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६.०८. मध्यमम्याचादहस्य खण्डः ३ . का... * अनुमिनिवस्य गगनदीकार्यनारदलता * | माताभावात्, सर्वप्रमाया: प्रत्यक्षरूपत्वान प्रमाभेदाधीत: प्रमाणभेद इति न प्रतिज्ञासन्यास' इति त् ? न, 'वहिन्याप्यधूमवान् पर्वत' एतादृशनिश्चयस्यैतदुत्तरानुमितित्वस्य जन्यतावच्छेदकत्वेन प्रमाविशेषसिन्दी प्रमाणविशेषसिन्देः । न चैतदुत्तरज्ञानत्वमेव तज्जत्यतावच्छेदकं एतदव्यवहितोत्तरोत्पतिकत्वमेव वा संस्कारख्यावृतं तथा; गृहीतापामाण्यवाहार्य- जरा ता
- वा गौरवण मानाभावात् । 'परामर्दा जन्पज्ञाने प्रत्यक्षत्वानिरिक्तप्रमात्वकल्यनपूर्वमेव गौग्वज्ञानोपस्थितेनं परामर्शस्यानुमानत्वमित्याशयः। अन एयन प्रनितारन्याग इति दहति - सर्वप्रमायाः - प्रभात्यावच्छित्रया: प्रत्यक्षरूपत्वात् = साक्षात्कारवाभ्युपगमान न प्रमाभेदाधीनः प्रमाणभेदः मिध्यनीति न प्रतिज्ञासन्यासः मा भेद सिद्धं मति प्रमाणान्न मिष्यति नान्पधा, तस्य तदाजीवकत्वान । लायनसहकारण प्रभावावच्छिन्न प्रत्यायनिर्णयान्न परानजन्यनमायाः प्रत्यक्षमाभिन्नत्वसम्भवः । जातो न प्रमाणान्तरप्रयजन प्रतिज्ञागंन्यास इनि चार्वाकाशयः ।
प्रकरणकारस्तममहस्तमति - नति । 'पहिव्याप्यधूमान् पर्वन' एतादृशनिश्चयस्य = प्रदर्शितप्रमापशमशेर एनदत्तरानुमितित्वस्य = एतदनदहनामिनित्यग्य जन्यतावच्छेदकल्वन प्रमाविशेषसिद्धी प्रमाणविशेषसिद्धिरिति । निरुक्तपरामर्शजन्मज्ञानविषयकानुन्य वसायम्य पर्वत दहन ने साक्षात्करोमि किन्त्वनुमिना मी त्येवारूपवान शिपया भूतव्यवसाय. ज्ञानस्य प्रदर्शितपरामर्शजन्यरूप न प्रत्यक्ष लिल्यमिनिलयः चिमणातातिरदाया विलक्षणा माया: कालाम्य न प्रत्यक्ष किन्त्वनमानल्यमवत्पचं धर्मविद गिद्धया मिचिदा पमिद्धिः । अन ख 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति प्रतिनासन्न्यासो-पि परम्य दमदरः । न च एतदोषापाकरणार नावोगगुरु: पहनासो वा नत्याहाट्यं कर्तुं समर्थः, तेन परदे कम्यवान युगमान ।
ननु निक्तनिश्चयकायंतावच्छेदक विधया एनदत्तरजानवरया युपगन्तव्यत्यम, सङ्काचे गान भागात । ततश्च न प्रदिशामन्न्यामप्रसङ्गा न वा मनसो निश्चिरिति नव्यचार्गकदाकामपाकतुंमपदानि . न चेति । एतदुत्तरज्ञानत्वमेव न तु पटनगनुमिनित्वं, नज्जन्यनावच्छेदकं = प्रामापदग्रहशन्नाशनिश्चयनिटकारनानिम्पितकायतावच्छेदकम भापेक्षाबुद्धयात्मकपरामर्शद्वितीय क्षणात्पन्ननदनात्मकानगिनिनग्रहाय कल्पान्जरमाह तदन्यवाहितोनगेत्पनिकल्लमय वा संस्कारच्यावृत्तं तथा = ताददानिश्चयकार्यतावच्छेदकम । अप्रामाण्यग्रहशन्यादानश्यं विनापि तथाविधसंस्कार त्पादन व्यतिकामिनवारणाय संस्कारव्यानमित्युक्तम् । ततश्च प्रमाणान्त गानापनेन न निझामन्यास इति नूतननास्तिकवन ईकुर्वतां जयाम्किदशीयानामा शयः ।
नबंधमपि यदानागाण्यग्रहश्न्यनादानिश्रवा नास्ति तदापि गृहीताप्रामाण्यकएसमशीतकदा व्यवहितोनरक्षणावच्छेदन तादशाहार्यपरामर्शात्रायव्ययहिनाक्षगावन्दन तवन्निदहारमृतिगंशविपर्ययात्पादन अनिरकन्यभिचारतादवस्यवेत्यागायन प्रकरणकारस्ननिराकुरुते गृहीताप्रामाण्यकाहार्यपरामर्श विशिष्टस्मृतिसंशयादिषु = मानानाधिकरणयसम्बन्धेन गृहाताप्रामाण्या
में नव्य नारिनकों की ओर से यह कहा जाय कि → 'हम पगमर्शजन्यज्ञान का तो स्वीकार करने ही हैं, मगर उसमें प्रत्यक्षभिन्न अनुमिनिन्च नहीं मानते हैं, न्याकि उममें कोई प्रमाण नही है । सब प्रमा प्रत्यक्षस्वरूप ही होती है, न कि अप्रत्यक्ष । अन्य प्रमाण की सिद्धि नब होती यदि प्रत्यक्ष प्रमा सेभेन प्रमा की सिद्धि हो, क्योंकि प्रमाणभेद = अतिरिक्तप्रमासिद्धि प्रमाभेद की सिद्धि के अधीन है। अनः परामर्शजन्य ज्ञान से मन की सिद्धि भी होगी गर्ने 'प्रत्यक्ष ही प्रमाण है' इस प्रतिज्ञा की भी सुरक्षा होगी' --
___E LAIMकार्याक अनुगिविस्त हो । - स्यावादी 4 न.व. । तो यह करन भी ठीक नहीं है। इसका कारण यह है कि 'वहिव्याप्यमवान पर्वनः' इत्याकारक परामर्श निश्चय का कार्यनाभपदक पतदुत्तर दहनानुमितिन्व है, क्योंकि 'पर्चत बहिं अनुमिनोमि' ऐमा अनुमितिविपयक अनुल्यमाप होता है। अतः प्रत्यक्ष सं विलक्षण प्रमा का स्वीकार आवश्यक ही है, जिसके फलस्वरूप प्रत्यक्ष प्रमाण से भिन्न अनुमान प्रमाण की सिद्धि अनिवार्य होगा, क्योकि प्रभाट प्रमाणभेद का माधक है। यहां बचाव के लिए यह बक्तव्य भी कि -> 'नादृश पगमर्शनिश्रय का कार्यता अवशंदक पलदत्तग्नहनानुमितित्व नहीं किन्नु गतदनरज्ञानत्व ही है अथवा संस्कारज्यावृत्त एतदन्यहिनोनगत्पत्तिकत्व को ही उसका कार्यतावच्दक माना जा सकता है। संस्कार की प्रस्तुत पगमर्श के बिना भी उत्पनि हो मकती है। अत: 'मंकार में न रहनेवाला' मा एतदन्यहितांत्तरोत्पत्तिकन्च का विशेषण लगाया गया है। ऐसा