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२६ मामग्यालादरम्य गण्डः ३ का..
मध्यभन दयानरक्षणप्रन्दानम * कावत - उत्मेिलितस्वग्राहकलयविषयत्वं मुख्यत्वं, तदविपरीतत्वमुपसर्जनत्वम् । ता | व विशेषग्राहकनयोन्मिललेनाऽपि कुतो न दर्शनोदय इति ताराम, जीवस्वाभाव्यादेव व्यवस्थोपपत्तेः। स मोअ सुगमनमोमिलनेन प्रवृत्ते दर्शनलक्षणगम, मुख्यत: सामान्यमात्रगाहकत्वस्यैव तल्लक्षणत्वादित्याः ।
- जयलता * अवग्रहम्याम्पष्टत्वेन नधानिशधानधग हंगन दाद्यस्य कालकिल्लापतिः । एनञ्च स्वविषय सदा वाद्य लक्षणोपमनत्वन स्वविषयावगाहनान्शानदर्शनयोग्णामाण्यापति: अवग्रहम्या प्रमाणल्यापत्ती तनवस्थाविद्रापाणामाहादानानण्यप्रामाण्यप्रसङ्गस्य न्यायप्राप्तत्यान । अना विपयनासम्बन्धन विषयनिष्ठं वैमा नापसनलं भक्तिमहनात्ययाशयः ।
अंच कपाश्चिन्मनं दृषयितनपन्यस्यनि - कचित्विनि, आहरित्यनेनान्वति । उन्मिलितस्वग्राहकनयविषयत्वं मुग्न्य त्वं तद्विपरीतत्वं = अनुम्मिलितस्वग्राहकनविषयत्वं उपसर्जनत्वम् । ननिटं उमिलिनत्वञ्च स्वविषय हणावगत्वर पं. ग्रहणप्रवृत्तविरक्षणं. प्रीभूनत्वका व ग्राह्यम । ज्ञानाविषय विशप दर्शनविषयाभूत च सामान्य एव उमिलिता य: स्वग्राहको नमः अभिप्रायविशेषग्यरूण: तद्विषयत्वलक्षणं मुख्यत्वं वर्नत एव । एवं नानगोचराभूत सामान्य दर्शनगोचरे विशेष चानुन्मिलिना यः स्वग्राहको नयः नडिपयललक्षणभूषजनत्यं वनंत। माता नाव्याप्त्यतिच्याप्त्यसम्भवसम्भवः । न च यथा सामान्यग्राहकनयोमिलनन दर्शनांदया भवति नथव विदोपग्राहकनयोमिलनेनापि = विशेषांशगोचरज्ञानजनकनन्यप्रकटनपि. कृती हेतो; न दर्शनोदयः भवनि : तत्यामग्रीमत्वादिनि वायम, जीवस्वाभाव्यांदव व्यवस्थोपपत्तेः । जाग्रस्य तथागत पर स्वभार. विशेषों गत सामान्यग्नाहकनपप्रादांव एव दर्शनमापजायन विज्ञपग्राहकनयस्फुरण न झानगय प्रादुर्भवति । एतेन सामान्य - ग्राहकनयोम्मिलनेनापि कुतो न आनात्मद इति समाहितम्, सामान्यबोधसच्च: पि विडोपचाधानुदयस्याउन्नुभविकत्वेन तस्य तदापक्षपकन्या योगाच । न च एवं = निलिम्चनाहक नविषयत्वस्य मृग्य, प्रमाणज्ञानेऽपि हनुगर्भ विशेषणमाह - युगपद्भयनयांन्मिलनेन प्रयने = पुरुषत्सा मान्यनिगाहकनयाविर्भावप्रवनत्वेन दर्शनलक्षणगमनं = दयनलक्षणा नव्याप्रि: ग्यात. यधामलितविशेषग्राहकनयपियत्वाश्रयविषयकन्न प्रमाणप ज्ञानत्वं नामिलितसानान्यग्राहकनयविषयत्वगालिम्पियकान्वन नरम दर्शनत्यमपि स्यादवनि वाच्यम्, मुख्यतः . उन्मिरितस्वग्राहकनविषमता सामान्यमात्रग्राहकत्वस्यैव = केवलं, मागन्य बागानन्यस्य , नलक्षणत्वात् = दर्शनमात्यात, मादन ज्यतन सामान्यग्राहकन्नं न दर्शनलक्षणमिति उपसर्जनत्व नहीं हो सकता, क्योंकि अवग्रहविषयीभूत मामान्य में नथाविध लक्षण्य का दर्शन = उपलब्धि नहीं होने से वह उपसर्जनत्ववाला नहीं हो सकेगा। वहीं ना कल्पनामात्र क हि वैश्य विषय बनगा 1 मतलब कि नादृश याद्य वहाँ कल्पित ही होगा, न कि वास्तविक । काल्पनिक वैशग में अचगृहविषयीभुत सामान्य में वास्तविक उपसर्ननत्व की सिद्धि नहीं हो सकेगी। फटन: उग मामान्य में अविद्यमान उपसर्जनत्वरूप से उसका अवगाहन करने में अवग्रह ज्ञाम भ्रमात्मक हो जायेगा । अतः वैशर को भी उपमर्जनत्व नहीं कहा जा सकता।
मिलिस्तानराविषय मुस्यात् हीं हो स # कचिन. । अन्य कुछ विद्वानों का यह वक्तव्य है कि सामान्य और विशेष में रहनेवाला मुख्यत्व मिलिन - प्रकट में स्वग्राहक नय की विषयताम्वरूप है और उपसजनल अनन्मिलित गर्म स्वनाहक नय की विपयतात्मक है । दर्शन के विषयभून मामान्य में प्रकट एम सामान्याहक नयविशए की त्रिपयत्तारूप मग्यत्व होता है और विशेष में अप्रकट एम शिंपग्राहक नयविशेष की विपयनारूप उपसनंनत्व रहता है। इसी तरह ज्ञान के विषयभूत विशेष अंश में जो उन्मिलित एसे विद्यपग्राहक नयविशेष की विपथना रहती है वही ननिय मुख्यत्व है और ज्ञान के विषयभुत सामान्य अंश में जो अनुन्मिलित ऐसे सामान्यग्राहक नयविशेष की विषयता रहती है वहीं तनिष्ट उपसर्जनत्व है। यहाँ प्रेमा प्रश्न हो कि => 'विशेषग्राहक = विशेषगंगाविषयक ज्ञान के जनक नविशेष का प्राकट्य होने पर ज्ञान की भाँति दर्शन का उदय क्या नहीं होता है?' <- नो इसका ममाधान यह है कि जीन का स्वभाव ही ऐमा है कि उन्मिदिनविशंपग्राहक नय के समय ज्ञान का ही उदय और उन्मिरिनसामान्यग्राहक नय के समय दर्शन का ही उदय हो । जीव का यह स्वभाव ही ज्ञान, दर्शन के उदय र अनुदय का व्यवस्थापक है । यहाँ एमी गड़ा हो कि –> 'एव माथ में सामान्य ग्राहक एवं विशेपग्राहक नय का प्राकट्य होने पर प्रमाणात्मक ज्ञान प्रवृन होता है, तब उसमें दर्शन के लक्षण की अतिव्याप्ति होगी, क्योंकि यह उन्मिालन सामान्यग्राहक है ही' <-- ना