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* पार्थिवदह कलंदना दरोणाधिकता * ताना तथापि भूतचतुष्कप्रकृतित्वेन शरीरस्य पृथिव्यादिभिनत्वात्पृथिव्यादिचतुष्टयमेव तत्त्वमिति प्रतिज्ञासन्न्यास इति चेत् ? ता, स्याश्रयसमवेतत्वसम्बन्धेन गन्धाभावस्य गन्धं प्रति प्रतिबन्धकत्वेन तस्य भूतचतुष्कप्रकृतित्वाऽयोगात, पार्थिवशरीरे जलादिधर्मस्यौपाधिकत्वात् । दिक्कालयोश्च मानाभाव; दिक्कृत-कालिकविशेषणताभ्यां जन्यमूर्ताभ्यामेव तत्कार्यसम्भवात् । -* गयाता
- रुपयदभिन्नो हाम' त्यवमनुभवचलानुपगन्तव्यम, स्वरसचाहिस्वानुभवबलायानस्या नभ्युपगममात्रेण प्रतिक्षपाड्योगात् । आत्मनश्वास्तिकमते नीरूपत्वन नवानानुभवोपपत्तिः गम्या । आदिपदेन 'अहं गुरु:' इत्यादिसमानाधिकरणप्रतातहणम् । किञ्च शरीरात्मवादिगते उद्धृतरूपकार्यतावच्छेदकं अन्य प्रत्यक्षत्वमेव न वात्मतरत्वनपि तत्र निविदात इति लघवाग ।
ननु नथापि = आत्मनः गरी रातिरिक्तचे :पि, भूनचतुष्कप्रकृतिरन पृधिन्यप्त जादायुलक्षणभूतचतुष्कापादयत्न. शरीरस्य पृथिव्यादिभिन्नत्वान, प्रत्येकमधिनिगनात, विभिन्नभूनचतुष्काभिन्नत्स्य च युक्तिविरुद्धत्यात शरीरस्य भूतचतुष्टयाति - रिक्तत्वमंगपयं, तथा च 'पृधिच्यादिचतुष्टयमेव तत्त्वं' इतिप्रतिज्ञासंन्यासः भूतन्चतुष्टयानिरिक्तदागरतचापगादिति चेन् : न, स्वाश्रयममवंतत्वसम्बन्धन गन्धाभावस्य समचायेन गन्धं प्रति प्रतिवन्धकत्वन नरादिवारीरस्य भुतचनुप्कममचायिकारणले गन्धाभावज्जलादिसमवेतत्वन स्वाशयममवतत्वसम्बन्धन गन्धाभावबच्वान्मनुष्यादिव र समयान्येन गन्धोत्पाद: न स्यात् । नन निर्गन्धत्वापातेन तस्य = शरीरस्य भूतचतुष्कप्रकृनिवाऽयोगात् = पृथिव्यादिचतुष्टयसमचाविकारगफत्वा सम्भवान, धिन्यादिनतुष्कान्यतमसमनायिकारणकत्वमंत्र । न च विनिगमनाविरह बद्भावनीयः, यस्य प्राधान्यं तस्यैत्र दारीरोपादानकाराणत्वापगमात यथा मनुष्यशरीर पधिर्वातत्त्वाय राधान्यान पार्थिवत्दम । न चैवं मनष्यशरीर म्लंदनाद्यनपत्तिः , नस्य जलादिधमत्वादिति वान्यम्, पार्थिवशरीरे जलादिधर्मस्य औपाधिकत्वादिति । 'पार्धिवारीरांगष्टम्भकस्य जलानलादिसंयोगस्य सन्चात सर्वदा मनुष्यदेह लंदनीयाद्युपलिब्धिरिति न भूतचत कमात्र तत्त्वमि ति प्रनिजात्यागदपङ्ग इनि तात्पर्यन ।
ननु मास्तु शात्मनः शरीरातिरिक्ततं दारीरस्य वा भूतचतुष्टयन्यतिरिक्तत्वं नाघि दिन काट्योग्नु भूनचतुष्टयातिक यह है कि शरीर को ही आत्मा मानने में उपर्युक्त प्रत्यासत्तिलाघप होता है जब कि शरीरातिरिक्त आत्मा का स्वीकार करने में प्रत्यक्षकारणतावच्दक प्रत्यासत्ति में गौरव होता है। दूसरी बात पह है कि मैं दयाम हैं। मैं गौर है। इत्यादि शरीर के समानाधिकरण भी प्रीति होती है जिससे शरीर और आत्मा में अभेद सिद्ध होता है, क्योंकि आस्तिक की अभिमत आन्मा तो अरूपी होने से श्याम, अंत आदि रूप से शून्य होती है।
ननु त.। -> "शरीर को आत्मा मानने पर भी यह समस्या तो अपरिहार्य रहगी । वह यह कि पृथ्वी आदि चार भूत शरीर के उपादान कारण हैं। उनमें से किसी एक में शरीर का अन्तर्भाव मानने में कोई विनिगमना नहीं है और एक ही शरीर का परस्पर भिन्न चार भूतों से अभंद युति आदि से विरुद्ध होने से चारों में शरीर का अन्तर्भाव ही नहीं सकता । अतः शरीर भी पृथ्वी आदि चार भूना की भाँति एक स्वतन्त्र तत्त्व हो जायगा । तब तो 'पृथ्वी आदि चार भून ही तत्व हैं, उनसं अतिरिक्त इस जगत में कुछ भी नहीं है'. इस चार्वाकसिद्धान्त का भङ्ग हो जायेगा" <- इस शका का सीधा समाधान यही है कि स्वाश्रयसमवनत्वसम्बन्ध ब गन्धादि का अभाव समवाय सम्बन्ध से गन्ध की उत्पत्ति का प्रनिवन्धक होने से यदि पृथ्वी आदि चारों भूतों से अतिरिक्त पारीर की उत्पनि मानी जायगी तो जलादि में, जो अतिरिक दार्गर का अवयव बनता है, रहने वाला गन्धाभाव स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से शरीर में रहने से शरीर में समवाय सम्बन्ध से गन्ध की उत्पत्ति का प्रतिवन्ध कर देगा । फलनः नारीर निर्गन्ध हो जायेगा । इसलिए पृथ्वी आदि चारों भूतों को शरीर का उपादान कारण नहीं माना जा सकना । -→ 'मनुष्य आदि के शरीर को जलाप्रिवृतिक न मानने पर उममें जलादि के भीनापन आदि धर्म की प्रनीति नहीं हो सकेगी' - इम शंका का समाधान यह है कि मनुष्यादि के पार्थिव शरीर में जलादि का उपटम्भक = धारक मंयोग मदेव रहने से जलादिस्वरूप उपाधि के कारण उममें जलादि धर्म की आफाधिक प्रतीति होने में कोई बाधा हो गकती नहीं है।
दिशा एतं काल में कोई प्रमाण नहीं है .. दिकः। भूनचतुष्क से अतिरिक्त कोई तत्व नहीं है उसके खिलाफ यह भी वक्तव्य कि -> "दिशा एवं काल भुतचनुष्य