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* अनागयित्वोपपादनम्
तरमेवाऽनुमित्यभ्युपगमः, त्वमनोयोगादिविगमस्य कल्पयितुमशक्यत्वात् । तच्चिन्त्यमित्यपरे, अनुमितित्वस्य भोगत्वव्याप्यत्वाभ्युपगमेन तद्दोषाननुवृत्तेः । न च वहन्यादेः कथं भोगविषयत्वं, चन्दनादिवदुपपत्तेः ।
अन्ये तु
तदानीं वहिमानसस्वीकारे लिङ्गादीनामपि मानसापति: । न व आचार्यमत ॠ गयलता
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परामर्शात् अनुमित्यभ्युपगमः भिन्नविषयकानुमितिवीकारः प्राख्याचणिती ( पृष्ठ ६६८ ) युक्तः, मनसः चक्षुर्माणि श्रोत्ररसनेन्द्रियैः साकं संयोगनाशसम्भवेऽपि मनसां जाग्रदशायां भवेदा त्वक्संयुक्तलेन तदानीं त्वमनोयोगादिविगमस्य कल्पयितुमशक्यत्वात् । ततश्व घटनयनसन्निकर्षस्थले दहनानुमिदुपपादनेऽपि घटस्यर्शनेन्द्रियसंयोगस्थले धूमपादनलानुमितिर्नय भवेत् यदि मानसवृत्तित्वमनुमित्यादेः स्यात् । न च तदानीमनलानुमित्यनुदयो भवतीति तदनुरोधेनानुमितः प्रमित्यन्तरत्व| मैवाभ्युपेयमिति केषाञ्चिदाकृतम् ।
तचिन्त्यमित्यपरे नव्यनास्तिका बदन्ति । चिन्ताबीजमंत्रोपदर्शयन्ति अनुमितित्यस्य भोगत्वव्याप्यत्वाऽभ्युपगमेन 'अनुमितिः भोगविशेषरूपये त्यतीकारेण तदीपाननुवृतेः प्रट्चाक्षुषादिसामग्रीमत् धूमादिपरामशत् दहनाद्यनुमित्यनुसादलक्षणदीपस्य प्रत्यात्, दहनाद्यनुमित भगविदापात्मकत्वेन चाक्षुपादिसामग्रीप्रतिवध्यताको विर्भावात, चापादिसामग्रयाः भोगल्यमानसमात्रवृत्तित्रैजात्यावच्छिन्नं प्रति प्रतिबन्धकत्वात् । न च हन्यादेः कथं भोगविषयत्वं सम्भवति ? येनानुमित्यादर्भागित्वमुपाधेत इति शङ्कनीयम्, चन्दनादिवदुपपत्तेः । सुख-दुःखयोरेव भोगविषयत्वे चन्दनादिकण्टकादिनिर्मिनकसुख - दुःखमानससाक्षात्कारोल्पत्तेः चन्द्रनादेर्भागविषयत्वं व्यवह्नियतं तदेवानादिनिमित्तसुखादिमानससाक्षात्कारोदयादनलादी गोगविषयत्वमुपपयले अनुभवन्ति चानलाद्यर्धिनां धूमपरामर्शानन्तरं सुखम् ततश्चानुमितित्वस्य भोगवृत्तित्वेऽपि सर्वगामी परीक्षवृतित्वकल्पन मसङ्गतमित्यर्वाचननास्तिकाशयः ।
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अनुमिते मनिस
अन्ये तु सियागः तदानीं धूमादिलिङ्गकपरानशन्यवहितांचरकालं. वह्निमानसस्वीकारे लिङ्गादीनां धूमादित्वादीनां अपि मानसापनि: = मानसंगाक्षात्करगोवरत्वत्रराङ्गः 'बह्निव्या श्रधूमगन् पर्वत' इति ज्ञानलक्षणसन्निकर्षस्य बह्नाचित्र धूमादावपि सन्यात् । न च आचार्यमत = उदयनाचार्यमते इव तंत्र = धूमादि
अनुमिति की सामग्री उपस्थित होने पर वक्षु और मन आदि का संयोग नष्ट हो जायेगा तथा उसकी उत्तर क्षण में भित्रविषयक अनुमिति हो सकती है। अतः अनुमिति को मानस प्रत्यक्षात्मक मानी जा सकती है इसलिए निराधार हो जाता है कि त्वगिन्द्रिय के साथ मन का संयोग इत्यादि का नाश तो भिन्नविपयक अनुमिति की सामग्री होने पर भी नहीं माना जा सकता । अतः घट के साथ स्पर्शन इन्द्रिय का संयोग होने पर धूमपरामर्शसमवधानदशा में भी अभि की अनुमिति नहीं हो सकेगी । अतः अनुमिति को मानस प्रत्यक्षरूप नहीं मानी जा सकती ।
तचिन्न्य. | मगर अपर नास्तिक विद्वानों का इसके खिलाफ यह वक्तव्य है कि पापादिसामग्री की उपस्थिति में अग्नि की अनुमिति के उपपादनार्थ यह भी कहा जा सकता है कि हम अनुमितित्व को भोगत्वव्याप्य मानते हैं अर्थात् अनुमिति भी भोगविशेषात्मक ही है । चाक्षुपादिसामग्री तो भोगान्यमानस के प्रति ही प्रतिबन्धक होती है, न कि मानसमात्र के प्रति। अतः मानसेतर ज्ञान की सामग्री होने पर भी रहनानुमित्ति हो सकती है, क्योंकि यह प्रतिबध्यतावच्छेदक से अब नयी कल्पना के अनुसार, शून्य है । यहाँ इस शंकर के कि अनुमिति की भोगात्मक मानी जाए तब तो अनि में अनुमितिस्वरूप भांग की विपयता कैसे आयेगी ? क्योंकि भांग के विषय तो केवल सुख-दुःख ही होते हैं - समाधनार्थ यह कहा जा सकता है कि जैसे चन्दन, कण्टक आदि सुख-दुःखजनक होने से उनमें भोग्यता भोगवियता का व्यवहार होता है ठीक वैसे ही अनि आदि में भी भोगविपयता की संगति हो सकती है। अतः अनुमितित्य को प्रत्यक्षवृत्ति मानना ही सङ्गत है । तब तो अतिरिक्त प्रमाण की मिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि प्रमा ही असिद्ध है । यह नव्यचार्वाक एकदेशीय का मन्तव्य है ।
अनुमिति का मानस प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव नामुमकिन- नैयायिक
अन्य तु । मगर इसके प्रतिवाद में नैयायिक मनीषियों का यह वक्तव्य है कि धूमपरामर्श के बाद होनेवाले अभिज्ञान को यदि मानस प्रत्यक्षरूप माना जायेगा तो हेतु आदि के भी मानस प्रत्यक्ष की आपत्ति आयेगी। इसके बचाव में यह कहा जाय कि जैसे 'अनुमिति को प्रत्यक्षविलक्षण प्रमा माननेवाले उदयनाचार्य अनुमिति में लिङ्ग का भान मानते
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