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१४६ मध्यमस्याहादरतम्य स्खपन: ३ . का.
निकाय नियम * सनिकृष्ट-विप्रकृष्टत्वाभ्यामेव पराऽपरव्यवहारोत्पत्तौ परत्वाऽपरत्वयोपुणत्वे मानाभावात् । आकाशोऽपि नातिरित्यते, लिमितपवतस्यैव शब्दसमवायिकारणत्वात् । अत एव कर्ण
- नायता - स्यादेव, भूतानां मूत्यत तयाश्च नूतन्यात् । वमन पृथिव्यादिचतुष्टयमंय नयमिनिप्रतिज्ञासंन्यायस्य दुनिंबारत्वमित्यादाकायामाहुः - दिककालयोच मानाभाव इति । न च देशिककालिकपरत्वापरत्वा-साधारणकाग्मत्वाश्रयविधया नया: सिद्धारति वनव्यम्, दिक्कतकालिकविशेषणताभ्यां = दैनिककालकत विशेषणना-यां जन्यमुर्ताभ्यामव = मर्नेष जन्येन च नकार्यसम्भवात - क्रमेण दैशिककारिकपरवापरतासम्भवत् । नयायिकाद्यभिमतदाशिककालिकापणतयाः जन्यमूर्नम्परूपत्वाभ्युपगमी दिवकालकाय पदोपपत तिरिदिककालकल्पनाया न्याय्यत्वम्, देगिककालिकपरल्यापरवयोगर्न चान्पन्नत्वेन ना देशकालमासवारणकारणत्वे मानाभावात. अन्यथा मूर्दिी उत्पन्न कार्यान्तर :पि तम्या असाधारण कारणत्वा पत्नः । एतेन ज्येष्ठ पत्यप्रत्ययः कनिष्ठपरत्वप्रत्ययः स च एरल्यापरत्वगविशेषाधीन; परवापरत्वं च सा समयकारण भावकार्यन्यात अमगायिका तपी: कालगणसंयोग पति परवापरत्वयारगमवायिकारणसंयोगाश्रयतया कामिनि । मु.जा...दि. ३७) मुकावलीदिनकरीयवचनं प्रतिपिद्धम, परत्वात्ययो गल्लाभावान । नदेशपिकुन्नि - सनिकृष्टविप्रकृष्टत्वाभ्यामंव युक्रमेण परापरव्यवहारोत्पत्तो = परवापरत्वप्रकारचीच्यवहारत्पादमम्भव परवापरत्वयो: नवाधिकाभिमनयां: गणत्व मानाभावादिति । अल्पसंयोगान्तस्तित्वलक्षणसनिकृष्टत्वविषयकापेक्षादिविंशविण्यत्तस्यैवा-परवपदार्थत्वं बहतरस्यांगान्तरितत्वलक्षणचित्रकृष्टत्वविषयकापेक्षाधुद्धिविगेपबिगदत्वस्य व परत्वाधान्यत्वमिति ने नयांतिरिक्तगुणत्वकल्पनाया न्याम्यत्वम । ढ़ा नहुनरतपनगंयोगान्तरिती पनत्वं कालिकारत्वं नदल्पतरम योगान्तरितात्पन्नत्यमंय कालिकापनत्वं, बहनदासंयोगान्न रतलमेर दैशिकपरत्वाल्पतरस्थोगान्तरितत्यमेव तदपरत्वमस्तु लाधवन न त तमानजन्यातिरिकगणरूपं. नागापेक्षाबुजिन्यक्ति भटनाऽनन्तपरत्वादिकल्पन नन्सामग्रंकल्पन नत्रागकलाने चातिगखादित्यायः प्रतिभानि ।।
__नथापि शन्दसमचाविकारान्वनाकादाम्य भृतचनुकानि काद भूतचनुष्टयमं च तचनिनि प्रतिज्ञासन्न्या इत्याझ कायामाह आकाशोऽपि भूतचतुष्कान नातिरिच्यते निमित्तपवनस्पैर = शब्दनिमिनकारणत्वेन कलमस्य पवनयंत्र, शब्दसमवायिका. रणत्वादिनि । न चैवं कर्णशकानिचरावयित्राकाइस्य श्रोत्रत्वं न स्यादिति वाच्यम्, इष्टापत्त: । अन एव = पवनयंत्र
से अतिरिक्त हैं <- इसलिये निरस्त हो जाता है कि अतिरिक्त दिशा एवं काल में कोई प्रमाण ही नहीं है। यहाँ यह दांका हो कि ---> "दिशा एवं काल को न मानने पर दैशिकशिंपणता एवं कालिकविशंपणना से जो परत्व, अपानव आदि व्यवहार होता है वह नहीं हो सकंगा' <-- तो यह इसलिए निराधार हो जाती है कि दिककृत = दैशिक विपणना एवं कालकृत = कारिक दिशंपणता दिशा एवं कालस्वरूप न हो कर क्रमशः मुर्तपदाधस्वरूप एवं जन्यपदार्थरूप ही है। जग मीनांगकमत में अभाव अधिकरणस्वरूप होता है ठीक वैसे ही दैशिकविदोषणता एवं कालिकविशेषणता को भी मूतंपदार्थस्वरूप पर जन्यस्वरूप मानी जा सकती है 1 पवमपि दिया और काल का परत्व - अपरत्व आदि कार्य उत्पन्न हो सकता है। अतः उसके अनुगंध से दिशा और काल को अतिग्नि मानने की आत्रयकता नहीं है । वास्तविक विचार किया जाय तो परत्व और अपरत्व भी गुणस्वरूप नहीं है किन्तु ननन पदार्थस्वरूप ही है । जिस पदार्थ की अपेक्षा जे सत्रिकृष्ट होता है उसमें अपरत्व का च्यवहार एवं जिस पदार्थ की अपेक्षा जो ग्रिए = दर होता है उसमें पात्ल का व्यवहार हो सकता है। अत: पगपरत्यव्यवहार के अनुरोध से परत्व गर्व अपरत्व को अतिरिक्त गुणस्वरूप नहीं माना जा सकता। अतः परत्व एवं अपगत्व के ज्ञान एवं व्यवहार के उपपादनार्थ अतिरित दिशा एवं कान का स्वीकार अनावश्यक है । अत: 'भूनचतुष्क से भिन्न कोई नत्व नहीं है'- यह गिद्धान्न सुरक्षित रहता है।
SEPTER hti यही है - जा. नासिThe आका.। यदि कहा जाय कि → 'भूनचनक से अनिरिक पञ्चम आकाश नामक भुन का स्वीकार तो चार्गक का करना ही पडेगा, क्योंकि आकाश के अस्वीकार में शब्द गण की उत्पनि ही नहीं हो संकगी। अतः शन्दरामयापिकरणविधया आकाश का स्वीकार करना पडंगा' <-ता यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि निमित्तभुन पवन ही शब्द का समायिकरण हो सकता है। मतलय कि नायिकादि आकाश को शन्ट का समचायिकारण मान कर भी पवन को शन्द्र का निमिन कारण मानते हैं तब उचित तो यही है कि कला पवन को ही शब्द का समयायिकारण माना जाय । इस कल्पना में दमा लाभ