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६६६ मध्यमस्या दादरहरये खर: : का.
*मानमानुमिनिमीमांसा तालु तथाप्यनुमितित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वमेवेति प्राक् प्रत्यपीपदाम । । चानुमितेः । साक्षात्कारवे 'वहिं न साक्षात्करोमीति प्रतीतिः कथमिति वाच्यम्, तत्र लौकिकविषयतया साक्षात्काराशावादेव गुरुत्वादाविव तदपपत्तेः । अत एव लौकिकविषयतावत्येव 'साक्षात्करोमि'
रब्धावकाशा नूतननास्तिकाः पुनःयाकन्न - ननु इति चतुर्थचपदनान्नेनि (पृष्ठ ६७५) । तथापि = पनदव्यबहिनोनानु. मितित्वस्पतत्परामर्दाकार्यनावछंदकत्वस्वीकारेऽपि, अनुमिनित्वस्य मानसत्वच्याप्यत्वमेव न तु मानसत्वविरोधियमिते प्राक - (पट ) समवाचावछिन्नलानादिनिनकार्यतानिमपिततादाम्यसम्बन्धावन्निन्नवारीनिष्टकारणताप्रतिपादनावर प्रत्यपीपदाम । नननदनम्ञानत्वयनकार्यतावच्छेदकत्वायम्:पि - प्रनाणान्तगपनि:, प्रमित्यन्तगमिदः । न च अनुमितः = | अनुमितित्यन्त्रिम्य माक्षात्कार - प्रत्यक्षवापगग. 'पर्वती दहनव्यायधमवानि निपरामर्शजन्यदहन-उपवसायविर्षायणी 'वहिं न साक्षात्करोमि' इति प्रतीनिः = अनुबमारवृद्धिः कथं ! दहाव्यवसायस्य वन्मते प्रत्यक्षत्यानदभावावगाहिनी-- नुव्यवसायस् या सम्भवात् अनुव्यवसायस्य प्रभावनियमादिति म्यादादिना यात्र्यम्, तत्र = अनुमिनिविषयी भून दहने. लौकिकविषयतया = स्वनिष्ठविपपिनानिमापितलांकिकत्वात्यविषयत्तासम्बन्धन, साक्षात्काराभावादेव गुन्यादाविव तदपपत्तेः 'न माक्षात्कगमि' इत्यनुशवमायसहतेः । यद्यपि लौकिकाविषयता पत्र साक्षात्कारत्वञ्जिका नापि तम्या: स्वातन्त्र्यण कारणले गौरवान विषयतया स्वगोचरञ्यवसायविषयकानुव्यवमापबुद्धिं प्रति स्वनिरूपिनविषयतया कलुप्तकारणनाकग्य व्यवसायात्मकस्य प्रतासागर स्वनिरूपितली किकविषयनासम्बन्धन हेत्त्वकल्पचितम । घंटे स्वनिरूपितलाकिकविषयतामन्त्रिमण प्रत्यक्षात्मकस्य घटव्यायायस्य सत्वात नत्र विषयतया 'घटं पदयागि' इति धीमत्पद्यने । मनसस्तु बहिविषय लौकिकन्निकभावन न्यौकिकविषयत्वाभाधादमितमानसप्रत्यक्षत्वपि तदनरं 'दह न साक्षात्कगंभी'त्यनन्यसाय सञ्जायतेन न सहन प्रत्यक्षीकरोमि' इत्याकारकः, नत्कारणाभाघात, अन्यथा गुरुत्वादिगोचरालाकिकमानसोनमणि गरुत्तमहं साक्षात्करामी ति प्रतीत्यापनः । इत्यामिनामीनिंप्रतीतेपदहनादिगोचरमानमप्रत्यक्षनच विषयोस्त, न त विजातीयप्रमिनिरिति । अत एव = लाकिविषयत्तासम्बन्धन प्रत्यक्षस्य तत्कारणत्वादय, लौकिकविषयतावति विषय पर 'साक्षात्करोमी'निप्रतीत्युत्पनेः उपलक्षगात 'पददामी',
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कि बहिविधेयकानुमिनित्व को धूमपरामर्श का कार्यताअवच्छेदक मानना होगा नब नं. कार्यताअवच्छेदक धर्म ही गौरवग्रस्त हो जायगा । यह तो बकरे को निकालने पर आँगन में ट घुस गया' - समाधान यह है कि धुमपगमर्श का कार्यनावञ्चक धर्म राजदम्यवाहितोत्तगनमिनित्व है। जलादिमाध्यकानुमिति में धुमपगमान्यवहितानरत्व ही नहीं होने म उमका आपादन नामुमकिन है। इस तरह पर्वतपक्षकत्व आदि का निवेश भी अनावश्यक है, क्योंकि एतदन्यवाहितोत्नरत्व के निवेश में ही अनिप्रसह का निवारण हो जाना है। इस सम्बन्ध में काफी अधिक विचारविमर्श किया जा सकता है - इस बात की सूचना दिग गन्न मे ज्ञात होती है।
अनुमिति गतसप्रक्षविशेष है - जर) जसका ] पूर्वपक्ष :- ननु.। आर स्यावाटी के कशनानुसार हम परामर्श का कार्यतावच्छेदक अव्यवहितात्तगनुमितिय का स्वीकार | करते हैं फिर भी हमने पहले ही साफ. माफ बना दिया है कि अनुमिनिन्न मानसत्वव्याप्य धर्म है यानी अनुमिति भी मानसविनयात्मक ही है, न कि मानसप्रत्यक्षविलक्षण । तर अतिरिक्त प्रमा का अवकाश नहीं होने से प्रमाणान्तगपत्ति को अबक्कादा कहाँ ? इसलिए प्रतिज्ञासल्यास दीप भी नामुमकिन है । ऐसा मान्ने पर यदि यह इका की जाय कि -> 'यदि अनुमिति मानस प्रत्यक्ष स्वरूप है तो धूमपरामर्श से चह्नि का मानम प्रत्यक्ष होने पर 'अग्निं साक्षात्करोमि = 'में अग्नि का प्रत्यक्ष कर रहा हूँ' इस रूप में उस मानस प्रत्यक्ष का मंदन होना चाहिए । मगर वस्तुस्थिति यह है कि वैसी अनुव्यवमाय बुद्धि न हो कर उसके विपरीत यह मंवेदन होता है कि 'बहिं न साक्षात्करामि' - 'मैं अग्नि का प्रत्यक्ष नहीं कर रहा है। यह नहीं होना बाहिग' - नो इसका समाधान केबर इतना ही है कि 'पश्यामि'. साक्षात्करामि' इत्याटिरूप में उसी उस्तु के प्रत्यक्ष का मंबदन = अनुव्यवसाय होता है जिसमें उस प्रत्यक्ष की लौकिक विषयता होती है, क्योंकि ग्वनिरूपिपलौकिकविषयतासम्बन्ध में प्रत्यक्ष उसका कारण होता है, जैसे 'घटं साक्षात्कगेमि', 'घट पश्यामि' इत्यादि बुद्धि । मगर जिम वस्तु में प्रत्यक्ष की लौकिक विषयना नहीं होती है उस यस्त में स्वलीकिकविषयतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष व्यवसाय द्धि) नहीं रहने की वजह उस