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.: ७६, मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.९ * अव्यामज्यवृन्याकाशगुणा चाक्षुषोपपादनम * काशादिगुणाऽचाक्षुषत्वोपपतये रूपवत्वस्य प्रत्यासतिघटकत्वे गौरवात् । न च स्पर्श
-* जयलता हैवा चाक्षुषं भवति तदा घटादी कारणनावच्छेदकतारन्छेन्दकीभूतस्वावच्छिन्नगुणाधिकरणतावात्पाद सम्बन्धावच्छिन्नाधयना - वल्पयामिमतः प्रत्यक्षस्य कारणलावच्छेदकीभूतविषयतासम्बन्धेनाध्वर्तमानवान नत्र 'धरपटयाः संयोग' इत्याद्याकारकं चाक्षुषं कार्यतावच्छेदकीभूतविषयतासम्बन्धेनापजायते यत् कार्यतावच्छेदकतावच्छेदकाभूतस्याबन्दिमाधयनावद्गविषयकप्रत्यक्षत्वसम्बन्धेन कार्यतावच्छंदकीभूतपर्याप्तिमद्भयति । अत एव घटाकावासंयोग दिचाक्षुषापनिरपि निश्वकाशा, आकादास्याचा पत्त्वेन घटमात्रगोचरचाक्षुषम्म पर्याप्त्यवच्छिन्नघटाकाशगयांगादिगणाधिकरणताश्रन्यात्रिपकवन स्वाच्छिन्दगुणाधिकरणतावत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्धन एयसिमन एवामप्रसिद्भया विषयतया तत्कारणाधिकरणस्या:प्यप्रांगदत्यनागदनाउसम्भवात् । विषयतया पात्यपश्छिन्नगुणाधिकरणताबद्नांचरग्रत्यक्षस्य विषयतया पर्याप्त्वनिछन्नाधेयतावद्गणविषयकप्रत्यक्षं प्रति हेतुत्यमित्युको कार्यताबन्दक-कारणताचन्नछेदकधर्मगौरवमापनेत । अतः स्वावच्छिन्नगुगाधिकरणतावत्प्रत्यक्षत्वसम्बन्धन पयांतिमतः स्वावच्छिन्नाधेयताबद्गुणात्यशत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत्त्वावच्छिन्नं प्रति हेतुत्वमित्युनम् । प्रकृते करगताबच्छेदकं कार्यतावच्छेदकञ्च पर्याप्तिमत्त्वमेव, कारणतावच्छेदकताबच्छेदकः सम्बन्ध: स्वावच्छिन्नाधारतावतात्यक्षत्वं, कारणताचच्छेदकसम्बन्धश्च स्वविषयत्तिता, कार्यतावच्छेदकतावच्छंदकः सम्बन्धः स्वावच्छिन्नाधेयनावत्प्रत्यक्षत्वं कार्यतावच्छेदकसम्बन्धश्च विशेष्यतेति नाननगमः । न चात्र कार्यतावच्छेदकतावबंदकसम्बन्धगौरवमाझड़कनीयम, अवच्छेदकतावच्छेदकसम्बन्धगौरबस्यानोपल्यात् । एमञ्च नानारूपवदवयवारब्धघटादेः नारूपत्वाभ्युपगमोऽपि निहतीति प्रतिवादिनाभिप्रायः ।
प्रकरणकार: ननिरासार्थमाह- अपीति । निरुताकार्यकारणभावस्वीकारण घटाकाशसंयोगायचाक्षप-नारूपघटनत्यमवेतचानुपाशुपपादन:पि, अव्यासज्यवृत्त्याकाशादिगुणाऽचाचपन्योपपनय इते । विषयतासम्बन्धेन द्रव्यसमवेतविषयकं चाक्षुपं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्धन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वानुपगमे त्वाकादशादिगणगौचरमपि चाक्षुषमुपजायेत, चक्षुषः स्वसंयुक्तसमवग्यसम्बन्धन भन्दादावाकाशादिगण सच्चान, शदादासज्यवृतित्वाइभावेन विषयतासम्बन्धेन तच्चाक्षुषं प्रति स्वावचिन्त्रगुणाधिकरणतावत्यक्षत्वसम्बन्धेन पर्याप्तिमत: प्रत्यक्षस्य विषयतासम्बन्धनाऽतुत्वेन अनपेक्षणात् । न च विषयतासम्बन्धन न्यसमवेतगोचरचाक्षु प्रति चक्षुषों न स्वसंयुक्तमनवायन हनुत्वमपि तु स्वसंयुक्तम्पसमवाचिद्रत्र्यसमवायसम्बन्धनब हतुवमिति नाकाशादिगुणचाक्षुषापनि:, आकाशाद नीरूपत्त्वादिति वक्तव्यम्, अन्यासज्यवृत्याकाशादिगुणाऽचाक्षुषत्वोपपत्तये रूपवत्त्वस्य = रूपप्रतियोगिकसमवायवच्चस्य प्रत्यासत्तिघटकत्वं = द्रव्यसमवेतचाक्षुपनिरूपिनकारणतावादकसम्बन्धकक्षिप्रविष्टत्वे, गौरवात् । बनता है; क्योंकि वह घटपटसंयोगात्मक गुण की अधिकरणता, जो पटापटउभप में पर्याप्त होने से पर्यासिरिशिष्ट है, के आश्रय घटपटउभयविषयक है। निरुक्तसम्बन्ध से पर्याप्तिविशिष्ट घटपटउभयगंचरप्रत्यक्ष विपयतासम्बन्ध से घटादि में रहता है। अत: स्वावच्छिन्नाधेयतावद्वणविषयकप्रत्यक्षत्वसम्बन्ध से पर्याप्तिविशिष्ट प्रत्यक्ष, जो पर्याप्त्यवग्निाधिकरणता से निरूपित आधयना के आश्रय संयोग गुण को अपना विपय ग्नाने की बजह 'घटापटयो। स्यांगः' इत्याकारक कार्यात्मक होता है, भी प्रकारलाग्यविषयतासम्बन्ध से घटादि में ही रहेगा । इस तरह कार्य-कारण के समानाधिकरणच की भी उपपति हो सकती है। इस कार्यकारणभाव को मान्य करने की वजह घटाकाशसंयोग आदि के चाक्षुप प्रत्यक्ष की आपनि नहीं आयेगी, क्योंकि आकाश नीम्प होने की वजह चाक्षुप का विषय न होने में केवल घट का ही चाक्षुप होगा, जो पर्याप्तिविशिष्ट घटाकाशमयोगादिगुणनिरूपिताधिकरणता के आश्रय घटआकाशउभय को अपना विपय नहीं बनाने की वजह स्वाच्छित्रगुणाधिकरणतावद्विपयकप्रत्यश्चत्वसम्बन्ध से पोनिविशिष्ट नहीं है। इस तरह कारणतावच्छेदकतावदलसम्बन्ध से कारणतावच्छेदकधर्मविशिष्ट घराकाशमपानादिचाक्षुपकारण ही प्रसिद्ध नहीं है, तब घटाकाशसंयोगादि में विपयतासम्बन्ध में चाक्षुप की उत्पनि का आपादन करना कैसे संगत होगा ? निरुक्त कार्य-कारणभाक को मान्य करने से ही घटाकाशसंयोगाति के चाक्षुष की आपति का परिहार हो जाता है नत्र द्रव्यसमवेनगोचरचाक्षुप के प्रति स्वाधयसमरेतत्वसम्बन्ध से रूपाभाव को प्रतिबन्धक मानने की भी कोई आवश्यकता नहीं है। इस परिस्थिति में नानारूपवदवयवारब्ध घट को नीरूप मान कर द्रव्य - द्रव्यसमवेतचाक्षुष के प्रति स्वाश्रयसमवेतवृतित्वसम्बन्ध में रूप को ही कारण मानने का जो पूर्व में प्रतिपादन किया गया था वही सुसंगत है । -
सपाभार में द्रत्यासमवेतगोचारचाक्षुषप्रतिषत समर्थन में अप्यन्या.इनि । मगर प्रकरणकार श्रीमदजी उपर्युक्त वक्तव्य के खिलाफ अपने मन्तव्य को व्यक्त करते हुए कहते हैं