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६.४ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ का..
*बादादम अगर्मवादः * व्यावृत्तात मिधा मळ्यावत्यसि ।
स्यादेतत् - वस्तुन: सामान्यविशेषोभयात्मकत्वे दर्शन सामान्यमिव विशेषमपि गृहाणीयात, ज्ञानं वा विशेषमिव सामान्यमपि गृहणीयात, सामग्रीसत्वादिति चेत् ? गृलत: किं महणापादनम् ? जीवस्वाभाव्यातु दर्शन विशेषान् ज्ञानच सामान्यमुपसर्जनीकृत्य गृह्णातीति विशेषः ।
-* यता लाधवसहकृताभ्युपगमेन अमृदः सकाशान मृदो व्यावृनी सम्भाव्यमानायां अपि मिधी मृळ्यावृत्त्यसिद्धेः = मृदः मकाशात मुद्रा व्यावन्नाऽसम्भवगत, तत्र मृदि मृत्सामान्यस्यच मनात. नदतिरिक्तस्य च मुर्विशेषस्य भवता अनभ्युपगमात् । तनश्च विवक्षितमृदः सकाशाद मृदन्तरव्यावृत्त्यन्यधानगपनः मृत्सामान्यव्यतिरिक्तो भावान्मक पत्र मृदा विशेष इति दीकर्तव्यम ।।
ज्ञानदानयारभेदं दपयित्तमुपक्षिपति - स्यादेतदिति । प्रदर्शितरीत्या वस्तुनः सामान्य-विशेपोभयात्मकत्वे स्थानिमतं | दर्शनावरणचिलयजन्यं दर्शनं सामान्यमिव विशेषमपि गृहणीपात, वस्त्वंशत्वा विशेषात् दर्शनं यथा सामन्यं गृहणानि नथव शिषभपि विषयाकुर्यात् । कल्पान्तरमाह - ज्ञानं या ज्ञानावरणविनगजन्यं विशेषमिव सामान्यमपि गृहणीयात्, सामग्रीसत्वान झानं यथा विशेषांझं गोचरीकरुन तथैव सामान्यांशमग्यवगाइन । नतश्च ज्ञानमय दर्शनं दर्शनमंत्र वा ज्ञानं म्यान्न त्वतिरिवनमित्य - जापादनतात्पर्यम ।
नदपहस्नयति , गृहणन एव = उभयं विषयाकर्वत पर ज्ञानस्य दर्शनम्पबा किं ग्रहणापादनं = उभयग्रहगरिषयक आपादनं क्रियते ? अभ्युपगतस्थापादनाल्योगात, आपादन पाटत्वात : ननु गृहणनः प्राधान्यंन सामान्यविषयकस्य दर्शनस्य प्राधान्येन विशेषविषयकान्तमापायने प्राधान्यन विशेपविषयकाय च ज्ञानस्य प्राधान्येन सामान्य विषयकत्वगागायत इत्याराडकायामाद, जीवस्वाभाब्यान प्राधान्येन सामान्यगांना दर्शनं विशेषान उपसर्जनीकृत्य गहणाति प्राधान्येन विशेपनिष ज्ञानश्च सामान्यदुपसर्जनीकृत्य गृहणाति इति विशेषः । न च स्वभाचे गर्वनुयोग युज्यने 'अग्निदहन किं नाका ?' इत्यत्रापि ननिवृत्तः। गतेन दर्शन मामान्यगोचरं ज्ञानश्न विशेष विपणमिनि प्रगदापि व्याख्यातः । नदक्नं स्याद्वादमंजयां 'यय ह्यभ्यन्तरीकृत . समतास्थ्यधमा विषमताविशिष्टा ज्ञानन गम्यन्ते : न एक हि अभ्यन्तरीकृतविष नाधम समनाधर्मबिशिष्टा: दहनन गम्यन्तं, गं वस्वाभाल्यान । सामान्यप्रधानमुपसर्जनाकुनविंशेरमधंग्रहणं दर्शनमुव्यते. तथा विशेषप्रधानम् गमर्जनीकृतं च ज्ञानानि (म्या. १.श्री-१ पृ. १.)।
से अन्वय होता है, न कि अन्य रूप से भी ऐसा हम स्यावादी मानते हैं । रक्त, शयाम आदि घट में घटत्व धर्म की अपेक्षा समानता होने की बजह उसमें घटव्यवहान हो सकता है, मगर स्थाम, कांश आदि में घटत्व की अपेक्षा समानता नहीं होने की वजह घटव्यवहार नहीं हो सकता है। हाँ, मिट्टीव्यवहार यानी मिट्टीशन्द का प्रयोग उनमें जरूर हो सकता है, क्योंकि उनमें मुन्वरूप में समानता होती है । यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि मृत्सामान्य को ही मृदय का विशेष नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वैसा मानने पर मिट्टी द्रव्य मे भिन्न पट आदि में मृत्सामान्य नहीं होने की वजह अमृद्न्य में मिट्टीदल्य की व्यावृत्ति मुमकिन होने पर भी अन्य सजातीय मिट्टीद्रव्य स विवक्षित मिट्टीवन्य की व्यावृति सिद्ध नहीं हो सकेगी, म्याकि अन्य सजातीय मिट्टीद्रव्य में भी नृत्मामान्य रहता ही है । अतः मृविशेप को मृत्मामान्य से अतिरिक्त मानना ही मुनागिन है ।
पाज और में गोमात से विषयप्राधान्य नियमन पादः । यहाँ यह शंका हो सकती है कि --> 'यदि वस्तुमात्र सामान्य-विशेषउभयात्मव है नर ना दर्शन मामान्य की भाँति विशंप का भी ग्रहण करेगा और ज्ञान विशेष की भाँति सामान्य का भी ग्रहण करेगा, क्योंकि लग्राहक सामग्री तो नहीं रहती है' <-- मगर यह निराधार होने का कारण यह है कि सामान्य के ग्राहक दर्शन और विशेष के ग्राहक जान में भी उभयग्राहकना तो हम मानते ही हैं। अतः जो हमें अभिमन है, उसका आपादन नो इए आपादन ही होगा. न कि अनिष्ट भापादन । अत: उपर्युक्त आगठन नग्यहीन है। हाँ, इतनी विशेषता उभयग्राहक ज्ञान और दर्शन में जरूर है कि तथाविध जीवस्वभाव में दर्शन विशेष को गण कर के ग्रहण करता है = अपमा विपय बनाता है, जब कि ज्ञान मामान्य को गीण कर के ग्रहण करता है। सामान्य को प्राधान्यन और विशेष को उपमनवन = गौण रूप से ग्रहण करने की बजह 'दर्शन सामान्यग्राहक हैसा प्रवाद प्रसिद्ध है । गचं 'ज्ञान विशेषग्राहक है' ऐसी प्रसिद्धि होने का कारण