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६५६ मध्यमस्पावादरहस्य खण्डः ३ का. ५०
** न्यायभाष्यसंगदा
र्थेष्वेव पराकृतमस्माभिः । तथाहि शरीरं न ज्ञानाश्रयः, स्तनन्धयानां स्तनपानादिप्रवृतिजनकेष्टसाधनताज्ञानस्य स्मृतिरूपतया पर्यवस्यतो हेतुभूतस्याऽऽमुष्मिकानुभवस्यैहिक शरीरेसम्भवात् । तदिदमाह 'वीतरागजन्मादर्शनात्' (मौ. न्या. सु. ३/१ / २४ ) इति । तथा चैको तित्योऽनुभविता स्मर्ता च यः स एव भगवानात्मेति ।
जयलता
प्रकृतं प्रस्तुमः । महोपाध्यावोऽत्र उत्तरागक्षयितुमुपक्रमने यदपीति । न्यायवादार्येष्विति । न्यापवादार्थ दर्शनमपि प्रमारहस्यादिदर्शन दुर्लभमधुना । सक्षण नैयायिकरीत्या प्रकृतं दूषयितुमन्ह तथाहीति । शरीरं = पक्षनिर्देशः । माध्यमाह न ज्ञानाश्रय इति । ज्ञानसमवायिकारणत्वाभावः साध्यः । हेतुस्तु स्तनपानादिवृचेऽपि तत्कारणीभूतेष्टसाधनताधीशून्यत्वात् दिनि स्वयं चोभ्यमित्याशयेन स्वरूपासिद्धिवारणासह स्तनन्धयानामिति । अयं भावः भायकस्य स्तन्यपानप्रवृनिरिष्टसाधननाभी- सध्या भाचानुमितिरूपा च व्यापादया भाग्यादिस्मृति प्राग्भवीयानुभूतिसाध्या । ततः शरीरस्य चैनन्थे वालकस्य स्तन्यपानं प्रवृत्तिर्न स्यात् इष्टसाधनताज्ञानत्य इच्छाद्वारा तद्धेतुत्वात् स्तन्यपानप्रवृन्यव्यवहितपूर्वक्षणे इष्टसा नानुभावकविरहात् । अतिरिक्तान्यवादिमते तु जन्मान्तरानुभूतेष्टसाधनत्वस्य तदा स्मरणादेव प्रवृत्तिः सम्भवति । नत्र जन्मान्तरानुभूतमन्यदपि स्मयंतमिति वाच्यम्, उद्बोधकाभावात् अत्र तु जीवनादृष्टस्वीकृत एवं अक्षपादसम्मतिमाह तव्दमाह - वीतरागजन्मादर्शनादिति । वात्स्यायनेन न्यायभाष्यं प्रकृते "सरागी जायते इत्यर्थादपद्यते । अयं जायमानो रागानुद्धी जायते, रागस्य पूर्वानुभूतविण्यानुचिन्तनं योनिः । पूर्वानुभव विषयाणामन्यस्मिन् जन्मनि शरीरमन्तरेण नोपपद्यन् । सोऽयमात्मा पूर्वशरीरानुभूतान विषयान् अनुस्मरन तेषु तेषु रज्यते । तथा चायं द्वयोर्जन्मनः प्रतिसन्धिः । एवं पूर्वारस्य पूर्वतरण, पूर्वतरस्य पूर्वतमनत्यादिनाऽनादिनस्य शरीरयोग:, अनादिव रागानुबन्ध इति सिद्धं नित्यत्वमिति" (न्या.भा. /१/२४) इत्येवं आख्यानम् । सूत्रफलितार्थमाविकरोति तथा चेति । विभावितानि न पुनः प्रतन्ते ।
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* नव्यनास्तिकमण्डन
सदपि । प्राचीन नास्तिक के सिद्धान्त का स्वण्डन कर के अब प्रकरणकार पूर्वोक्त (देखिये मं पृष्ठ पृष्ठ ) नव्यनास्तिकमत का निराकरण कर रहे हैं। नवीननास्तिकों ने जो कहा था कि 'अवच्छेदकतासम्बन्ध में ज्ञानादि के प्रति तादात्म्य से... उसका अपकरण तो हमने 1 प्रकरणकार महोपाध्यायजी ने। न्यायवादार्थ में ही कर दिया है। वह इस तरह ज्ञातव्य है - शरीर तो ज्ञान का आश्रय नहीं हो सकता है, क्योंकि जन्मे हुए बालक जन्म के बाद स्तनपान आदि प्रवृति करते हैं वह इष्टसाधनता के ज्ञान के बिना, जो स्मृतिस्वरूप होता है, नहीं हो सकती और तादृश प्रवृत्ति के हेतुभूत स्मरणात्मक इष्टसाधनताज्ञान का आधार वालक का इस जन्म का शरीर तो नहीं हो सकता है । इसका कारण यह है कि स्मृति का कारण अनुभव है। अनुभव के बिना स्मरण नहीं होता । बालक जब पहली बार स्तनपान की प्रवृत्ति करता है उसके पहले तो उसने कवी भी स्तनपान का अनुभव ही नहीं किया है। बिना अनुभव के बाल शरीर में कैसे तादृश स्मृतिरूप इष्टसाधनताज्ञान हो सकेगा ? मगर स्तनपानप्रवृति बिना इष्टसाधनताज्ञान के, जो 'स्तनपानं मदीयमिष्टसाधनं इत्याकारक स्मरणात्मक है, नहीं हो सकता है और तादृश स्मरण भी बिना रतनपानविक अनुभव के नहीं हो सकता । यह तो सर्वविदित है कि इस दनिया में जन्म लेकर प्रथम बार स्तनपान करने वाले बालक ने पहले कभी स्तनपान नहीं किया था । अतः मानना पड़ेगा कि अगले जन्म के स्तनपानविषयक अनुभव से बालकों की इस जन्म में तादृश स्मरण होता है जिससे वे स्तनपानप्रकृति करते हैं। मौत के बाद तो शरीर जल्दाया जाता है या दफनाया जाता है। अतः पूर्व जन्म का शरीर लेकर यहाँ कोई जन्म नहीं पाता है । इसलिए मानना होगा कि पूर्वभव के शरीर में रहनेवाली और शरीर से भिन्न कोई चीज इस जन्म के शरीर में आती है, जो अनुभव एवं स्मरण को करती है। वहीं आत्मा है, अन्य कोई नहीं । गीतमीय न्यायसूत्र में भी आत्मसिद्धि के उद्देश से कहा गया है कि कोई जन्मा हुआ वीतरागी नहीं दिखता है । इस सूत्र का तात्पर्य यह है कि गग रागान्तरपूर्वक होता है। राग का मतलब है इच्छा कोई भी नयी इच्छा उत्पन्न होती है वह अन्यइच्छापूर्वक डा होती है। जन्म लेने पर स्तनपान की इच्छा बालक को होती है । अतः वह भी अन्यइच्छापूर्वक होनी चाहिए। मगर