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६५२ मध्यमस्याडादरहस्पे खारः ३ का... * वस्तुनः सामान्यािपोभयात्मकता* मैतम् मृदोऽमृत्स्वभावेभ्य इव मृत्स्वभावेभ्योऽपि व्यावतत्वात् सहाभियसामान्यस्वभावतापत्तेः।। तथा च मृद मुदिवाऽमृदपि स्यात, अमृदिव वा मृदय स्थात् ।
अथ मुदि अमृत्स्वभावकूटव्यावृतिरिव मृत्स्वभावकूटव्यावृत्तेरभावानोक्तदोष इति चेन? तथापि मृत्समानपरिणाम एवाऽमृत्स्वभावकूटव्यावृत्तिरित्येव किं न रोचये: ? तथा चाऽत्यन्ताऽ
* जयलसमानः परिणामः सर्वेषामेव स्वलक्षणत्वात, 'मर्व स्वलक्षणं स्वलक्षणं' इति वचनादिति चेत् ? मैवम् . बौद्धनय मृदः = | विवक्षित मुदद्रव्यस्य. अमुत्स्वभाचभ्यः परादिभ्यः इव मत्स्वभारभ्यः - विवक्षित दन्यमत्वभावभ्यः । व्यावृत्तत्वात् सङ्कीर्णोभयसामान्य-स्वभावतापत्तेः = साणमृत्पदाधुभयसामान्यालकन्दप्रसङ्गात् । यथा अमृत्स्वभावच्यानि मृत्सामान्यं तथा मृत्स्वभावच्यावृत्तिरव पटादिसामान्यं, मत्स्वभावनामन्यद्रव्यायामपटात्मकत्वान् । तथा च मदि अमृस्वभावव्यावृत्तिस्वरूपमृत्सामान्यस्य मृत्वभावव्यावृत्तिलक्षणपदादिमामान्यस्य च सत्त्वात, मृदु मृदियाऽमृदपि = वटाद्यानिकऽपि स्यात, अमृदिव = पटादिवन वा मृदपि न स्यात् । अमृत्स्वभावव्यानिलक्षणमत्सामान्यस्य सचात् तत् मद्यं भवति तथापनादि स्वरूपमृत्त्वभावव्यावृत्तिलक्षणपदादिसामान्यस्य सन्चात नत पटादिस्वरूपमगि स्यात, यद्वा आपटादिस्वरूपमृतकमावच्यावृत्तिलक्षणम्य पटादिसामान्यस्य सत्वेपि नन्न पटादिस्वरूपममदद्रव्यं भवति तद्वंदव अमृत्स्वभावच्यावन्यात्मकस्य मृत्मामान्यस्य सन्नःप तत मृदयात्मकमपि न स्यात, अन्पधा पक्षपानमात्रादिति तात्पर्यम् ।
बौद्धः स्वाशयं प्रकटयति- अति चदित्यनंना म्यान्चयः । मृदि = विवक्षितमृदय, अमत्स्वभावकटच्यानिग्वि मुत्वभावकूटच्यावृत्तिर्न वर्तते. तत्र स्वतरमकलमृत्स्यभारद्रव्यच्यावृनेः सत्यपि स्वात्मकगृत्स्यभावाद व्यावत: विरहात । न हि स्वमेव स्वस्मादिनं भवति । तत्रा:मृत्स्वभावकूटव्य वृनरसच्चानमः मृदात्मकत्वमेय, न नु 'एटाद्यात्मकत्वं: पटाशात्मक मूल्यभावकूटल्यावृत्तरसत्वात् । इल्पश्च विवक्षितमृदय मृत्स्वभावकूटब्यावृत्तरभावात् न उक्तटोपः = मागभिपसामान्यस्वभावतापत्तिलक्षणो दाप इति सांगतसुताशयः ।
अभ्युपगमवादिन प्रकरणकार: समाधन - तथापि = अमृत्स्वभावकूटव्यावृत्ते: मृत्सामान्यत्वा भ्युपगम:पि, मृत्समान्परिणामः = सकलमत्साधारणपरिणामः एव अमृत्स्वभावकूटल्याउत्तिः न न नछ कस्वरूपा इत्यंव किं न रोचयः ? घट व कम्बुनावाद्याकारवचन प्रतीतिविषयीभवन सन् अन्यानपि नदाकारभूतः पदार्थान घटम्पन्या घटझन्दबान्यतया प्रत्यायधनीत्येव स्वरस - वाहिलोकानुभवा न तु अघटकूटव्य वृनिमल्वेन स प्रातिविषयाभन्न मन अन्यानपि अयटकुटनिमन्तः पदार्यान घटात्मकना घटशब्दवाच्यतया प्रत्याययतीत्येवरूपः । विवक्षिताग्यवजन्यत्वादिलक्षना:समानपरिणामेनर घटः स्वतरभ्यः गजाताधिजातीय पदार्थ विलक्षण ही होते हैं । अतः अतव्यावृनि ही सामान्य है। जैसे अमृत्स्वभाववाले पदार्थों की न्यावृत्ति ही मृन्मामान्य है, न कि सकल मिट्टी में अनुगत ऐसा समान परिणाम' <- मगर यह बौद्धकथन भी अमंगत है । इसका कारण यह । है कि जैसे मिट्टी अमृत्स्वभाववाले पट, मठ आदि पदाथों से ज्यान होती है ठीक वैन ही अन्य मुत्स्वभाववाली मिडिओं में भी व्यावृत्त होती है । अनः विवक्षित मिट्टी में अमृस्वभावाले पदाधों की च्यावृत्ति की भाँति अन्यमृत्स्वभाचत्राले पदार्थों की व्यावृत्ति भी रह जाने से मिट्टी में मृत्मामान्य की बरह अमृतसामान्य भी रहने लगेगा। अमृत्स्वभावारे पदार्थों की व्यावृत्ति ही मृत्सामान्य है और अपटादिस्वरूप मृत्वभाववाले पदार्थों की न्यानि ही तो अमृतामान्य = पटादिमामान्य है, । अतः एक ही विवक्षिन मिट्टीद्रव्य में मृत्सामान्य और अमृत्मामान्य उभयस्वभाव की प्राप्ति होगी। तब तो मिट्टी जैसे मृत्मामान्य का आश्रय होने से मिट्टीस्वरूप है ठीक वैसे ही अमृत्मामान्य का आथय होने की वजह मिट्टीभिन्नद्रव्यात्मक भी बन जायगी अथरा यह आपादन भी किया जा मकना है कि अमृन्मामान्य का आश्रय होने पर भी वह मिट्टाभिन्नद्रव्यात्मक नहीं है श्रीक बंग ही मृत्मामान्य का आश्रय होने पर भी वह मिट्टाद्रव्यानरूप नहीं हो सकेगी । अनः अमृस्वभाववाले द्रव्यां की ज्यावृत्ति को मृत्मामान्य नहीं माना जा सकता किन्तु नकल मिट्टी में अनुगत गमान परिणाम को ही मृत्मामान्य कहना संगत है। * अमावस्या
परिणागगाही * अथ. । यहाँ बौद्ध की और में बचाव के लिए यह कहा जा सकता है कि -> 'मिट्टी में अमृत्स्वभाववाले मब द्रव्यों की व्यावृत्ति रहती है। अतः मिट्टी में मृत्मामान्य माना जा सकता है । मगर अमृत्सामान्य नहीं माना जा सकता, क्योंकि विवक्षित मिट्टीद्रव्य में अन्य मूलवभावनाल मिट्टा द्रन्या की त्यावृत्ति होने पर भी अपनी व्यावृति नहीं होने की वजह
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