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६३२ मध्यमस्याज्ञादन्ह खण्ड ३ का. ५.
* बृहत्कल्पभाष्यसंवादः
इति चेत् ? तयोरपि कथं चिरस्थायिता ? शब्दार्थयोर्वास्तिविकसम्बन्धं विना च कथं शब्दश्रवणादर्थस्मरणम् ? अत्र हि एकसम्बन्धिज्ञानादपर सम्बन्धिस्मरणमिति स्थितिः, हस्तिपकज्ञानाधस्तिस्मरणवत् । तादात्म्य- तदुत्पत्तिभ्यामन्यः सम्बन्धो न वास्तविक इति तु स्वाभिमानविजृम्भितम् । सम्बदव्यवहारजनकतया संयोगादीनामपि पारमार्थिक सम्बन्धत्वात्, अन्यथा ॐ गयलता है
आशयः । प्रकरणकारः तन्निरस्पति तयोः विकल्पितार्थयोः अपि कथं चिरस्थायिता ? प्रथमं जानाति, नत इच्छति, ततो यतनं, तदनन्तरं प्रवर्तत इति न्यायात् विकल्पितार्थयोरपि प्रवृत्त्यर्थं जघन्यतः चतुः सभयावस्थायित्वमपेक्षितम् । विकल्पेन स्वगोचरविकल्पितार्श्वयोरकीकरणंऽपि क्षणिकलेन प्रवृत्तिपर्यन्तमस्थायित्वान्न तत्र श्रनुप्रवृत्त्युगतिः । न च विकल्पितार्थस्याऽपारमार्थिकत्वेन न क्षणिकत्वमिति वाच्यम्, तथापि शब्दात् शशविषाणादिवत तत्र प्रवृत्यनुपपत्तेस्तादवस्थ्थ्यात् ।
यचोक्तं क्षणिक्रवादिना ‘शब्दार्थयोर्वास्तविकसम्बन्धानावादिति तन्मनसिकृत्याह शब्दार्थयोः वास्तविकसम्बन्धं | विना च कथं शब्दश्रवणात् शब्दश्रवणमवलम्ब्य अर्थस्मरणम् ? यथा धूमं दृष्ट्वा न कस्यचित्समुद्रादेः तदसम्बन्धिनः न जायते किन्तु धूमध्वजस्यैव तत्सम्बन्धित्वात् । असम्बद्धस्याऽपि स्मरणं त्रैलाकुपान्तर्गतसकलार्थजानगोचरस्मरणापतेः । एवमेव शब्दश्रवणादपि प्रतिनियतार्थस्मरणान्यधानुपपत्तेः शब्दार्थयोवस्तिविकः कश्चित्सम्बन्धोऽवश्यम सुपथः, अन्यथाऽश्रुतदृष्टानुभूनार्थगोचरस्मरणापतेः असम्बद्धत्वाऽपि नाधिकसरित्याशयेनाह अत्र - शब्दश्रुतेस्मरणस्थळे, हि निश्चितं एकसम्वन्धिज्ञानात् अर्थसम्बन्धित्वेन शब्दज्ञानान अपरसम्वन्धिस्मरणं अर्धस्मरणं उति स्थितिः, हस्तिकज्ञानाद्धस्तिग्मरणवदिति । ततः शब्दार्थयोः पारमार्थिकः सम्बन्धः सिध्यति ।
ननु शब्दार्थयोः किं तादात्म्यं तदुत्य संसवनाऽभिमन्यते । इति पद्मद्धनिर्गतरङ्गासिन्धुवत् सुगतसंज्ञानसरीचिनिगतनिर्मल विकल्पना युगली समुपतिष्ठते । नात्राऽन्याऽनवद्या क्षुद्रादिशब्दों वारमुखच्छेदादिप्रसङ्गान् । तदुक्तं सङ्घदासगणिअमाश्रमणैः बृहत्कल्पभाष्ये 'खुरअग्निमीय चारणमिम्बरणसराणं । नवि ओ नविदाही पण पुरणं तेण भिन्न तु ॥ (इ.क.भा. ५८) । नाऽपि द्वितीया श्रदक्षमा शब्दस्यार्थजनकले विश्वदारिद्र्यापतात. अर्धस्य शब्दजनक दादा कोलाहलासङ्गात् करभसरमाद्यर्थजातस्य सर्वदा जगति सच्चात् । न च ताभ्यामन्यः कचित्सम्बन्धः कयोश्चिदपि वर्तत इति विशेषकूदासम्भवेन सामान्याभावसिद्धे नर्थिशब्दयोररित कश्चित सम्बन्धी वास्तविक इत्याशङ्कां चेतसिकृत्या प्रकरणकारः - तादात्म्यतदुत्पत्तिभ्यां अन्यः सम्बन्धी न वास्तविक इति तु स्वाभिमानविजृम्भितम् = सौगनमिध्याहङ्कारमात्रविलसितम् । अपन हेतुमाह- सम्बद्धव्यवहारजनकतया = सम्बद्धत्वप्रकारकधव्यवहारयोः संसर्गविधवा जनकलेन संयोगादीनामपि पारमार्थिकसम्बन्धत्वात् । यथोत्तरक्षणं पूर्वक्षणोत्पाद्यनधीव्यवहारजनकतया पूर्वोत्तरक्षणयोः तदुत्पत्तिसम्बन्धः पारमार्थिकः
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या इति । इसके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि शब्द और अर्थ के वीच वास्तविक सम्बन्ध ही न हो तो शब्द को सुन कर लोगों को अर्थ का ज्ञान कैसे हो सकता ? जैसे पीलवान का ज्ञान होने पर तत्सम्बन्धी होने की वजह हस्ती का स्मरण होता है ठीक वैसे ही शब्द का श्रवण होने पर तत्सम्बन्धी होने की वजह अर्थ का स्मरण होना है । एक सम्बन्धी का ज्ञान अपरसम्बन्धी का स्मारक होता है। शब्द से अर्थ का स्मरण होने की वजह अवश्य उनके बरीच वास्तविक सम्बन्ध को स्वीकार करना चाहिए । यहाँ बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि 'शब्द और अर्थ के बीच नादात्म्य सम्बन्ध मानने पर तो मोदकशब्द के उच्चारण से ही मुँह लड़ से भर जायेगा और अभिपद को बोलने पर मुख में दाह होने लगेगा । यदि उनके बीच तदुत्पत्ति सम्बन्ध माना जाय तो शब्द को अर्थजनक मानने पर लक्ष्मीपत्र को बोलने से लक्ष्मी पेदा हो जायेगी, बाजार में जाने की जरूरत नहीं होगी । एवं अर्थ को शब्दजनक मानने पर सदा कोलाहल ही होता रहेगा, क्योंकि इस जगत में अर्थ तो विद्यमान रहते ही हैं। इस तरह उनके बीच न तो तादात्म्य सम्बन्ध माना जाता है और न तो तदुत्पत्ति सम्बन्ध माना जा सकता है । इन दो सम्बन्धों से अतिरिक्त तो अन्य कोई सम्बन्ध है ही नहीं । अतः शब्द और अर्थ के बीच कोई वास्तविक सम्बन्ध नहीं है तो यह वी मनीषियों के अभिमानमात्र का ही विलास है, क्योंकि संयोग आदि भी सम्बद्ध व्यवहार के जनक होने की वजह पारमार्थिक है । यदि सम्बद्धत्वप्रकारक व्यवहार का जनक होने पर भी संयोग आदि को पारमार्थिक सम्बन्ध न माना जाय तब तो हम यह भी कह सकते हैं कि तदुत्पत्तिनामक कोई सम्बन्ध ही पूर्वोतर क्षणों के बीच नहीं है, भले ही उनके बीच जन्यत्वादिप्रकारक व्यवहार हो, तब बौद्ध महाशय क्या