________________
११ मध्यमरयाद्वादर बदः ३ . अवययनहाकगतिनातिकमते *
मन:सिन्दादेव किं मानं ? इति चेत् ? अनुमानमेव । न चानुमानोपगमेऽपसिन्दान्तः, ॥ अनुमितित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वाऽभ्युपगमात, प्रत्यक्षातिरिक्तप्रमाणाभ्युपगम एवाऽपसिन्दान्त
- जरालता *व तेषां चक्षुराप्रपोग्गत्वमिच मनोयोग्यत्त्वं स्वाकुर्मः । न च स्यात्मन इन परात्मनोऽपि मानसप्रत्यक्षप्रगङ्गा दुर्वार;, न चष्टापनिः कर्तुं युज्यते, परान्मएतलाक्षे तद्गतनानादेगि मानसत्त्वा रातात, ज्ञानादिकमने नन्मानसस्या:सम्भवादिनि वाच्यम्, तत्तदात्मभानसे तत्तदात्मत्वेन तुल्यो पगमात् । परेप तु अरच्छेदकनया ल्नदात्ममानसत्वावच्छिन्नं प्रति तादात्म्येन ननन्छरीरस्य कारण आहोस्विन समायेन तत्तदात्ममानसत्यापच्छिक प्रति समवायन विजातीयतनन्ननःसंयोगस्य कारणत्वं ? इत्यत्र निगमनाविरहान । न चैवं बालशरीरानुभूतस्य युबा स्मरणप्रयङ्गः, बालशरीरस्य विनष्टत्वादिति शमनीयम्, पूर्वयटनाशानन्न खण्ड्यटे कारणगुणप्रक्रमेण तद्गुण्समचत पूर्वशरिनाशोनरभुना दारीर पूर्दागरगुणसक्रमात् । न चैवमवयविज्ञानादावश्यबजानादिनुताकल्पने गौरवमिति वाच्यम्, 'कलमुखत्येन तस्या दांपत्तवान् । नास्तु बा बयी विजानायसंगागर्नब तदन्यथामिछः। तथा ५ शरीगन्नगंतरादपि शारीरत्वपटकाविजातीयसंयोगाधिशष्टाणुवृत्तिसंस्कारात मनसा नादृशम्मरणोपनिः।
ननु मनःसिद्धावेव किं मानं १ प्रत्यक्षेण तस्यात्मवत अनुपलब्धरिति चेत् ? नहि त अनुमानमेव मान कि न म्यान ? युगगन्नानाझामनी लादव नम नमान्मने पसिद्धान्नापि लब्धावकाशः स्यादेवन्या. अदायां नयनास्तिका आहः न च अनुमानोपगमेऽपसिद्धान्नः मावकाश:, मिनित्वस्य मानसत्वव्याप्यत्वाभ्युपगमान । मानसप्रत्यक्षविशेष एवानमितिज्ञानं, न तु परश्नः । प्रत्यक्षातिरिक्तप्रमाणाभ्युपगम एवापसिद्धान्तशङ्काबकाशान । शब्दनाजाविप्रनाणयोरवायांकाराःम्मन्मते. तन्मूलभूताप्ताना श्वासान् । अनुभवसिद्धस्त्वर्थी नाऽपहानुं शक्यः । आचालगोपालम धारणा- |
नादिनिनिरूपानमित्यनगीकार व्यवहारा:विहात । न हि धुमपरामगांद 'धूमवन पर्वतो हिमान' इत्याकारं 'पर्यनी नलिमान' इत्याकारं वा जानं जायमानं संशय निरूपं या, 'फन्दाम', स्मरामि' इत्याद्यननव्यवसायान । परामर्शस्य निभवमामव्रात्वन न संशयहतुत्वं, पर्वतों बहिमान' इत्यननुभवाय मनाशी म्मृति: किन्तु मानगसाक्षात्कारात्मका अनुमितियोपजायने । न चवं वह्नि न साक्षात्करोमि' इत्यादिप्रनीत्यनुपपनिरिति वाच्यम्, गुरुल्यादाचिव नत्र लौकिकविषयवाभावादव नदुपपनः । कवित अनुमिनित्याचच्छिन्नं प्रनि नाप दिसाम्नीनिष्टतया प्रतिबन्धकत्या कल्पने लाघनात् । अनेन अनुमिनियम्य मानस। उपपत्ति कैसे हो सकेगी?' - इनका कारण यह है कि ज्ञानादि चनु आदि बहिरिन्द्रिय के ग्रहणायोग्य होने पर भी मर के ग्रहण योग्य होते हैं । अनः स्वकीय ज्ञान आदि का भले ही चाक्षुप, स्पार्शन आदि प्रत्यक्ष नामुमकिन हो, मानस राक्षात्कार मुमकिन हो सकता है । यहाँ इस प्रभ का कि -> 'आप नास्तिक के मन में मन की सिद्धि में प्रमाण क्या है ? क्योंकि यह चक्षु आदि इन्द्रिय से तो उपलब्ध होता नहीं है - उत्तर यही है कि अनुमान ही मन की सिद्धि में प्रमाण है। अनेक ज्ञान की युगपन् = एक काल में उत्पत्ति न होने की वजह मन की अनुमिति की जाती है। अतः अनुमिनिजनक अनुमान ही मन की उपलब्धि में प्रमाण है। यहाँ यह शंका हो कि -- "यदि अनुमिति एक अतिरिक्त प्रमा । नर तो उसके अनुरोध से अनुमान नामक अतिरिक्त प्रमाण को भी ग्वीकार करना पड़ेगा और उसे यदि मान्यता दी जायेगी तो उस अवस्था में पाकमात्र प्रत्यक्ष ही प्रमाण है, अन्य कोई प्रमाण नहीं है' . इस चार्वाकसिद्धान्त का भङ्ग हो जान से अपसिद्धान्न नामक निग्रहस्थान की प्रामि होगी" - तो उसके समाधान में नव्य नास्तिकों की ओर से यह कहा जा सकता है कि →
अजुतितिाव मानसत्वव्याप्य है - नूतन चार्वाक 5 अनुमिनिवस्य,। अनुमिति कोई अतिरिक्त प्रमा नहीं है किन्तु वह एक प्रकार का मानस प्रत्यक्ष है। इस प्रकार अनुमितित्व मानसत्त्व का व्याप्य धर्म है, न कि मानमन्त्र का विरोधी धर्म । यदि अनुमिति को अतिरिक्त प्रमा मानी जाय तर अतिरिकामाजनकत्वेन अनुमाननामक अतिरिक्त प्रमाण की सिद्धि की आपनि हांगी । मगर उक्त गति में अनुमान का मानस प्रत्यक्ष में अन्तभाव हो जाने में अपसिद्धान्त दोप की शङ्का को भी अवकाश नहीं है । यहाँ पह शंका हो कि -- शरीर को ही आत्मा मानने पर नो मृत देह में भी ज्ञान की उत्पति होगी. जैम जीवन्त शरीर में होती है ठीक उसी तरह'| - तो इसके समाधानार्थ यह कहा जा सकता है कि ज्ञान का समवाथिकारण शरीर होता है नो ज्ञान का असमायिकारण विजातीयमन:संयोग होता है, जो जीवन्त देह में होने से उसमें ज्ञान की उत्पत्ति होती है और नृत देह में ज्ञानजनक विजातीय