Book Title: Syadvadarahasya Part 3
Author(s): Yashovijay Upadhyay, 
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 128
________________ गा144:1 ६६: मध्यमम्पादादरहस्य खण्डः ३ . का ११ अनुर्गितकापाताया भिचारापानम * शामायं दोष इति चलिम्, न ह्यप्रामाण्यवाहाभावविशिष्टधूमपरामव्यवहितोत्तरोत्यत्तिकत्वं अव्यवहितोत्तरत्वसम्बन्धेनाऽग्रामाण्यगृहविशिष्टान्यधूमपरामर्शाव्यवहितोत्तरोत्पत्तिकत्वं वा तथा, यत्र धूमपरामर्शब्दितीयक्षणे धूमज्ञानाप्रामाण्यावमाही आलोकपरामर्श: तदुत्तरानुमितो व्यभिचारात्, यत्र च पूर्व धूमपरामर्शनिष्लेदत्वर्मितावच्छेदकळाप्रामाण्यग्रहस्ततश्च धूमपरा -* जयलता हैमापणा नुगमः कर्तुं शक्यने । अनी नायं गौरवलक्षणों दोषः । सामानाधिकरणयविशिष्टत्यनुक्ती चैत्रन्या ग्रामाण्यग्नहसच्चे मैत्ररपाऽपि 'बहिन्याप्यधूमवान् पर्वत उतिपणाशंदनानुमितिनं स्यात् । अतस्नत्रिदशः कृतः । ततो नंतदभ्यहितोनर - दहनामतित्वस्य कार्यनाचन्दकानि नधाननास्तिकाभिप्राय:। प्रकरणकारों व्यभिचारोगानन नमपहस्तयति . न ही नि तथत्यनेनान्यनि । प्रामाण्यगृहाभावविशिएधूमपरामऽिव्यवहितात्तर्गत्पनिकत्वं - अच्या हितांत्तरत्वसंगण अप्रामाण्यगृहाभाविशिष्टो यो धूमपरामर्शः तदव्यवहितानरकालान्छेदन जायमानल्यम् । अत्यन्ताभावापेक्षयान्यांन्याभावस्य लपशरकत्वाकल्यान्तरमाह - अव्यवहितं.त्तरत्वसम्बन्धेन अप्रामाण्यग्रहविशिशन्यधूमपरामर्शाच्यवाहितालगत्पनिकलं = निरुक्तसम्बन्धनाप्रामाण्यज्ञानविशिष्टी य: तदन्यस्य धूमलिङ्गकपरामशंग्याव्ययहितीनरकालाबच्छंदन जायमानत्वं वा तथा = एतत्कार्यतावच्छेदकं सम्भवति । नदसम्भवमेव भावनि . पत्र म्धलं प्रथम. आगे धूमपरामर्शी जातः धूमपरामर्श द्वितीयक्षणे = भमपरामर्शम्य द्वितीयक्षणावच्छंदन धूमज्ञानाप्रामाण्याचगा कपगमर्शनिष्ठा प्रामाण्यगोचर: आलोकपरामर्शः = "पर्वती दहनन्यायालोकवान न न दहनन्यायधूमवानि त्याकारकः सञ्जात: | तदनगनुमिती = नदव्यवहिनीनरक्षगावच्छेदन = तृतीयक्षणाबच्छदन अनुमिता = दहनामिनी जायमानायां व्यभिचारात् = त्यतिर कन्यभिचारान् । धूमपगम्झनिठानामाश्यगोचरज्ञानस्य अमाग़मनिन्नरजातल्यन धृनपरामर्दास्य ग्यान्यहितानगन्वसम्बन्धना प्रामाण्यग्रहविशिष्टत्या नावः । नबालीकपरामर्श एव ग्वात्यहितीसग्त्यसम्बन्धना ग्रामाण्यग्रहविशिष्टी धूमपरामर्शग्नु स्वाज्यबहिनोत्तरत्वसम्बन्धेनाध्यामान्यगृहाभाववान । ततश्चालं कलिङ्गकपरामर्शजन्यानुमिता म्वाव्यवहितोनरत्वसम्बन्धनाघ्रामाण्यग्रहाभावविशिष्टी यो धूमपरामर्शदन्यरहितांत्तरक्षणावच्छंदन जायमानत्वस्व यदा स्वाज्यवहितंचरत्वसम्बन्धेना प्रामाण्यग्रहविशिष्टी व आलोकपरामर्शस्नदन्यधूमपरानज्ञांच्यवहितांनरकलावन्दन जायमानत्वस्य सत्त्वात् व्यतिरकन्यभिचारस्य टुरित्वम् । न हि, तस्या धूमलिङ्गकापरामर्शजन्यत्वं फिन्त्वालोकलिङ्गकपरामर्शजन्यत्वम् । कार्यताब छंदकं नु नत्रालोकलिङ्गका परामस्य नास्ति किन्तु, धूमगरामस्पिवाऽस्तान्पना ब्यभिचारः । ननु लिङ्गकानमितिः न शकपरामर्शनिष्ठत्या ग्रामायग्रहाभायस्य निवविवक्षणान्न दोष इत्यादाकायां पान्नरमाह यत्र स्थल च पूर्व = पूर्वक्षागायलंदन धूमपरामर्शनिदिन्वधर्मितावच्छेदककाप्रामाण्यग्रहः = 'रयं धूमलिजकापरामशों; प्रामाण्यवानि निस्वरूपरा:ग्रामात्यप्रकारकनिश्चयः ततः - तदन-तरक्षणाचच्छेदनाऽन्यः प्रमाणीभूदा धूमपरामर्शः = धूमपरामर्शान्तरं, नहीं है - तो यह भी अधिक है। इसका काग्ग यह है कि अप्रामाण्यग्रहाभापविशिष्टधूमपगमाव्यवहितानगत्पत्तिकत्व अर्थात जिसमें अप्रामाण्य का भान नहीं हुआ है ऐसे धूमपगमर्ग के अव्यवहितानरक्षण में जायमानत्य धर्म या तो अव्यवहितोत्तरत्व. सम्बन्ध में. जो अप्रामाण्यगृहविशिघ्र है, उससे भिन्न से धूमपरामर्श के अव्यवहितानरक्षण में नायमानत धर्म भी भापमे प्रदर्शित गति के अनुगार स्वनिम् पिताप्रामाण्यनिष्ठप्रवाग्नानिमपिनमामानाधिकरण्याचशिष्टविशेप्यतासम्बन्ध में ज्ञानाभाव में विशिष्ट या घटित बनने पर भी पगमकायंतावनेदक नहीं बन सकता है। इसका कारण यह है कि जब प्रथम क्षण में धमपगमा उत्पन्न होना है। उसकी द्वितीय क्षण में सो ग्रामाण्य का अवगाहन करता हुआ आनकलेगय पगमग होता है और तृतीय क्षण में पति की अनमिन होती है। यह सर्वमान्य है या उभयपक्षमान्य है । मगर उसमें अप्रामाण्यानहाभार-विशिष्ट धूमपगभाग्यव-हितोत्तरजायमानत्व या अन्यबहिनीलगत्वसम्बन्ध म अपामाण्यगृहविशिष्भिन्न भूमपगनांव्यहिनानगेनिकल धर्म भी रहता है, क्योंकि वह अव्याहतानात्व सम्बन्ल से अपामाण्यज्ञानाभाव के आश्रय से धुमपरामर्श के अन्याहनांना काल में भायमान है। मतलब कि उममें नयनाम्निक प्रदर्शिन कार्यताअचछेदक धर्म रहना है । अत: व्यभिचार का प्रमद उपस्थित होता है। पत्रं जय पहले धूमपगमय में इदन्नधर्मिनाभवनोदकक गंगा अप्रामाण्यज्ञान यानी 'अयं धूमपगमशेऽपामाण्यवान' गमा ज्ञान होने के बाद उमझी दृमरी भण में पुनः 'हिन्यायधूमपान पर्वत' इत्याकारक धूमनिषक प्रम. पगमर्श हुआ ही वहाँ नृतीय क्षण में दहनानमिति होनी है। मगर इस अनुमिनि में मन्यनास्तिकप्रदर्शित कार्यनाभवदक धर्म रहना नहीं है, कयोकि प्रथम क्षण में अप्रामाण्य का मपरामर्श में अवगाहन हो जान से द्वितीय क्षण में अव्यवहितानात्य सम्बन्ध से

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