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६२ मध्यमस्माद्वादरम् खण्ड ३
** ददसू
चाहु: - आभिमुख्येन ग्रहणं मुख्यत्वं तद्विपरीतत्त्वमुपसर्जनत्वम् । विषयप्रतिनियमस्तु स्वभावादेव, सामान्योपयुक्तो हि जीवः पश्यति विशेषोपयुक्तस्तु संविते इति । यद्यप्युपलिप्सोराभोगकरणमुपयोगः इति केवलितां तदसम्भवः तथापि चिन्तानिरोधाभावेऽपि कर्मदहनसामान्याद्यथा तेषां निश्चलता ध्यानमित्युच्यते तथा तेषाभाभोगकरणमुपलिप्सां विनाऽपि ॐ जयतता है
प्रत्यवोपयोगित्वं न तु केवलिबोध प्रत्यपि । अत एव नोमिलनानुमिलनघट ज्ञानदर्शन केवलज्ञानदर्शनयोः क्रमेण सम्भवतः जोन दुचे इति पूर्वपक्षादायः । अनभि
उत्तरपक्षत अत्राहुरिति । आभिमुख्येन = अभिमुखत्वेन ग्रहणं वो मुख्यत्वं तद्विपरीतं मुख बोधविषयत्वं उपसर्जनत्वम् । नागि दर्शनीय मुख्यत्वेन विशेषणं कुतो न ? इत्यादाइकायामाह विषयप्रतिनियमस्तु स्वभावादेव = जीवस्वभावविशेषादेन, प्राधान्येत सामान्योपयुक्तो हि जीवः पश्यति दर्शनवानित्यभिधीयते प्राधान्येन विशेषपयुक्तस्तु संवित्तं ज्ञानवानित्यभिधीयते । इपस्तु विशेषः केवली प्रथमं वित्तं ततः पश्यति जीवश्च
तिनो नाति तथास्वायादेव । उपसर्जनानु सर्जनत्ययाः प्रकृतलक्षणं नोमिलनाज्नुमिनापदितत्वेन केवलस्थ भयज्ञानदशनविषयनिष्ठ इति न वाऽपि ज्ञानदर्शन क्षणाच्या मुख्यत्वेन विशेषग्राहकत्वस्य ज्ञानलक्षणत्वात् उपसर्जनचेन विशेषग्राहकत्वस्यैव दर्शनलक्षणत्वात् । एतेन युगपन्मुच्यत्वेन सामान्यविशेषग्राहक प्रमाणज्ञाने दवनिलक्षणा: तिच्यामिगरी प्रत्युक्ता, उपसर्जनत्वन विशेषग्राहकत्वति । त्रपदानिवेदन लावलपि । अत एव मुख्यत: सामान्यनात्र ग्राहकत्वमेव दर्शनलक्षणमित्यपि प्रत्युक्तम्, मुख्यत्वेन सामान्यग्राहकत्वं सति तदिताहरूसितस्य तस्य गुरुत्वात् ॥ यद्यपि उपलिप्सोः = भु: अभीगकरणनुपयोग इति वादिदेवसूविचनात केवलिनां उपलिप्यारहितत्वेन तदसम्भव: - उपलिप्साप्रयुक्ताभोगकरणलक्षणोपयोग सम्भवः तथापि चिन्तानिरोधाभावेऽपि कर्मदहनसामान्यात् उपलक्षगात पूर्वप्रयोगादितः यथा नेपा भवस्वनि निश्चलता = कायसुनिश्चलत्वं ध्यानमित्युच्यतं । तदुक्तं श्रीजिनभद्रगणिभिः शतक 'जह उत्थस्य भागों झाणं भण्ण्ड सुनिचली गंतां । तह केवलियां काओ, सुनिचली भण्णा झाणं ।। पृच्चपगओ चित्र कम्मरिणि करता याव । सत्यहुन्नाओ तह निणचंदागमाओं य ।। चित्ताभावेवि गया सुहुम वरयकिरिया भांति 1 जीवांवओगसमावओ भवत्वस्य झागाई ८४-८५-८६ ।। सीपयोगित्वात् श्रीमाणिक्यशेखरसूरिकृतव्याख्या प्रदर्शते । तदुक्तमावश्यकदीपिकायां यथा सुनिश्चलं ननः स्वस्थ ध्यानं तथा केवलिनः सुनिलकायो ध्यानं भण्यत. तु तु ध्यानं रुद्रत्वात्काययोगोऽपि नास्ति ॥ ८४ ॥ तत्र तु ध्यानमेव काययोगरोधियोगिनी योगिनी या चिताभावेऽपि सनि
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उपसर्जनत्व का राग्यम् निवर्तन
उत्तरपक्ष :- अत्राहुः । वस्तुतः मुख्यत्व का लक्षण है अभिमुखतया बांध की विपयता और उपसर्जनत्व का लक्षण हैं अनभिमुखतया बोध की विषयता आभिमुख्येन ज्ञान की विपयता विशेष में रहने से ज्ञान की अपेक्षा विशेष में अनुपसर्जनत्व रहेगा और सामान्य में अनभिमुखत्वेन ज्ञान की विपयता रहने की वजह ज्ञान की अपेक्षा सामान्य में उपसर्जनत्व रहेगा। एवं अभिमुखन दर्शन की विपयता सामान्य में रहने से दर्शन की अपेक्षा सामान्य में अनुपसर्जनत्व रहेगा और विशेष में अनभिमुखत्वेन दर्शनात्मक बांध की विपयता रहने से दर्शन की अपेक्षा विशेष में उपसर्जनत्व रहेगा । यहाँ यह शा नहीं करनी चाहिए कि 'ज्ञान का उदय होने पर सामान्य में क्यों प्राधान्येन ज्ञानात्मक बोध की विपयता होती नहीं है : एवं दर्शन का उदय होने पर विशेष मे प्राधान्य से दर्शनात्मक क्षेत्र की विपयता क्यों नहीं होनी है ? इसका कारण यह है कि जीव का स्वभावविशेष ही प्रतिनियत विषय के नियम का नियामक है । प्रधानतया सामान्य में उपयुक्त जीव दर्शनवाला कहा जाता है एवं मुख्यत्वेन विशेष में उपयुक्त जीव ज्ञानवाला कहा जाता है। अलबत उपयोग का लक्षण है उपदिनु
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जिज्ञासु का आभोगकरण । अतएव केवली के ज्ञान एवं दर्शन में उपयोग का लक्षण ही नहीं घटेगा, क्योंकि केवली उपलिप्सा = जिज्ञासा से रहित होने से जिज्ञानाप्रयुक्त आभोगक्रियात्मक केवलज्ञान या केवलदर्शन होना नहीं है। फिर भी केवली में उपलिला जिज्ञासा के बिना हि आभोगक्रिया उपयोगविया अभिमत है, क्योंकि वह बोध सामान्यात्मक है । यह टीक उसी तरह राहत होता है जैसे केवली में चिन्तानिरोधस्वरूप ध्यान नहीं होने पर भी केवलिकाया की निचलता ही ध्यानविधया शास्त्रकारी की अभिमत है, क्योंकि ध्यान का कर्मनिर्जस्वरूप कार्य तो तादृशारीस्थिरता में भी होता ही है। अतः उपलिप्सा