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६३ : मध्यमस्याद्वाद्वरहस्ये खण्डः ३ का ५
* अपदार्थबाधभिः
व्युत्पन्नाऽव्युत्पन्नौ प्रति ततो बोधवैचित्र्यदर्शनात् । 'विषाणे शशीयत्वं नास्ति' 'शशविषाणं नास्ति' इति प्रतीत्योर्वैलक्षण्याच्चेति चेत् ? को, शब्दादविकल्पप्रतिपत्तावपि प्रवृत्तिप्रतिनियमाऽसम्भवात् ।
अथ शब्दाद् विकल्पं प्रतिपद्य ततो दृश्यविकल्पा (त्या) र्थावेकीकृत्य नियमत: प्रवर्तत इति चेत् ? कोऽयमेकीकारः ? अभेदो वा ( 9 ) सादृश्यं वा (२) मिथः संसर्गो वा (३) १ न त्रितयमपीदं विकल्पादुपजायते, भिन्नानामसदृशानां मिथोऽसंसृष्टानां चाऽभेदसादृश्यमिश्र:
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शादिपदात् बोधचित्र्यदर्शनात् बोधे नानात्वस्योपलब्धेः । शशविषाणादिपदं श्रुत्वा sव्युत्पन्नी प्रति ततः = व्युत्पन्नस्य सखण्डकाय प्रतीतिजपितेऽन्युत्पन्नस्य चाखण्याकरिति विशेषः । एवन्ध्यासु यानि खपुष्पकृतशेखरः । शशशृङ्गधनुर्धारी, ब्रह्मचारिवितासुतः । - इत्यादिवाक्याद्युत्पन्नान्युत्पन्नधर्बोधवचित्र्यं प्रसिद्धमेव । तथाहि शाविपाणं | नास्ति' इति वाक्यात व्युत्पन्नान्युत्पन्नयो: 'विपाणे शशीयत्वं नास्ति' 'शशविषाणं नास्ति 'ति प्रतीत्योः वैलक्षण्याच लक्षण्यस्य सिद्धत्वाचेति वाशयः ।
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काल्पनिकार्यप्रतिवदेन प्रकरणकारः तभिराकुरुते नेति शब्दात् = शब्दं श्रुत्वा विकल्पप्रतिपत्तावपि प्रतीतिस्वाकारेऽपि प्रवृत्तिप्रनिनियमाऽसम्भवात् = वृत्ती नयत्यस्याःसम्भवात् । हृदयस्य पारमार्थिकस्यार्थस्य स्वलक्षणात्मकस्य शब्देनाऽप्रतिभासनात् प्रतीत वैकल्पिकेऽर्थे च प्रवृत्यसम्भवान्न प्रतिनियतेऽर्थे प्रवृत्तिः सम्भवतीति तात्पर्यम् । शब्द सांगत: स्वाभिप्रायमाविष्करोति अथेति । शब्दात् विकल्प वैकल्पिकार्थं प्रतिपय तदनन्तरं ततः विकल्पात् श्रोता दृश्यविकल्पार्थी =यार्थीवकल्यगोचरार्थी नियमत: व्यामितः एकीकृत्य प्रवर्तते । वैकल्पिकार्थप्रतिभासस्य दृष्यार्थं विनाऽनुपपते: चैकल्पिकार्थं दृयार्थेन साकं विकल्प एकीकरोति । ततो येन दृइयान सम विकल्पितार्थी विकल्पनैकीकृतस्तत्रैव दृश्यार्थे प्रवृत्तिरिति शब्दात्कल्पितार्थप्रतिमान प्रवृत्ती नियत्सङ्गनिर्मित शुद्धोदनितनयाभिप्रायः ।
= ज्ञाता,
श्रुत्या,
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सुगनकदाग्रहज्वरं मन्त्र-यन्त्र-तन्त्रत्रिकरसभागोचविकत्रितयेना पाकर्तुमुपक्रमते कोऽयमंकीकारः । दृदयविकल्पितार्थीरेकीकरणं किं अभेदो वा सादृश्यं वा मिथःसर्वो वा ? न वितयमपीदं तयो: विकल्पादुपजायते । भिन्नानामिति । विकल्प होने से बाहर अर्थ की सिद्धि होनी नहीं है । शब्द और अर्थ के बीच व्याप्यव्यापकभाव नहीं होने से ही तो शशविषाण आदि पद से भी वैकल्पिक काल्पनिक अर्थ की प्रतीति निराबाध हो सकती है । जगत में शशशृह नहीं होने पर भी शशु पत्र से कल्पितार्थ की प्रतीति होती ही है । अतएव शशविषाणादि पत्र को अवोध तो नहीं माना जा सकता । व्युत्पन्न व्यक्ति एवं अव्युत्पन्न व्यक्ति को शशविषाणादि पद से चित्र अनुभवसिद्ध ही है। 'विषाण में शीयत्व = शशसम्बन्धित्य नहीं है? ऐसे व्युत्पन्न पुरुष की होने वाले 'शशविपाणं नास्ति' वाक्यजन्य बोध एवं अच्युत्पन्न पुरुष को होनेवाले 'विपाण नहीं है' ऐसे बांध में भी वैचित्र्य प्रसिद्ध ही है। अतः 'वस्तु एकान्ततः शब्द से अनभिलाप्य ऐसा एकान्तवाद ही रम्य है ।
= अवाच्य है
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इस बौमत में शब्द मे प्रतिनियत प्रवृत्ति की अनुपपत्ति
स्याद्वादी :- न श । जनाब ! आपका यह वक्तव्य समीचीन नहीं है, क्योंकि शब्द और अर्थ के बीच सम्बन्ध वास्तविक है। फिर भी आपके मतानुसार शब्द से विकल्प वस्तुशुन्य अधकार कल्पना का स्वीकार किया जाय तो भी प्रवृत्ति के नैयत्य की अनुपपत्ति होगी, क्योंकि बाहर दृश्य पदार्थ अलग है और काल्पनिक अर्थ अलग है । कल्पित ज का भान होने पर दृश्य = वास्तविक अर्थ में प्रवृत्ति हो सकती नहीं है । यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि --> शब्द से तो कल्पितार्थाकारवाला विकल्प ही उत्पन्न होता है । बाद में विकल्प से व्यामि के सवव दृश्यार्थ और विकल्पार्य तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि बीद्धसम्मत दृश्य ए कल्पित अर्थ का एकीकरण क्या है ? उसका ही सम्यम् निर्वाचन हो सकता नहीं है । एकीकरण को (१) अभेदात्मक या (२) सादृश्यस्वरूप या (३) परस्पर संसरूप नहीं माना जा सकता, क्योंकि ये तीन विकल्प से उत्पन्न हो मकते नहीं है। दृश्य अर्थ और कल्पित अर्थ सर्वथा भिन्न होने से विकल्प से उनके बीच अभेद करना नामुमकिन है । वे परस्पर सर्वा असदृश विलक्षण होने से विकल्प उनके बीच सादृश्य का आपादन करने में असमर्थ है। एवं वे परस्पर सर्वथा असम्बद्ध
कल्पितार्थं को एक कर के श्रोता प्रवृत्त हो सकता है
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