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सुगतसम्मतविकल्पिताकतयः
संसर्गाणामुपायसहस्रेणाऽपि कर्तुमशक्यत्वात्, अन्यथा जगद्व्यवस्थाविप्लवात् । दृश्यविकल्पार्थयो: तत्प्रतीतिरर्रापे न विकल्पाधीना, दृश्यस्य विकल्पाऽस्पर्शित्वात्, संहृतसकलविकल्पावस्थायामेव तत्प्रतिभासात् ।
किय, उत्पत्त्यनन्तरापवर्गिणो वस्तुनः कथमेकीकरणं युज्यते ? 'विकल्पितयोरेवैकीकार' * जयलता *
यथाक्रममग्रेऽन्वयः । तथाहि हृदयार्थानां पारमार्थिकत्वात् कल्पितार्शनाचा पारमार्थिक भिन्नानां तेषां न विकल्पादभेदः कर्तुं शक्यते न वाऽसदृशानां तेषां सादृश्यमपि विकल्पः कर्तुं क्षमः । दृश्यार्थानां वरिवस्थितत्वात् विकल्पितार्थानां चान्तःप्रतिभासमाधत्वात्परस्परमसंसृष्टानां तपां न मिश्रधातुं विकल्पः प्रत्यः । विश्रवाधमाह अन्यदेति । भिन्नान् सदृशाःसंसृष्टानामभेदसादृश्यमिश्रः सम्बन्धकरणं जगद्व्यवस्थाविष्टत्वात् घटपाटन स्वलक्षणानां विन्ध्यहिमाचलादीनामपि क्रमेण नप्रसङ्गेन प्रसिद्ध दुव्यवरोच्छेदापन्नः प्रकरणाकरः प्रकारान्तरेण तदेकीकरणासम्भवमुद्भावयति दृश्यविकल्पार्थयोः तत्प्रतीतिः = अमेदादिप्रतीतिः अपि न विकल्पाधीनादाब्दजन्यकल्पनी पजीविका, दृश्यस्य = पारमार्थिकस्यार्थस्य विकल्पाऽस्पर्शित्वात् विकल्पा गोचरत्वात् । अनापि हेतुमाह संहतसकलविकल्पाऽवस्थायां = विकल्पमात्ररहितदशायां एवं तत्प्रतिभासात् • दृश्यार्थप्रत्ययात् इति । बौद्धसिद्धान्तं यावद्विल्य एवं प्रतीतिः प्रतिपादित ननी यस्यार्थस्य विकल्पाविपयत्वमंत्र । तथा च कथं तदग्राहिणा विकलन हृदयविकल्पितार्थानामभेदादिप्रतिभासः सम्भवेत् ? न हि घटाग्राहकना:ववमेन घटकुम्भाभेदस्य घटशरावसाहृदयस्य भटारण्यसंसर्गस्य वा प्रतिभास: सम्भवति । अती विकल्पेन तदमेदाद्यसम्भवान | तदेकीकरणसम्भव इति शब्दाद विकल्पितार्थमानं प्रतिनियतप्रवृत्त्यसम्भवदीपादवस्थ्यमेवेति प्रकरणकृदाकूतम् ।
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प्रकारान्तरेण दृश्यविकल्पितार्थयोरकीकरण मरहस्यति किञ्चेति । गंमत सदस्य अणिकत्वव्यापीन उत्पत्त्यनन्तरापवर्गिणः उत्पतिक्षणाऽनन्तरांतम्भणे ध्वंसशीलस्य वस्तुनः कथं विकल्पेन एकीकरणं युज्यते ? तावन्तं काले वस्तुन श्वासत्त्वात् । न चोत्पनिक्षण एवं तदेकीकरणमिति वक्तव्यम्, नदानी स्वत्तावेव व्यग्रत्वेनास्यादनार्थयाऽतिशयत्वात् । | मायावाद्याह - विकल्पितयोः अर्थयोः एव विकलीन एकीकारः, न तु दूयरिकल्पितार्थयोरिति नानुपपत्तिरिनि बोधिसत्त्वानुयायिन
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होने की वजह विकल्प उनका सम्बन्ध कराने में भी शक्तिमान नहीं है। यदि सर्वश्रा भिन्न में विकल्प से अनंद हो जाय या असदृश में मादृश्य हो जाय या असम्बद्ध का सम्बन्ध बन जाय तब तो जगत की व्यवस्था का ही विदोष हो जायेगा। अतः विकल्प से दृश्य और विकल्पविषयीभूत काल्पनिक अर्थ का एकीकरण असम्भवित है । दूसरी बात यह है कि इश्यार्थ और विकल्पविपयीभूत अर्थ के अभेदादि की प्रतीति भी विकल्प के आधीन नहीं है, क्योंकि पारमार्थिक दृश्य अर्थ तो विकल्प को छूता भी नहीं है । जब सकल विकल्पों का उच्छेद हो जाता है उसी अवस्था तात्त्विक अर्थ का भान होता दृश्य है, न कि विकल्पावस्था में । अतः एक काल में दृश्य अर्थ और विकल्पगोचर अर्थ की एक विकल्प से प्रतीति ही नहीं हो सकती, तब उन दोनों का एकीकरण विकल्प से कैसे हो सकेगा ? अपने अविषय में तो कोई भी कुछ भी नहीं कर सकता । इस तरह दृश्य और निकल्पित अर्ध का एकीकरण विकल्प से नानुमकिन होने की वजह शब्द से प्रतिनियत प्रवृति की उपपत्ति नहीं हो सकती है ।
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★ अर्थ में एकीकरण नामुमकिन
किख । इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि बीद्धमत में सभी पदार्थ क्षणिक होने से उत्पत्ति के अनन्तर उत्तर क्षण में ही सर्वधा विनम्र हो जाते हैं तब तो दृश्य और विकल्पित अर्थ में एकीकरण कैसे शक्य होगा ? यदि यहाँ बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि दृश्य और विकल्पित अर्थ में विकल्प से भले ही एकीकरण न हो सके । किन्तु विकल्पित अर्थ और विकल्पित अर्थ में तो विकल्प से एकीकरण हो सकता है और वैसे भी शब्द से प्रतिनियत प्रवृत्ति की उपपत्ति हो मकती है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि विकल्पित अर्थ भी चिरस्थायी कैसे हो सकेंगे? वक्ता शब्द का प्रयोग करता है, बाद में श्रोता सुनते हैं, बाद में विकल्पित अर्थ का बोध होता है और बाद में तत्रियक उच्छा और प्रयत्न होते हैं, बाद में प्रवृत्ति होती है। तब तक विकल्पित अर्थ स्थिर ही नहीं रहते हैं। तब उनमें प्रवृनि डी कैसे हो सकेगी ? अतः बौद्धमत में शब्द से प्रतिनियत प्रवृत्ति अनुपपन्न ही रहेगी ।
शब्द और अर्थ के बीच वास्तविक सम्बन्ध मुमकिन