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*मागमान्यसामरी प्रतिवध्यतात्रिचार तथाप्यनुमित्साधुतेजकभेदेन विभिमर्पण प्रतिबध्य-प्रतिबन्धकभाव आवश्यक इति | चेत् ? त, तत्तदिच्छानन्तरोपजायमानमिनमानसे जातिविशेषं स्वीकृत्य तदवच्छिनं प्रति मानसान्यसामग्रया: प्रतिबन्धकरवकल्पनादन्नमितित्वादेर्मानसवृत्तित्वकल्पनौचित्यात् । न च ततदिच्छातान्तरोपजायमानमानसापत्तिः, ताटशमानसं प्रति तत्तदिच्छानां हेतुत्वात् । न चैवं गौरवं, फलमुखत्वात् ।
यत्तता* अर्वाचीननास्तिकास्तमपनांदयन्ति - नेति । तत्तदिध्यानन्तरोपजायमानभिन्नमानसे - तत्तदभुत्सानन्तरक्षणे जायमाना ये मानमसाक्षात्कारा: तदिन मानग, जातिविशेषं स्वीकृत्य तदवच्छिन्नं = जिज्ञासा व्यवहितोत्तरकालिकमानसभित्रमानस - मात्रवृत्तिबजात्यान्टिन प्रति मानसान्यसामग्याः प्रतिबन्धकत्वकल्पनादिति । इत्थञ्च चाक्षुषादिसामग्रीसत्त्वेऽपि दहनबुभुत्सावलाद् धूमपरामदीन दहनमानसानुमितरूपमित्सामहिम्नः सादृश्वज्ञानन मानसोपमितः शाब्दबाधिन्छावशात्यदज्ञानेन मानसगाब्दप्रतीतश्चातयत्तिः मङ्गछन, तासां नानसेतरसामनानिष्ठतिबन्धकतानिमपित प्रतिबध्यतावच्छेदकशून्यत्वात् । वमनुमित्यादीनां मानसत्वपक्षे एकनव प्रतिवध्यप्रतिबन्धकभान सर्वसामञ्जस्य प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभावत्रितयकल्पनागारबमनवकागम । प्रतिबन्धकता:धिक्यज्ञानादवानमित्यादीनां प्रमित्यन्तरत्वं न कल्पयितुम्हीत । ततश्च न प्ररिज्ञायन्न्यास इति नबीननास्तिकतापर्यम् ।
नयायिकशङ्कामपाकतमभिनवनास्तिकाः प्रक्रमन्ते . न चति । तत्तदिनाचिरहकाले = अनमित्सादिविरहकाले अणि तत्तदिच्छानन्तरजायमानमानसापत्तिः, नस्य चाक्षुषादिसामग्रोप्रतिबध्यतावच्छेदकानाक्रान्तत्वात् । अयं नैयायिकाशयः चाक्षुषादिसामग्रीसमवधान अनुमित्याविरहे 'परामात् तनदिन्छानन्तरजायमानमानसभिन्नमानसप्रत्यक्षमा भवतु, तस्य चाक्षुपादिसामग्रा. प्रतिबध्यतावच्छेदकाक्रान्तत्वात किन्तु तादृशंबजात्यानाक्रान्तमानसोत्पादो दर एच. तस्य नदिच्छाविरहविशिष्टचक्षुषादिनगमग्रीप्रतिबध्यताकोटिविनिर्मक्तत्वादिति । तननास्तिकास्तदपाकरण हतमाहः तादृशमानसं - तनदिच्छाशून्यचारंपादिसामग्रीनिरूपितप्रतिबध्यतावच्छेदक-जात्यविकलमानसं प्रति नत्तदिच्छानां स्गतन्त्र्यण हेतुत्वात् = करण्वकल्पनात् । ततश्च नदिनाविरहविशिष्टमानसंतरसामग्रीसमवधानदशावां परामशदिसत्यापि तनदिवास्वरूपकारणान्तरबैकल्लान्न निम्बतम्गनसापत्तिः । न च एवं = तनदिच्छानन्तरजायमानमानसे प्रति तनदिच्छानां पृथकारणत्वकल्पने गौरवं इनि वाच्यम्, तादृशगारवज्ञानस्य फलमुखत्वात्, फलं = कार्यकारणभावज्ञानं तन्मुखे = तदधीनं, कार्यकारणभावनान धीनत्वत्तस्या-दोपमित्यर्ध: । न चैतादृशस्वरूप उत्तेजक के भेद से विभिनरूप से प्रतिबध्य - प्रतिबन्धकमाव तो मानना ही होगा, क्योंकि उनंजकाभावविशिष्ट प्रतिबन्धक का अभाव कार्यजनक होता है । घट की चाक्षुपसामग्री होने पर भी अनि की अनुमित्सा होने पर अनुमिति ही उत्पत्र होती है, क्योंकि तर उत्तेजकाभावविशिष्ट प्रतिबन्धक नहीं है। इस तरह अनुमिति के प्रति अनुमित्साविरहविशिष्ट चाक्षुपादिसामग्री को प्रतिबन्धक माननी होगी एवं उपमिति के प्रति उपमित्साविरहविशिष्ट बाभुपादिसामग्री वो प्रनिबन्धक माननी होगी और शान्दबोध के प्रति शाळेच्छाविरहविशिष्ट चानुपादिसामग्री को प्रतिबन्धक माननी होगी। तब तो 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण है इस | प्रतिज्ञा का सन्न्यास हो जायेगा' । -
न त. । तो इसके समाधानार्थ हम नन्य नास्तिकों का ग्रह, वकय है कि हम अनुमिनि आदि बुद्धि का विजातीय प्रमाणरूप में स्वीकार न कर के तत् तत् बोधविषयक इच्छा के अनन्तर होने वाले मानस प्रत्यक्ष से भिन्न मानस प्रत्यक्ष में एक जातिविशेप का स्वीकार करते हैं और तादृन्न जानि से विशिष्ट मानस प्रत्यक्ष के प्रति मानमतरसामग्री को प्रतिबन्धक मानने हैं । अत: धूमपगमर्श एवं अग्रिअनुमिन्मा होने पर चासनिकपदशा में भी अग्नि की अनुमिति ही होती है तथा सादृश्यज्ञान एवं गवयउपमित्या होने पर चक्षुसत्रिकर्पदशा में भी गवय की उपमिनि ही होती है और पटपदज्ञान एवं पटशादयोधेच्छा होने पर चक्षुमत्रिकर्प अवस्था में पट का शानदाथ ही होता है, क्योंकि वे सभी चाक्षुपादिसामग्री की प्रनिपतावच्छेदक जानि से शून्य है। इस तरह सिर्फ एक जाति की कल्पना कर लेने पर नयायिकप्रदर्शित तीन प्रतिवध्य - प्रतिवन्धकभाव की कल्पना का गौरव भी परिहत हो सकता है । केवल एक प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव को मान्य करने से ही सब सहन हो सकता है तो फिर क्यों अनुमिनि आदि को अतिरिक्त प्रमा मानी जाय १ अतः अनुमितिय वो मानमनि मारना यानी अनुमिति को मानसप्रत्यक्षरूप मानना ही समीचीन है । अतः प्रतिज्ञासन्न्यास की आपत्ति निरवकाश है । इसके खिलाफ इस समस्या का कि -> 'मानसेतरज्ञानसामग्री याद तादृशवजात्यावश्टिन की प्रतिबन्धक मानी जायगी ना भी ननदिच्छा के अभाव की उपस्थिति में मानसेतरसामग्री होने पर भी धुमपरामर्श आदि से पहि की अननिति के, जो तनादिकानन्तर
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