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६७० मध्यमस्याद्वादरहस्ये खण्ड: ३ का. १४ * अपेक्षितशुद्ध पाठवनम
अथ सुरमूर्षाद्यनन्तरोपजायमानभिन्नज्ञाने जातिविशेषं स्वीकृत्य तदवच्छेदेन चाक्षुषादिसामय्या: प्रतिबन्धकत्वेऽनुमित्यादेः (? तित्वादेः) परोक्षवृत्तित्वमेवास्त्विति चेत् ? का, तद्उच्छेदेज स्मृत्यपज्ञासाया एवं प्रतिबन्धकत्वात् जातिविशेषस्य स्मृतित्वव्याप्यस्यैव युक्तत्वात् ।
ॐ जयलता
पृथककार्यकारणभावकल्पनायाः पूर्वमेवापस्थित फलमुखगीरवावकाश इति वाच्यम् प्रतिचध्यप्रतिवन्धकभावभितयाऽकल्पनलाघवसहकारेण तादृशवैजात्यावच्छिन्नं प्रति मानसे तरसामग्नाः प्रतिबन्धकत्वस्य पूर्वमेव निर्गतत्वात् तदनन्तरं ततदिच्छानां पृथक्कारणत्वकल्पनोपस्थितेः फलमुखत्वमेवेति दृढतरमवधेयम् ।
अतिरिक्तानुमानप्रामाण्यवादी शङ्कते अथेति । चाक्षुषादिसामग्रीसमधानेऽपि सुस्नूपनन्तरं स्मृत्युदपदर्शनात् सुस्मयनन्तरोपजायमानभिन्नज्ञाने जातिविशेषं = बुभुत्साविरहकालीन नुमित्युपमितिशब्दची अस्मृतिसाधारणजात्यं स्वीकृत्य तदवच्छेदेन तादृशवेजात्यावच्छिन्नं प्रति चाक्षुषादिसामस्याः प्रतिबन्धकत्वे = प्रतिबन्धकत्वकल्पनावश्यकत्वं अनुमित्यादेरिति पाठ: प्रामादिक: अनुमितित्वादेरित्येव सम्यक्पाठ: न्यायालोकेऽपि इत्थमेव पाठदर्शनात परीक्षवृत्तित्वं = प्रत्यक्षभिन्नज्ञानवृत्तित्वं एवास्तु । यदि चानुमित्यादेः साक्षात्कारत्वमुपेयते तर्हि सुस्मूषांविरहकालीनस्मृतिवृतिवैजात्यं तद्वृत्ति न स्यात् स्मृतेः परीक्षत्वात् ज्ञानत्वव्याप्यजाने विजातीयप्रमानिरूपितवृत्तित्वशून्यत्वनियमात । तत्श्च नानुमित्यादेः प्रत्यक्षत्वकल्पनमर्हति !
नव्यनास्तिकास्तदपहस्तचन्ति नेति । तदवच्छेदेन स्मृत्यन्यज्ञानसामग्र्या एवं प्रतिवन्धकत्वादिति । बुभुत्साचिरहकालीनानुमित्युपमितिशान्दबोधस्मृतिचतुष्टयसाधारणं वैजात्यं नोपेयते किन्तु जिज्ञासाविरहकालीनमानस प्रत्यक्षात्मकानमित्युपमितिशाब्दबोधानुगतमेकं वैजात्यं स्वीकृत्य तदवच्छिन्नं प्रति मानसेतरज्ञानसामग्र्याः प्रतिबन्धकत्वम् । चाक्षुषादिसामग्रीसत्त्वेऽपि सुस्मृर्षांसमवधानदशायां स्मृत्युत्पत्तिर्निराबाधा, तस्याः स्मृत्यन्यज्ञानसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदकजातिशून्यत्वात् । इत्थञ्च स्मृतीतरज्ञानसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदकस्य जातिविशेषस्य स्मृतित्वव्याप्यस्यैव स्वीकर्तुं युक्तत्वात् । ततश्च नानुमिनित्यादेः परोक्षधीवृत्तित्वा
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उत्पन्न होनेवाली होने से मानसेतरसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदक से शून्य है, उदय की आपत्ति का परिहार न हो सकेगा । अतः अनुमिति को मानस प्रत्यक्षस्वरूप न मान कर अतिरिक्त प्रमात्मक मानना ही मुनासिब है' - समाधान केवल यही ६ कि तत्तदिच्छा के अनन्तर उत्पन्न होनेवाले मानस प्रत्यक्ष के, जो मानसेतरसामग्री प्रतिबध्यतावचंद्रकशून्य है, प्रति ततदिच्छा भी स्वतन्त्र हेतु है । अतः मानसेतर सामग्री की प्रतिबध्यता से विनिर्मुक्त होने पर भी तत् तत् इच्छा = दहनबुभुत्सा आदि के न होने से धूमपरामर्श से मानस प्रत्यक्षात्मक दहनानुमिति की उत्पत्ति को अवकाश नहीं है । काय की उत्पत्ति किसी | एक कारण से नहीं होती है, सब कारणों की उपस्थिति होने पर ही होती है। तत् तत् इच्छा के अनन्तर होनेवाले नानम
- कारणभाव
के प्रति तत् तत् इच्छा को पृथक् कारण मानने पर गौरव दोप का उद्घान करना असल है, क्योंकि ताइश कार्य के निश्रय के अनन्तर वह उपस्थित = ज्ञात हुआ है। दर्शितवैजात्यावच्छिन्न के प्रति मानवेतरसामग्री अभाव में लाघव सहकार से कारणता का निश्रय हो जाने के बाद उसके निर्वाहार्थं तत् तत् इच्छा में कारणता की कल्पना की जाती है। अतएव वह निर्दोष है यह नवीन नास्तिकों का अभिप्राय है ।
अथ सु.। यहाँ अतिरिक्तप्रमाणवादी की यह शङ्का किवाक्षुपादिसामग्री को तादृशान्यावच्छिन्न मानस प्रत्यक्ष के प्रति प्रतिवन्धक मानने पर सुस्पां = स्मरणंा होने पर चानुपादिसामग्रीसमधानदशा में स्मृति का उदय न हो सकेगा. | क्योंकि स्मृति प्रत्यक्ष नहीं किन्तु परोक्ष है। अतः अनुमिति, उपमिति, शाब्दबोध एवं स्मृति से नित्र ज्ञान में एक जातिविशेष की चाक्षुषादिसामग्रीप्रतिवध्यतावच्छेदकविधया कल्पना करनी होगी और तदवच्छेदेन यानी तादृशवैजात्यावच्छिन्न के प्रति चाक्षुपादिसामग्री को प्रतिबन्धक माननी होगी । तब तो अनुमितित्व आदि धर्म को परोक्षज्ञानवृत्ति ही मानना पडेगा । अनुमिति को मानस प्रत्यक्ष मानने पर तत् तत् जिज्ञासा के बिना होनेवाली अनुमिति, स्मृति आदि में चाक्षुपादिसामग्रीप्रतिवन्यता अवच्छेदक अनुगत वैजात्य नहीं रह सकेगा, क्योंकि ज्ञानत्वव्याप्य जाति के आश्रय विजातीय नहीं होते हैं। स्मृति को निर्विवाद रूप से परीक्ष ही है । अतः तत ज्ञानत्वव्याप्य जाति का आश्रय होने से अनुमिति भी परोक्ष ज्ञानात्मक बन सकेगी -
न तद। इसलिए निराधार हो जाती है कि हम नव्य नास्तिक तत् तत् जिज्ञासा के अनन्तर होनेवाली स्मृति से भिन्न ज्ञान में जिस वैजात्य का स्वीकार करते हैं उससे अवच्छिन विशिष्ट ज्ञान के प्रति स्मृतिभिन्नज्ञान की सामग्री को ही
१. दृश्यतां दिव्यदर्शनस्टप्रकाशित न्यायालीके व्याख्याद्वयीनं प्रथमप्रकाश १४२ तमे पृष्टे ।
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