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* ज्ञानाचा महत
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इत्थमेव रसादीनामचाक्षुषाऽस्पार्शनत्वनिर्वाहात् । अस्तु वा ज्ञानादीनां चक्षुराद्ययोग्यत्वमेव । न चैवं स्वज्ञानादीनामपि प्रत्यक्षं न स्यादिति वाच्यम्, तेषामचाक्षुषत्वेऽपि मनसा प्रत्यक्षसम्भवात् ।
* नगला बै
प्रतिबन्धकत्वकल्पनादिति । अयं भावः विषयतासम्बन्धेन चाक्षुरं प्रति तादात्म्येन रूपान्यत्रैजात्यमतः प्रतिबन्धकलं विनास स्पर्शनं प्रति च तादात्म्येन स्पन्पवत्त्यमतः प्रतिबन्धकत्वमिति प्रतिवध्य- प्रतिबन्धकभावोऽयुपगम्यते नवीन चार्वाकगतं । ज्ञानादिषु शरीरसमवेतेषु निर्वजात्यस्येव रूपान्यत्वस्य सतेन चाक्षुषप्रतिबन्धकतं शान्त्यस्य सत्त्वेन च पार्शनप्रतवन्ध कत्वमिति तत्र स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन चक्षुः रपइनिन्द्रियसच्वंपिनविषयतया चाक्षुपस्पार्शनात्पत्तिः सम्भवति, प्रतिबन्धक सच्चदशायां कार्यादाऽगात् । वैजात्यस्य स रूपान्यत्वस्याद्विपयतया चाक्षुषं निगवाधम, विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टप्रतिबन्धका भावसत्त्वात् । एवं रूपर्शे शरीरसमवेत बैजात्यस्य सवंऽपि स्पर्शवित्वस्य विरहेण विशेषणाभावप्रयुक्तविशिष्टप्रतिबन्धकाभावसन्यात् स्वसंयुक्तसमवेतत्वसम्बन्धेन स्पन्द्रियवदशायां वियतया स्पार्शनमपि अनपायम् इत्थमेव प्रदर्शिनप्रतिबध्य प्रतिबन्धक भावस्वीकारे एवं रसादीनामचाक्षुपारपार्शनन्वनिर्वाहात् । रसादिषु वैजात्यस्येव रूपान्यत्वस्यान्विस्व नायक विषयतया चाक्षुस्पाइनि सम्भवतः । प्रकृत प्रतिबध्य प्रतिबन्धकमात्रानङ्गीकारे तु तत्र स्वमंयुक्तसमवेतत्वसंसर्गेण चक्षुरूपदर्शनयोः सचन विषयतया वापराने यशदावि स्यातामच । रसायचाक्षुषा स्पर्शनत्वानुरोधेनाऽवश्य कुलुप्तप्रतिबन्धकतचैव ज्ञानायचक्षुप्त्या स्पायनित्ये उपपद्यत इति न ज्ञानादः करीसम किञ्चिदाधकमस्तीति नूतननास्तिकाकूनम् ।
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ननु रूपरसादिषु वैजात्यमुपकल्प रूपान्यतद्वत्त्वादिना प्रतिबन्धकत्वकल्पनापेक्षया रसगन्धज्ञानादेव तादात्म्येन चाक्षुषादिप्रतिबन्धकत्वं कल्पनीयं यद्वा गुरुत्वादिवत् ज्ञानादेरेव चक्षुराद्ययोग्यत्वमभ्युपगन्तव्यं लाघवादित्यत आह अस्तु वा ज्ञानादीनां चक्षुराद्ययोग्यत्वमेवेति । चक्षुः स्पर्शनाद्ययोग्यत्वादेव न तेषां चाक्षुपस्पर्शनादिग्रम इत्याशयः ।
न च एवं = ज्ञानादीनां चक्षुराद्ययोग्यत्वं स्वज्ञानादीनां स्वशरीरसमवेत ज्ञानेच्छाकृत्यादीनां अपि प्रत्यक्षं 'अहं जानामि इच्छामीत्याद्याकारी मानससाक्षात्कारां न स्यादिति वाच्यम्, तेपां ज्ञानादीनां अचाक्षुपत्वेऽपि चक्षुराद्ययोग्यत्वेऽपि मनसा प्रत्यक्षसम्भवात् = मानससाक्षात्कारविषयत्वसम्भव बाभकविरहात् तन्मानसमन्पायमेव । न हि
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स्पर्श आदि के समान ज्ञान इच्छा आदि किन्तु इसमें कोई खौफ रखने की जरूरत जो रूप आदि की भाँति शरीर का धर्म है
प्रत्यक्ष होना चाहिए, क्योंकि ज्ञान, इच्छा आदि शरीर का धर्म होने पर रूप के साथ भी चक्षु एवं स्पर्शन इन्द्रिय का स्वसंयुक्तसमवेतत्व सम्बन्ध रहता है नहीं है, क्योंकि इसका सीधा ही समाधान यह दिया जा सकता है कि रस, ही, उसके बाप एवं स्पार्शन लीकिक साक्षात्कार को रोकने के लिए जो उपाय किया जायेगा उसीसे ज्ञानादि के चाक्षुष एवं स्पार्शन प्रत्यक्ष का परिहार हो जायेगा और यह उपाय यही है कि रूप, रस, गंध, स्पर्श, शब्द, ज्ञान, इच्छा आदि विशेष गुणों में एक जाति का स्वीकार कर के विपयता सम्बन्ध से चाक्षुप के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से रूपान्यतज्ज्ञातिमान् को प्रतिबन्धक मान लिया जाय। इसी प्रकार विषयतासम्बन्ध से स्पार्शनप्रत्यक्ष के प्रति भी स्पर्शान्यतजातिमान् को तादात्म्य सम्बन्ध से प्रतिबन्धक मान लिया जाय । ऐसा प्रतिबध्य प्रतिबन्धकभाव मान लेने पर ज्ञान, इच्छा आदि के बाप या स्पार्शन प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं आयेगी, क्योंकि ज्ञानादि में उक्त जातिविशेष रहने से ज्ञानादि भी रूपान्यतज्जानिमान् एवं स्पर्शान्यजातिमान् हो जायेगा। तादात्म्यसम्बन्ध से इस तरह ज्ञानादि ही रसादि की भाँति चाप एवं स्पार्शन साक्षात्कार का प्रतिबन्धक हो जाने से उनमें विपयतासम्बन्ध से चाक्षुष या स्पार्शन की उत्पत्ति की आपत्ति नहीं आयेगी । मतलब कि ज्ञानादि को शरीरधर्म मानने पर भी उक्त प्रतिवध्य-प्रतिबन्धकभाव को स्वीकार कर के उनके बाप एवं स्पार्शन प्रत्यक्ष का निवारण हो सकता है । काज्ञानादि चक्षुआदि के अयोग्य हैं- जत्यनास्तिक क
अस्तु । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि ज्ञानादि शरीरधर्म होने पर भी रस, गन्ध, आदि की भाँति चक्षु, स्पर्शन आदि इन्द्रिय के ग्रहणयोग्य हैं । अतएव रसादि की भाँति ज्ञानादि का चाक्षुष या स्पार्शन प्रत्यक्ष नहीं हो सकता है । अपने अविषय में इन्द्रिय की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है ? यहाँ यह शङ्का नहीं करनी चाहिए कि ज्ञान, इच्छा, आदि को वक्षु आदि इन्द्रिय के अयोग्य मानने पर तो गुरुत्व आदि की भाँति उनका भी प्रत्यक्ष ही नहीं होगा तब तो परकीय ज्ञानादि की भाँति स्वकीय ज्ञान आदि का भी प्रत्यक्ष नहीं होगा। इस परिस्थिति में लोकव्यवहार प्रवृत्ति आदि