने से 'आमा अनुपलब्ध है गमा नहीं कहा जा सकता। अतः प्रथम विकल्प आत्मप्रतिपेध में असमर्थ है ।

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