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* इष्टसाधनताज्ञान प्रवृन्याः कार्यकारणभाव: * व्यासाटिकास्तु - इष्टसाधनताज्ञानप्रवत्योः समानप्रकारकत्वमेव कार्यकारणभावान प्रागुक्त: प्रवृत्त्यनियमः । तेन द्रव्यत्वादिसामान्यस्य विषमोदकोभयसाधारण्येऽपि न क्षतिरित्साहः । सावत् - अमृत्स्वभावेभ्यो व्यावृत्तिरेव मुत्सामान्य, न तु समान: परिणामः इति ।
-* नसलता गर्वनि । मामान्यविशेषगोचरविचारविशेष: सक्षग्ण प्राक् प्रदर्शित एवेन्ट नेह तन्यते । एतद्विस्तास्नु स्याद्वादरत्नाकराांदनी बसेयः ।
___ नव्यानुयायिन इति आहुरित्यनेनान्चति । तुः पूर्वोक्तापक्षया विशेषयोधनार्थः । तमंचावेदयति - इष्टसाधनताज्ञानप्रवृत्त्योः समानप्रकारकत्वेनैव कार्यकारणभावादिनि । यद्धावचिन्ने पदार्थप्रवृनिः सवच्छिन्ने नाकारकत्वेन ज्ञानम्प हनुवादित्यर्थ: । मोदकत्वप्रकारका चि प्रत्येव विषत्यप्रकारकष्टसाधननाज्ञानस्य हतुवं न तु विषत्वप्रकारकाप्रवृत्ति प्रयाग । एवं विधत्वप्रकारकप्रनिं प्रत्यव विषत्वप्रकारकाधनताज्ञानस्य हतुवमिति न प्रागस्तः प्रवृत्त्यनियमः । नेन = समानप्रकार कन्चन तयोर्जन्यजनकभावस्वीकारण, अतिरित्यनेनास्यान्वयः । द्रव्यत्वादिसामान्यस्य विषमोदकांभयसाधारण्यऽपि विधमादकयो: तत्प्रयुक्तेतरतरात्मकन्या भाग्न पिन क्षतिः; वर्ष मोदकत्वप्रकारकटसाधनताज्ञानविरहान, मोटक च विपत्वप्रकारकटमाधनताजानबिरहान्न मोदकार्धिनी विष न पा विधार्थिनी मोटके प्रनिप्रमन इत्यत्र नत्पर्यम् ।
बौद्धः शकते - स्यादेतदिति - अमृत्स्वभावभ्यः पटादिभ्यः व्यावृत्तिरेव मृत्सामान्यं = मृत्तिसामान्यं, न तु तदन्यः अन्य मोदक में असमानपरिणामात्मक विशेष न रह मकंगा' <- तो यह भी अनुचित है, क्योंकि अन्यन्त भिन्न पदार्थों से ही असमानता निरूपित होती है-मा नहीं है किन्तु भिन्न = अपने में भिन्न पदार्थ में निमपिन होती है। मतलब कि भंदसामान्य की अपेक्षा ही वस्तु में विशेष = असमान परिणाम होता है, न कि भेदविशंप की अपेक्षा । एक मादक का अन्य मोडक में अवयत्र आदि की अपेक्षा भेद नो है ही। अनाव अन्यमोदकनिरूपित अगमानता विक्षित माटक में रहेगी 1 इसलिए एक मोदक में मोदकान्लर की अपेक्षा भी असमानपरिणामात्मक विशेष टीक वैसे रहता है जैसे कि विप की अपेक्षा । इस तरह कोई दोष सावकाश नहीं होने से सामान्य और विशेप में कधिन नादात्म्य माना जा सकता है • यह स्याहादियों का आशय है।
*प्रतिनिसप्रतिनियाज के iro का परिवार - नत्यमत को * नन्या. । प्रतिनियन प्रवृत्ति के नियम के उदद के परिहारार्थ नव्यों के अनुयायिओं का यह कपन है कि. -> 'इष्टसाधनता का ज्ञान और प्रवृति के बीच समानप्रकारकत्वरूप से कार्यकारणभाव होता है। यधर्मप्रकारक इष्टमाधनताज्ञान होता है उससे नद्धर्मप्रकारर ही प्रवृत्ति होती है, न कि अन्यधर्मप्रचारक | जैसे दण्डत्वेन दर में इष्टघटसाधनताज्ञान होने पर दण्डवरूप से ही दण्ड में प्रवृत्ति होती है, न कि द्रव्यवादिरूप से । इस नगर मोटक में मोदकत्वरूप में इएसाधननाज्ञान होने की वजह मोदकत्व के आश्रय में ही मोटकन्वप्रकारक प्रवृत्ति होगी, न कि विप में, क्योंकि विष कथंचित मादकाभिन्न होने पर भी मोटकत्व धर्म से शून्य है । एवं विपवरूप में इप्रसाधननाजान होने पर विपन्च के आश्रय में ही रिपत्रकारक प्रवृत्ति होगी; न कि मोदक में, क्योंकि मादक कथंचिन् विपाभिन्न होने पर भी विपत्व में रहित है । इस तरह मादकाधी की विप में और विपार्थी के मोदक में प्रवृत्ति का कोई प्रसंग न होने की वजह मांदकार्थी की मादक. में और विपायों की विप में ही प्रवृनि होगी । अत: प्रतिनियत प्रवृत्ति के अनियम का कोई अवकाश नहीं है । अनापत्र यहाँ यह कहा जाय | कि -> "विष और मादक परस्पर अत्यन्त भिन्न होते हा भी द्रव्यत्व आदि धर्म तो उनम अनुगत ही है । मनः मोटकाभित्र दन्यत्वमामान्य जमे मोदकवृत्ति है से विपवृत्ति भी बन जापगा । उसस अभिन्न विपनि विशेप, जो विषाभिन्न है, बन जायगा। जियम मोदय विपान्भक हो जायेगा । एवं विध भी मोदकात्मक हो जायेगा' <- तो भी प्रवृत्ति के नियमन के उच्छेद को कोई अवकाश नहीं होगा, क्योंकि मोदकः विपात्मक बनने पर भी मोदकाची का इएनाधननाज्ञान माग्वत्त्वप्रकारक हान से मादकत्वप्रकारक ही प्रवृत्ति होगी न कि विपत्त्वप्रकारक भी, क्योंकि विपत्वाकारकप्रनि मोटकत्वाकारक-दष्टसाधनताज्ञान की कायेना के अवच्छंदक धर्म से रहित है । एवं विपत्तप्रकारक इष्टसाधनताज्ञान में मांटक में प्रनि की भी आपान नहीं आयेगी, क्योंकि मोदक-पप्रकारक प्रवृत्ति उसकी कार्यता के स्वच्छंदक सं शून्य है' <-।
अतदत्यातृत्ति सामान्य नहीं है स्यादः । यहाँ चौद्ध मनीपियों का यह वक्तव्य है कि => 'सामान्य समान परिणामान्मक नहीं है, क्योंकि मवं