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* विजातीयसुखानंजकत्वम
किय विजातीयसुख-दुःखानां नोत्तेजकत्वं सुखत्वादिना साङ्कर्येण तवैजात्याऽसिद्धेः । प्राञ्चस्तु उपनीतभानस्थले विशेषणज्ञान - विशिष्टबुद्योः कार्य-कारणभावेनैवाऽस्माकं
ॐ जयलता ॐ
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परामर्शादिप्रतिचभ्यतावच्छेदकविकल्पन किञ्चिद्वास्ति पेनानुमितेः परोक्षत्वमहाकार्य स्वात् ।
free, अनुमितित्वस्य परोक्षवृत्तित्वपक्षे मानसत्वस्यैव परामर्शपदितसामग्रीप्रतिवव्यतावच्छेदकत्वकल्पने ऽनुमितिसामग्रीसमवधाने उदितसुखादिमानससाक्षात्कारोऽपि स्यात् ? न च भोगान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकतया समानीतजातिविशेषत | सुख-दु:खानामुत्तं जकत्वान्नाऽयं दोष इति शङ्कनीयम्, यतः हि विजातीयसुखदुःखानां भोगान्यज्ञानप्रतिबन्धकतावच्छेदकी भूलन नोत्तेजकत्वं सम्भवति सुखत्वादिना साङ्कर्येण तत्रैजात्यासिद्धेः = सुख-दुःखी भयमात्रवृत्तिजातिविशेषस्या:सिद्धेः । आनन्दं ब्रह्म' ( ) इत्यादिश्रुतिप्रामाण्येश्वर नित्यसुखाऽङ्गीकारान्न सकलसुख-दुःखेषु भोगान्यज्ञानप्रनिबंधकतावच्छेदकजानिकल्पन्न युक्ता किन्तु जन्यसुख-दुःखेष्व । तथा च मुखत्वेन साकं तत्सङ्करस्य दुग्त्वम् । तथाहि दुःखं सुखत्वं नास्ति वैजात्यमस्ति नित्यसुखं वैजात्यं नास्ति, सुखत्वमस्ति जन्यसुखे चाभ्यमिति सरोपपत्तिः । ततोऽनुमितेः परोक्षत्वेऽनुमितिसामग्रयां सत्य भोगां नैवोपजायेत मानसत्वस्य परानशादिप्रतिचभ्यतावच्छेदकत्वादित्यनुमितमनित्यमेव सततीति नन्नैयायिक प्रति नवीननास्तिकमत लाघवसमर्थनपरी नैयायिकदृषणोद्भावनगर्भितः प्रकरणकारस्य प्रौढिवादेनक्षेप:
नव्यनास्तिकगतमसहमानाः प्राञ्चः = प्राचीननास्तिका: इति आहुरित्यनेनाग्रेऽन्येति । तुर्विदशेषद्योतनाय । तथाहि उपनीतभानस्थले = उपनीतस्य अलौकिकसन्निकर्मापस्थापितस्य भानं यस्मिन् ज्ञानं तत्र स्थले, विशेषणज्ञान-विशिष्टबुद्धयः कार्यकारणभावेन = विशिष्टबुद्धित्वावच्छिन्नं प्रति विशेषणज्ञानस्य कारणत्वेन सर्वसम्मत एव अस्माकं = प्राचीनचावकाणां. क्योंकि अखण्डाभाव में कारणता के स्वीकार का पहले बहिष्कार किया गया है और अन्य किसी कारण में कोई अनुग जाति नहीं हो सकती है' टीक नहीं है अवश्य कार्यतावच्छेदक हो' यह कोई ईश्वराज्ञा नहीं है, जिसकी वजह वह नियम प्रामाणिक हो जाय । अतः परामर्शजन्यज्ञानभित्र ज्ञान में रहनेवाली जाति का अनुगत कोई कारणता अवच्छेदक न हो तो भी कोई दोष नहीं है ।
लुम्प - दुःख में अनुगत जातिविशेष का स्वीकार असकृत
किञ्च सु. । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि पूर्व में जो नैयायिक विद्वानों ने कहा था कि भोगान्य ज्ञान के प्रति सुख और दुःख को उभयानुगत जातिरूप से प्रतिबन्धक मानना आवश्यक है तो फिर उस उभयानुगत वैजात्यरूप मे सुख-दुःख को मानसमात्र के प्रति अनुमितिसामग्री की प्रतिबन्धकता में उत्तेजक मान कर (पृष्ठ ६.७६) वह भी कैसे सङ्गत हो सकता है ? क्योंकि सुख और दुःख में उभयमात्रानुगत एक अतिरिक्त वैजात्य ही नैयायिकमतानुसार सिद्ध नहीं हो सकता है। इसका कारण यह है कि तब सुखत्वादि जाति के साथ उसका साझ प्रसक्त होना है। सांकर्य जातिवाचक होने से सुख-दु:ख उभयानुगत बैजात्य का स्वीकार नहीं किया जा सकता, जिसके फलरूप में अवश्यकतृप्त वैजात्यरूप से सुख-दु:ख को मानस ज्ञान में उत्तेजक माना जा सके । अतः मानसत्व को अनुमितिसामग्रीप्रतिबध्यतावच्छेदक मानने पर तो अनुमितिसामग्रीउपस्थितिकाल में उदित सुख या दुःख को मानस साक्षात्कार = भोग की उत्पत्ति की उपपत्ति नैयायिकमतानुसार कथमपि नहीं हो सकती है। नैयायिकजी ! तब तो अनुमिति को मानस प्रत्यक्षरूप मानना ही सहत हो जायेगा । साङ्कर्यभावना इस तरह - दुःख में नाश जन्य है, सुम्वत्व नहीं । ईश्वरीय नित्यसुख में गुखत्व है, तादृश वैजात्य नहीं : जब कि. जन्यसुख में सुखत्व और अभिमत बैजात्य भी रहता है । परापरव्यधिकरण धर्मों का एक धर्मी में समावेश होने से माइयं उपपन्न हो सकता है ।
प्राच. 1 नव्य नास्तिक मन एवं मानस अनुमिति का स्वीकार करते हैं, जिसमें गांव है। इसकी अपेक्षा उचित तो यही है कि धूमदर्शन के पश्चात् होनेवाले 'पर्वनो बह्निमान' इस ज्ञान को मानस अनुमितिस्वरूप न मान कर चाक्षुप प्रत्यक्षात्मक माना जाय । तब यद्यपि अग्नि का चाक्षुप नहीं माना जा सकता मगर अग्रि का उपनीतभान माना जा सकता है, क्योंकि ज्ञानलक्षणसन्निकर्ष से वह पूर्व उपस्थित रहता है । उपनीतभानस्थल में विशेषण का भान कारण है और विशिष्टबुद्धि कार्य है । विशेषणज्ञान और विशिष्टज्ञान के बीच हेतुहेतुमद्भाव तो सर्वमान्य है । अतः उसी कार्य कारणभाव के नियम के अनुसार परामर्शकाल में उपस्थित अग्नि का उत्तर क्षण में पर्वतगोचर वाक्षुप में उपनीतभान माना जा सकता है। 'सुरभि चन्दनं' इत्यादि प्रतीति की भांति 'पर्वती वह्निमान' इस प्रनीति की उपपत्ति हो जाने से हम प्राचीन नास्तिकों के मल में नवीन