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* त्रिगणनमंचाद: * विपर्ययस्यापि सुवचत्वात् ।
स्यादेतत् - एवं सति सङ्केत एव शब्दार्थयोः सम्बन्ध: स्यान्न त शक्तिः, गृहीतसकेतादेव पदार्थस्मरणादिति चेत् ? का प्रकरणाभिव्यक्तक्षयोपशमानों केषाचित् सहतमहं विनाऽपि पदादप्रत्ययात् । सङ्घतो हि तपश्चरण-दान-प्रतिपक्षमाबजावज्ज्ञानावरणक्षयोपशमाणिव्यव
गरालय त्ययेष्यते तद्य संयक्तघटावादी मबद्धत्वप्रकारकाव्यवहारजनकतया तयाः संयोगः पारमार्थिकः । स्वीकर्तव्यमिति भावः । विपक्षबाधमाह- अन्यथा = तथाविधीब्यवहारजनकत्वेऽपि संबोगस्यापारमार्थिकचापगम, रिपर्ययस्याऽपि = 'तादात्म्यसंयोगाभ्यामन्यः सम्बन्धन पारगार्थक' इत्यस्यापि, सवचत्वात, समाधान नभयत्र नुल्यम, 'यचीनीः समां दोषः परिहारस्तयोः समः' इनि बचनात् । तरमानदात्म्यन्दत्पत्तिभिन्नानामपि संयोगादीनां पारमार्थिकसम्बन्धमानमेव । न च तथापि शब्दार्धयोः संयोगस्य वाधः 'व्ययाः संगांगः' इति वचनादिनि वाच्यम्, शक्तिनाम्नः शब्दाधसम्बन्धस्य नत्र लब्धावकाशत्वात् । ततः शक्त्यैवाय शन्दः प्रत्याययतःनि सिगिनि प्रकरणकनादायः ।।
लवाचकादशः परः शङ्कतं- स्यादेतदिति । एवं सति = तादात्म्य-तदानन्यतिरिक्तसम्बन्ध असम्बद्धन्यावापान पारमार्थिकत्व सति. सद्देन एव शब्दार्थयाः सम्बन्धः स्यान्न त् शक्तिः , इतमाह गृहीतमंदतादंब पदात अर्धस्मरणात = अर्थस्मरणापलब्धेः, न तु दाक्तिमत्पदात् यथा चौरायः तस्कर प्रसिझोऽपि दाक्षिणात्यानां मङ्गनयशादांदनं प्रत्यापति, कुमारवान्दश्च सङ्कतबलन पूर्वदेवा भाविनमा बोधयति । इत्थं सताना पुरुपच्छाधीनतया:गिपनत्वनंब । लोकव्यवहागोभयंव शास्त्रापेक्षयाऽपि सङ्कतबशेनेवार्थज्ञानं यथा त्रिपुरार्णवे अलिशब्दः मदिराभिषिक्ता ने मधुनगन्दश्च ममनिषोः गनिनः । ननः संकेत गब शब्दार्थसम्बन्धो न तु शनिरिति पूर्वपश्चादयः ।
फरणकार: नन्त्रिराकुम्न - नेति । व्यनिरकभिवारनायका ति - प्रकरणाद्यभिव्यक्तक्षयोपशमानां कंपानिन पुग्न तधाविशन्द सङ्केनग्रहं विनाऽपि प्रकरणादिवलेन पदात् - तथाविधशब्दान, अर्धप्रत्ययात = अर्थबोधस्यानुभवसिद्धचात् । यदि सकतादयार्थबोधस्तहि कथनमंतितात्पदान करणसामाण्यव्यवधान नब्यक्तक्षयामानां पुरुषाणामपंचायः ? ततः स्वाभाधिकसामर्थ्य भाचिन्यादेव पदाच्छाब्दबोधः स्वीकर्तव्यः, सर्वशन्टागं सर्वार्थप्रत्यायनशक्तियुक्तत्वान । नाहे, किं सङ्कनस्य सर्वधा शाब्दबोधेनुपयोगित्वं । इनि मुग्धाशङ्कायामाद - संहतो हि नपग्णदानप्रतिपक्षभावनाबत् = नपोजानदानकपादानिप्रतिपक्षभावनादिकभिव, ज्ञानावरणक्षयोपशमाभिव्यञ्जकतया = शाब्दबोधानालश्रुतज्ञानावरणीयक्षयोपशमाधायकवन, झान्दबाये
| समाधान देंगे १ जो समाधान उनके लिए होगा वही हमारे लिए भी समान रहेगा। अनः गन से प्रतिनियन अर्थनीति की अनुपपत्ति की वजह शन और अर्थ के बीच नादात्म्य-तदत्पनिभिन्न शस्तिनामक सम्बन्ध का मानना आवश्यक है।
क्षेत काय जाहीं हो सका स्माद । यहाँ यह वाडा हो फि -> दान और अर्थ के बीच संकन ही सम्बन्ध हो मकना है, न कि शक्ति 1 इसका कारण यह है कि शब्द और अयं के बीच शक्तिनामक सम्बन्ध मानन पर भी जिस परुप की शब्द के मंकन का ज्ञान नहीं है, उसे नत्पदश्रवण से भी अर्थबोध होना नहीं है । और जिसे मंकतझान है उस पाण्यश्रवण से तुरन्त ही अबोध हो जाता है। अतः अन्वय-व्यतिरेक में गन्द्र और अर्भ के बीच पूर्व पुस्पादि से किया गया संदत ही सम्बन्ध है, न कि अनादिसिद्ध अक्ति । सहन ना पुरुष के अधीन है <-तो यह भी असंगत है, क्योंकि संकेतज्ञान के बिना ही पुरुषविशेष को प्रकरण आदि से अभिव्यक्त प्रयोपशम की वजह शब्द में अर्थ का बोध होना है। पद में यदि अप्रत्यायन शक्ति न मानी जाय तब संकेतज्ञान के बिना भी स्थलचिशेष में पद से उत्पन्न होने वाला अर्थबांध असान हो जायेगा। शक्ति तां अनादि काल से सिद्ध ही है, न कि आधुनिक पुम्पों से कल्पित । अनः शक्ति का स्वीकार आवश्यक ही है। कंबल शक्ति अर्थचोधजनक नहीं है किन्तु शक्ति का ज्ञान अथवरोध में सहकारी है । अतः प्रदर्शित व्यतिरेक व्यभिचार का कोई अवकाश नहीं है। महंत का उपयोग शान्दयोध में शब्दार्थमम्बन्धविधया नहीं है किन्तु ज्ञानावरणक्षयोपशम के अभिन्य अस्थिया है । जैसे नपत्र, दान, क्रोधादि की प्रतिपक्ष भावना आदि ज्ञानावरणक्षयोपशम में हेत है ठीक वैसे ही संकेत भी ज्ञानावग्णभयोपशम का हेतु है । लोकव्यवहार भी पा होता है कि . 'शट अर्थवाचक है एवं अर्थ शब्दवाच्य है । इस प्रमिंड व्यवहार से भी शब्द और अर्थ के बीच वाच्य-वाचकभाव नाम का ही सम्बन्ध सिद्ध होता है, न कि मंकनसम्बन्ध । इस