Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 125
________________ * नास्तिकनये मनमागसम्भ ६-७ ज्ञानमानसमपि दुरभ्युपगमं, मनसोऽनुमानापलापेऽभ्युपगन्तुमशक्यत्वात, अन्यथा 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति प्रतिज्ञासन्यासात् । 'परामर्शजन्यज्ञानाभ्युपगमेऽपि तत्रानुमितित्वे नायलता किच मैत्रीयचक्ष संयोगादितो यदा मैनात्मनि चास्यानिक समनयनात्यने नद चत्रागर कथमवच्छेदकनया नमान्य द्यते ? न बावच्छेदकतासम्बन्धेन तदात्मसमवेतनानं प्रतिन-मन:मंयोगस्यापि तत्पन्न तदनिः मंत्रीगमन संयोगम्य चत्रझारीरेऽसत्त्वादिति वाच्यम, यता झनत्वावन्छिन्नोत्पना चैत्रायमनंगयांगरूपविशपसामग्राम नगगंगयात्मकसामान्यसामगृया अपि नियामकत्वात्. नस्याश्च तदनी चैत्रशरीर सत्त्वादकतापनिढुंचाँरच । तस्मात नन्नुरुषायचा पयायोगदजन्यनारच्छंद कोटी चक्षुपायो तनदात्मसमनत्ववत तच्चरीराबन्लिन्नाचमपि निदवं. नथा च झगरहेनुतं यस्तिकम् । अथ चक्ष:संयोगजन्यतावच्छेदककोटी तनदात्मनमवंतत्ववनच्छगनवाभिमनिया गन्मभंटेन सदन न तदेततावाहल्यमिति अशिषितनच:मयंगत्वादिना तुता काप्यते, था च विषयनिष्ट उपनामनवायया कार्यकारणासत्तित्व तथाःत्मनिष्ठसमवायरवजनकादृष्टसम्बाययोः शरीरनिष्ठावन्छदकत्वस्य जनकादृष्टावकत्वयापि नधान्य घयत । अना माऽतिप्रसङ्ग इति चेत् ? तथापि शरारंडतुत्वकिश्चित्तर मेय, शरीराने स्वजनका दृष्ट पदकत्वसम्बन्धन नाशकारविर - हादेवातिप्रसङ्गनिरासात् । यदि स्वजनकादृष्टावच्छेदकन्तस्य जनकतापटिलत्वना तिनुशरतया नपक्ष्य रघरमाणिसंगकतमन:संयोगसन्बन्धनंग चक्षुःसंयोगादह नुनः स्वीक्रियते नदापि नागरस्य स्पन्चंहतुनाकल्पामपन्य शरीरमनायगंगनिजातिविशेषं स्वीकृत्य ने मार तस्य सम्बन्धता याकरणीया, तादासंयोगन्य दारी वसननतिनसगः । न च नादापयोगम्य शर्गर डब मनस्याप सत्त्वात्तत्रा:यच्छद कनया ज्ञानापत्रिचारंनि दाराम्हंतुनाकापनमाश्यकमबनि बान्यम्, वात्मकापाधिारस्कारण नागरहननाकल्पनमपश्य नादशापनिवारणाम संयोगसम्बन्धन मनस्चनादपवच्छिन्नस्पधाऽवच्छंदकत्यसम्बन्धन ज्ञान प्रति हेतुनाया: कल्पाय. तुमुचितन्यादिन्यपि बदन्ति । यस्ततस्तु मन आदिकल्पननेय नन्मने न मान्छने । नयाहि ज्ञानाः प्रत्यक्षं तारन म मान्मंब । नम न चानुपादिकं, चहरायव्यापापि जायमानत्वात् । नच मानसमंव तत. त्या ननय एवाभ्यपग-नमशक्यन्यादित्याश्यनाह . ज्ञानमानस = ज्ञानादिगोचरगानसप्रत्यक्षं अपि चार्वाकमने दुग्भ्युपगमम, मनमाऽनुमानारलापऽभ्युपगन्तुमत्राक्यत्वात्, अन्यथा = अनुमानस्य मागान्तरवस्वीकारे, 'प्रत्यक्षमेव प्रमाणमिति प्रतिज्ञासन्न्यासान् । ननु परामर्शस्य प्रमाणान्तरत्वमा न मन्यागह, नजमन्यामनुमिती मानसन्वर व याकारदिन्ति सुखवाक्षात्कार: सकरणकल्याविनाभाविजन्यसाक्षात्कारलबानि नि राम्दाग्मिनस: मिद्धिनिर पायत्याशयन लार्चाकः शङ्कत - परामर्श| जन्यज्ञानाभ्युपगमेऽपि तत्र = परामर्गजन्यज्ञानं, अनुमितित्व = प्रत्यक्षविलक्षणानुम्मित्त्वग प्रत्यक्षल्यानानामनिवसन्त बालक तो अभी ही पैदा हुआ है । अत: मानना चाहिए कि बालक में वर्तमान इच्छा पूर्वभीयाच्छापूर्वक है । पर्व भव की प्रथम पन्छा भी उसके अगले भव की इनाहापूर्वक सिद्ध होती है। इस तरह अगले. अनन्न भव सिद्ध होने से आत्मा | नित्य सिद्ध होती है, जो अनंत शरीर में क्रमदाः रहनेवाली एक ही है। इस तरह एक, नित्य, अनुभव करनेवाली एवं स्मृति करनेवादी जो चीज है वही भगदान आत्मा है। माना प्रत्यक्ष जयनासोकमत गुगनिता ना-मा. । नयनास्तिकों ने पूर्व में जो कहा था कि --> अपने ज्ञान आदि का बाचुप नहीं होने पर भी मानम प्रत्यक्ष = मन के द्वाग तत्साक्षात्कार मुमकिन है' (पृम ) <- यह भी उनक मतानुमार नामुमकिन है, क्योंकि प्रत्यक्षानिग्विन अनुमान प्रमाण का अपलाप करन पर ना मन की दी मिडि नहीं हो मकंग । अनुमिनि का मानम प्रत्यक्ष में अन्नभांव तब हो सकता है यदि पहले मन की सिद्धि हो जाय । मगर मन की सिद्धि ही अमिति र अवलम्बिन है। अत: अमिनि को मानम प्रत्यक्ष मानने पर अन्योन्याश्रय दाप प्रसस्त होगा । यदि अनमिति को प्रत्यक्षविलमण प्रमा मान कर अतिरिक्त प्रमा के अनुगंध में अनिरिक्त अनुमान प्रमण का स्वीकार किया जाय नर नो 'प्रत्यक्ष प्रमाण है' इस बार्गकप्रतिना का त्याग हो जायेगा । अत: ज्ञानादि का मानम प्रत्यक्ष नन्य नारितकों के मतानुसार भी नामुमकिन है। पदि इसके बचाव

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