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* पियनाविध्यम * | इति प्रतीत्युत्पतेः 'पीतं शहवं साक्षात्कारमी'त्यादिप्रतीतिबलाददोषविशेषनियम्यामपि लौकिकविषयतां कल्पयत्ति धकाः ।
युक्तच्चतत, चावषादिसामग्रीसत्वे मानसत्वरूपव्यापकधर्मावच्छिन्नसामग्याभावादेवानमित्यनदयोपपत्ती अनुमितित्वादेः तत्प्रतिबध्यतावच्छेदकत्वाऽकल्पने लाघवात् ।
-* जरा *त्याद्यनुव्यवसायोत्पादस्य ग्रहणं. 'पीतं शतं साक्षात्करोमी'त्यादिप्रतीतिवलात् = एतदनुव्यवसायांत्पादान्यथानुपपत्तिवशात, दोपविशंपनियम्यां नेत्रपतिमादिदोषविशेषनियम्यत्चन अपि लोकिकविषयतां कल्पयन्ति = चीकवन्ति ग्रान्थिका: - प्राचीन यायिका : ! अयमभिप्राय: शशस्थ शुक्लन झन सह चक्षुःसन्निकर्पदशायां पीनरूप इन्दिपलौकिकरन्त्रिकर्षाभाय - नेन्द्रियकलांकिकविषयत्वाभायात् 'पानं शङ्ख साक्षात्करामी निधीन सम्भवत् । जायते च सा । अतः तदुत्पादानुरोधेन इन्द्रियनियम्यलांकिकविषयत्वाभावनि पातरूपं दोपचिपनियम्पां लोकिकविंश्यतां प्राञ्च कल्पयन्ति मन लोकिकविपयनया नत्र व्यवसायाप्रत्यक्षरान "श्यामि साक्षात्करमी त्याअनुन्यवरायोत्पनिनिरर्गला।
किचानुमितेः प्रमित्यन्तम्चनुमितिचापा भदसामाग्रीसचदशायामनुमित्सुत्यादवारणायानुमिति प्रति चाक्षुषमामययाः प्रतिबन्धकत्वमहाकर्तव्यं ग्यादिति गौरबम् । अनुमितमानसत्त्व नु गतत्काल्पनावश्यकी, मानसंतरपल्याक्षसामग्यापेक्षया मानगसानग्रया दचलल्यान्मानसं प्रति चाचपादिसामग्रीनिवन्धकत्वस्य सर्वसम्मतत्वादिति लावामित्यायन नयनास्तिका वन-यूक्तच पतन - अनुमित मानसत्वकल्पनं. चाक्षुपादिसामग्रीसत्वे मानसत्वान्नितिबध्यतानिसापित प्रतिबन्धकलाग्ानियागिकाभावविरहण मानसत्वरूपच्यापकधर्मावच्छिन्नसामग्रयभावादच अनुमित्यनुदयोपपत्नी अनुमितित्वादः तत्प्रतिवध्यत्वाचकंदकत्या कल्पन = चाक्षपादिसामग्रीनिष्ठप्रतिबन्धकतानिरूपिनप्रनिबन्यतायच्छन्दकत्वकल्पनानावश्यकल्ले, लाघवात् । विभाजिताधमेबंदम वस्तु के प्रत्यक्ष का प्रत्यक्षात्मक संवेदन नहीं होता, जैसे न्यायादि दर्शनों में गुमत्व आदि का मानम प्रत्यक्ष होने पर भी गुरुत्व अलौकिक विषय होने के नबर स्वलीकिकविपयता सम्बन्ध में उसका व्यवसायात्मक साक्षात्कार न होने से 'गुरुत्वं माक्षात्करोमि' ऐसा न होकर 'गुमन्वं न माक्षात्कामि' ऐसा ही संवेदन = अनुष्यवसाय होता है । दीक ऐसे ही धूमपनमा से अग्नि का मानसप्रत्यक्षात्मक अनुमिति ज्ञान होने पर भी अग्नि के साथ मन का लौकिक सम्भिकर्ष न होने से लीकिकविपयनासम्बन्ध स व्यवसाय प्रत्यक्ष नहीं रहने की वजह 'बहिं साक्षात्करोमि ऐसा न होकर 'दहनं न साक्षात्करोमि' इसी प्रकार का संबंटन होता है। जिस विषय में लौकिक विषयता होती है उसी वान के प्रत्यक्ष की 'साक्षात्करोमि' इस रूप में अनुव्यवसाय वृद्धि उत्पन्न होती है - इस नियम की प्रामाणिकता होने की वजह ही नो प्राचीन नैयायिक भी 'पीतं बाई साक्षात्करामि' इन प्रतीति (= अनुव्यवमाय बुद्धि की अन्यथा अनुपनि से दांपविशंपनियन्त्रित लौकिक विषयता का स्वीकार करने हैं । आशय यह है कि शह तो अन होना है, न कि पीन 1 अतः वहाँ पीन रूप में चक्षुसत्रिकर्ष से नियम्य लौकिकविपयता नहीं हो सकती है । मगर तब शरतिपयक प्रत्यक्ष के अनुव्यवसाय में उसका अवगाहन नामुमकिन बनन की आपनि आती है, क्योंकि तब लांकिक दिपयता सम्बन्ध से उस पीन रूप में प्रत्यक्ष ही नहीं रहता है। अतः यहाँ पित्त आदि दोपविशेप में नियम्य लौकिक विषयता की कल्पना की जाती है, जिसके फलरूप में लौकिक पिता सम्बन्ध स पीन रूप में व्यवसायान्मक प्रत्यक्ष रह जाने में पीनं माझं साक्षात्कगेमि' इत्याकारक नीति की उत्पत्ति महत हो जाती है ।
अनुमिति तो स प्रायता गाजे में ! - unselling युकः। विचार करने पर उन कल्पना नियुक्त प्रतीत होती है, क्योंकि अनुमिनि था यटि मानस प्रत्यक्ष न मान कर अनिरिक प्रमा मानी नाय तब जिम विषय की अनुमितिसामग्री के साथ उन्ना विषय के चाशुपाटि प्रत्यक्ष की भी मामग्री होती है तर उस विषय की अनुमिति के प्रति उम विषय के चाक्षुपादिप्रत्यक्ष की सामग्री को प्रनियन्धक मानना होगा, अन्यथा उस समय उस विषय की अनुमति भी उत्पन्न होने की आपत्ति आयी । किन्तु अनुमिति का अतिरिक प्रमा न मान कर मानसप्रत्यक्षरूप मानी जाय तो उक्त गति से प्रतिवन्धक की कल्पना आवश्यक न होगी, क्योंकि अन्य प्रत्यक्ष की मामग्री की अपेक्षा मामस प्रत्यक्ष की मामग्री के चल होने से मानस प्रत्यक्ष के प्रति चाक्षुपादि प्रत्यक्ष की सामग्री की प्रतिबन्धकता सर्वसम्मन है। अत: चाक्षुपसामग्री सनिहित होने पर अनुमिनित्व की अपेक्षा व्यापक मानसत्व धर्म में अवच्छिन्न (=विशिष्ट) की सामग्री ही नहीं रहने से अनुमान की अनुत्पनि को मङ्गति हो सकती है । इसके लिये अतिरिक्त प्रतिवन्य - प्रतिबन्धकभाव की कल्पना आवश्यक नहीं है। इस प्रकार प्रतिरन्धक की कल्पना में लाघव के अनुरोध से भ पगमर्ग