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६२० मध्यमस्याद्वादरहस्ये पण्डः ३ . का... * अत्पन्तभिन्न समानपरिणामाभायाऽऽवेदनम * विषमेव स्यात् । तथा च प्रतिनियतप्रवृतनियमोच्छेदप्रसाद इति,' मैवम्, मोदकविषसाधारणकसामान्यानभ्युपगमात् । एव मोदकविशेषा एव मोदकसामान्याभिमा इति न विषं विषतां जह्याम वा मोदकतामनुभवेत् । विषविशेषा एव च विषसामान्याऽभिमा इति न मोदका मोदकता जर्षाः विषात्मकता वाऽनुभवेयुः । वस्तुनः समानः परिणामो हि सामान्यमसमानश्च विशेषः । न च विषादकयोः समान: परिणामः, अत्यन्तभिने तदभावात् । असमानस्तु भवत्येव, तद्रिामानिरूप्यत्वात्तस्येति ।
* जयलता विषे वर्तते तथैव मोदकेपि वर्तते तदभिन्नो यो विदोषः तदात्मकः. विषमेव स्यात् । प्रयोगस्त्वे मादको विषात्मक तदभिन्नाभिन्त्रात्मकत्वान. विषस्वरूपवत । ततः किं ? इत्याशडकायामाह . तया च = विषस्य मोदकात्मकल्ले मोदकस्य 'च विषात्मकत्वे, प्रतिनियतप्रवृचिनियमोच्छेदप्रसङ्गः = विषार्थिनो मोदके मोदकार्धिनश्च विषे प्रवृत्त्यापानेन --> मोदकार्थिना मोदक एवं प्रवृत्तिः न त विष, विपार्थिनो विष व प्रवृत्तिः न तु मोदके - इति प्रतिनियतप्रवृनिनियमनं न स्यादिति न सामान्यविशेषयोः कश्चिदभेदों युक्त इति पराभिप्रायः ।।
तन्निरस्यति - मैदमिति । मोदकविषसाधारणकसामान्याऽनभ्युपगमादिति । इदमात्राकूतम् स्यावाद सर्वे पदार्थाः ।
शेषोभयात्मकाः परं एकपदप्रवृत्तिनिर्मिनं यावत्स तावत्स यदेकं सामान्यं तत नान्यपदप्रवृत्तिनिमित्तवत्स्वपरेवपि वर्तते किन्तु तदन्यदेव । ततश्च मादकपदप्रयोगप्रवृत्तिनिम्निवत्सु यावत्सु यंदकं सामान्यं वर्तते तन्न मोदकपदप्रवृत्तिनिमित्तविकलंषु विषादिपप्रवृत्तिनिमित्तवत्सु वर्तते किन्त्वन्यदेव । यच्च नत्र बृत्ति तन मोदकवृत्ति । घटकुम्भादिपदप्रनिनिमित्त त्वभित्रमेवेति न कोऽपि दोषः । एवञ्च व्यवस्थिते मोदकविशेषा एव मोदकसामान्याभिका न तु विषदिशेषा अपि. इति हेताः न विषं विषतां जह्यात् न वा मोदकतामनुभवेत्, मेदकसामान्याभिन्नविदोषानात्मकत्वात् । तथा विषविशेषा पच च विषसामान्याभिन्ना न तु मोदकविशेषा अपि, इति हेतोः न मोदका मोदकतां जयुः, विषात्मकता वाऽनुभवेयुः, विषसामान्याभिन्न विशेषानात्मकत्वात । 'कथं मादकविषसाधारगेकसामान्यानभ्युपगमः स्याद्वादिनां ?' इत्याशङ्कामपाकतु स्वपमेवोपक्रमने • वस्तुनः समानो हि परिणामः सामान्यमसमानश्च विशेष इति । न च विषमोदकयोः समानः परिणामः सम्भवति, व्यवहारता पक्षाविशेषाद् | वा अत्यन्तभिन्ने तदभावात् = समानपरिणामबिरहात । नहि कश्चिद्भिन्ने विशेषोपि न स्यादित्याशङ्कायामाह - असमानस्तु परिणाम: तत्र भवत्येव तद्भिनमात्रनिरूप्यत्वात् = तद्भित्रत्वादच्छिन्ननिरूप्यत्वात् तस्य = असमानत्वस्य, न तु अत्यन्तभिन्ननिरूयत्वं तस्य, सङ्कोने मानाभावात, निरूपकतावच्छेदकगौरवाच । ततश्च मांदलयोरपि परस्परमसमानपरिणानरूपविशेषोऽनयाय
| विशेष, जो मोदकात्मक (= मोदकाभित्र) है, बन जायगा । अत: त्रिप में मोदकात्मकता की आपत्ति आएगी ।
इस तरह मोदक में विपात्मकता एवं विष में मांदकात्मकता आन पर मोदक की मोदकता चली जायेगी और विष की विषात्मकता पलायन हो जायेगी । नब तो विषार्थी की मोदक में प्रवृत्ति होगी और मांदकार्थी की विष में । अतः मोदकार्थी की मोदक में ही प्रवृत्ति और विपार्थी की विष में ही प्रवृत्ति होने का जो नियम है वही लुप्त हो जायेगा। इस तरह प्रतिनियत प्रवृनि के नियमन के उचंद की आपनि स्पागद में बाधक होती है' <--
मयं । मगर यह शंका इसलिए निरस्त हो जाती है कि स्याद्वादी ने षि और मोदक में अनुगत एक सामान्य का स्वीकार किया नहीं है। मोदक में जो सामान्य है वह विप में नहीं है और विप में जो सामान्य है वह मोदक में नहीं है । अतः मोदकविशेप ही मोदकसामान्य से अभिन्न होगा, न कि विषविशेष भी । अतः मोदक में विपात्मकता की प्राप्ति और मोटकात्मकता का परित्याग नामुमकिन है। इस तरह विपविशेप ही विपसामान्य से अभिन्न होगा, न कि मोदकविशेष भी । अतः विप में मांदकात्मकता की आपत्ति को और विधात्मकता के त्याग को अवकाश नहीं है। मतलब यह है कि वस्तु का समान परिणाम ही सामान्य है और असमान परिणाम ही विशेप है । मोदक और चिप में तो कोई समान परिणाम है ही नहीं, क्योंकि अत्यन्त भिन्न पदार्थों में समान परिणाम होता नहीं है । मोदक जीवनटाना है और विप है प्राणनाशक। अतः वे परस्पर अन्यन्त भिन्न ही हैं । इस विषय में नो कोई विवाद ही नहीं है । अतः मोदक और विप में साधारण एक सामान्य नहीं होता है । यहाँ यह शंका हो कि -> 'यदि अत्यन्त भिन्न पदार्थ में सामान्य अनुगन नहीं होता है तब तो विशेष अत्यन्न भित्र पदार्थ में ही रह सकेगा, न कि कथंचित भित्र में । अत: एक मोदक की अपेक्षा