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* गमवायनिगसे तन्वार्थस्त्रसंवाद: ** एव धर्मधर्मिभावः। तथा च धर्मर्मिणोभेद एव युज्यते इति ।' मैवम्, 'नीलघदसमवाया' इतिबुन्देस्तथाऽस्यविशेषस्योक्तत्वात, विवक्षाभेदेनैव तद्भेदात् ।
स्थादेतत् - 'सामान्यविशेषयोरपि मिथः कश्चित्तादात्म्यामोदकाऽभिन्नसामान्यामिनविशेषात्मकं विषमपि मोदक एव स्यात् मोदको वा विषाऽभिमसामान्याऽभिविशेषात्मा
* जयलता है धर्मधर्मिभावाबगाहनम् । समवायश्चाऽयुतसिद्धभाववेत्र । तथा च म धर्मिणो: मंद एष = कवलं भदो युज्यत इति नैयायिकाशयः । ।
ननिराकुरुते - मैवम् । 'नील-घट-समवाया' इति बुद्धेः नथापि = समवायावगाहनेपि, अविशेषस्य = धर्मधमिभावानवगाहनस्प, उक्तत्वात् । 'केवल भेटे उभेद या धर्म-धर्मिभावस्य वैशिष्ट्यनियामकस्य चानङ्गीकार कथं विशिष्टाविष्टबुद्धयोर्विशेष: ? इत्याशड़कायामाह - विवक्षाभेदनेन तद्भेदात् = रिशिष्टाविशिष्टबद्धयो: विशेषात, प्रयोगस्य विवक्षाधीनत्वात ।। ज्याच च वाचकमुख्यः 'अर्पिनानर्पितसिद्भः (त.स. ५/३१) इति । समवायानवगाहन,पि तथाविधविरक्षायां सत्यां । धर्मधर्मिभावभानं, यथा 'घटबद् भूतलनि' त्यादी । समवायावगाहनेऽपि तथाविधविवक्षायानसत्यां न धर्मधर्मि भाइभानं यथा 'घटघटत्व-समवाया' इत्यादी । ततश्चान्वयन्यतिरकाभ्यां विवाविशेषस्यैव धर्मधर्म भावनियामकन्वं, न तु समवायस्य, प्रोक्तान्वयव्यतिरेकन्यभिचाराभ्याम् । एतेन धर्मधर्मिणो: केवलं भेद इति प्रत्युक्तम, समवायस्यासिद्धेश्व । तादृशविवक्षा च समीचीना ग्राह्या, न तु मिथ्या । ततो नातिग्रसङ्गः इति भावनीयम् ।
अभिनिविष्टी मत्सरी घर: शतं , स्यादतदिति । सामान्यविशेपपोरपि स्याद्वादे मिधःकश्चित्तादात्म्यात् + स्यादभेदात, मोदकाभिन्नसामान्याऽभिन्नविशेपात्मकं = मादकादभिन्नं यत्मामान्यं तद्यथा मोदके वर्तते नथैव विषदपि वर्नते तदभित्रो यो विशेषः तत्स्वरूपं, विषमपि मोदक एवं स्यात् । प्रयोगस्त्वे विषं मोदकात्मकं तदभिन्नाभिन्त्रात्मकत्वात, मोदकस्वरूपवत । तल्पयत्या व्यत्यासेन मोदको वा विषाभित्रसामान्याभिनविशेषात्मा = विषाभिन्न यत्सामान्य नद्यधा
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धर्मधर्मिभाव का स्वीकार आवश्यक है, जो विशिष्टबुद्धिस्थल में कतृप्त ममदापात्मक ही होगा । समवाय सम्बन्ध मर्वया भिन्न अयुनसिद्ध पदार्थ में ही होता है। अतः धर्म और धर्मी में केवल भेद ही होगा, न कि अभेद या भेदाभेद ८-- ऐसा नैयायिक मनीपियों का वक्तव्य है।
मैवं. । मगर यह कथन भी अमंगत है, क्योंकि 'नीलघटसमवायाः' यह प्रतीनि विशिष्टविषयक न होने पर भी समवाय का अवगाहन करती है। अतः समवाय को विशिरप्रतीति का नियामक नहीं माना जा सकता • यह नो पहले ही देखिये प्रथम खंड पृष्ठ ४५) कहा गया है । समचाय का अवगाहन करती हुई बुद्धि भी वैशिष्ट्य अवगाही नहीं होने से समय को विशिष्टविषयक गुजि नियामक न मान कर विवक्षाविटोप को ही उसका नियामक मानना उचित महसूस होता है । जहाँ वेसी विवक्षा होगी वहाँ विशिष्टविषयकत्व रहेगा, चाहे उस प्रनीति के विषय में समयाय का भान हो या न हो, जैसे 'घदवत भूतलम्' यह विशिष्ट बुद्धि । जहाँ वैसी विवक्षा न होगी वहाँ विशिष्ट विषयकाव न रहेगा, भले ही वह प्रतीनि समवाय का अपना विषय बनाती हो, जैसे 'घट-घटत्व-समवाया:' ऐसी परस्पर विशेषणविशेप्यभावानापन अविशिष्ट विषयक बुद्धि । अनः विशिष्प्रतीति के नियामकविधया समनाप का स्वीकार श्रेयस्कर नहीं है। अतपय धर्म और धर्मी में सर्वथा भेद मानना भी असंगत ही है, यह ध्वनित होता है।
अत्यनाभिन्न पदार्थों में अनुगत एक सामान्य नहीं है म्याद. । यहाँ यह शंका हो सकती है कि -> स्पाद्वादियों के मन में तो सामान्य और विद्याप कथंचित् अभिन्न होते हैं। अत: मोदक भी विप बन जायेगा और विष भी ला रन जायेगा । बह इस तरह - सामान्य जैसे मोदक में रहता है ठीक वैसे ही विप में भी रहता है, इसलिए मोदकाभित्र जैस मोदकवृत्ति सामान्य है ठीक वैसे ही विषवृत्ति सामान्य भी बन जायगा । उससे अभिन्न विपत्ति विशेप, जो विपात्मक है, बन जापगा। अत: मादक में विधात्मकता प्रसक्त होगी। इसी तरह विप भी मोदकात्मक चन जायगा । देखिये, मामान्य जैसे पि में रहना है ठीक वैसे ही मोदक में भी रहता | है । इसलिये विषाभिन जैसे विपनि सामान्य है ठीक वैसे ही मादयत्ति सामान्य भी बन जायगा । उसमे अभिन्न मोदकनि