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५७४ मध्यमस्याद्वादरहस्य खण्डः ३ . का.. * घटाकाशसंपांगापासूपत्वविचार* त्वात् । अत एव शुदिचाक्षुषानुरोधेन परमाणुन्दयणुकयोरपि सिन्दिरित्याहुः । तचित्यम्, चित्रकपालिकास्थले तदसम्भवात् । किर, घटाकाशसंयोगाधचाक्षुषत्वानुरोधोन
-* जयलता *भिधानमिति । लाघवानुरोधादतन्कल्पे द्रव्यतत्समवनस्पार्शनसाधारण्यन स्पानित्यावच्छिन्नं प्रति स्वाश्रयसमवतवृत्तित्वसम्बन्धेनंब स्पर्शस्य हेतुल्यमिति चेतसि प्रणिधातव्यम् ।।
प्रकृतकल्पस्वीकारनान्तरीयकफलविशेषमावेदयन्ति -> अत एव = द्रव्य-तद्वृनिसाधारणचाक्षुषं प्रति स्वाश्रयसमवनवृतित्वसम्बन्धेन रूपस्य कारणत्वस्वीकारादेव, त्रुटित्राक्षुपानुरोधेनेति, उपररक्षणात् 'त्रुटेपरमाणादचाक्षुषानुरोधेन' इत्यपि द्रष्टव्यम, परमाणुव्यणुकयोरपि सिद्धिः, विषयतया व्यणुकचाक्षुपाश्रये व्यगुक स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्धन परमाणुमपस्यच वृतित्वसम्भवात. त्र्यणुकस्य परमाणुरूपाश्रयपरमाणुसमक्तद्वयणकवृत्नित्वात्. विषयतया त्रसरेणुपरिमाणादिचानुपाश्विकरणे बसरे गुपरिमाणादी च स्वाश्रयसमंवतवृत्तित्वसम्बन्धन द्वयणुकरूपस्यैव वृत्तित्वसम्भवात, त्रसंरणुपरिमागादेः व्यणुकरूपाश्रयणुकसमवेतटि| वृत्तित्वात । परमाणु-द्वपणुकानुपगमं तु गुणत्वावन्छिन्नस्य द्रव्यमात्रवृनिवनियमन त्रुटि-तपरिमाणादिचाक्षुषकारणचिरहमिद्धया
टितत्परिमाणाद्यचाक्षषमापद्येन । एतच्च प्रत्यक्षविरुदमिति निरुक्तकार्यकारणभावबलेन दितत्परिमाणादिचारूपान्यधानपपन्या परमाणुरूप-द्वयगुकरूपयोः सिद्धी नदाश्रयतया परमाणु-यणकयोरपि सिद्धिरप्रत्यहंति केषाश्चिदभिप्रायः ।
आहुरित्यनेन प्रकरणकृना स्वकीया:म्वरसादावनं कृतम् । तदेव कण्ठत आवेदयति । तच्चिन्त्यमिति | चिन्ताचीजमंच प्रदर्शयति - चित्रकपालिकास्थले नानारूपबदबायवारकपालिकासमवेतकपालारब्धघटस्थले, तदसम्भवात् = घटतत्समवेतपरिमाण-संयोगकत्वमभूतिचाक्षणानुपपत्तेः । नानारूपवदवयवारचघटस्येव नत्र कपालिकाबा नानाजातीयरूपरदचयवारब्धत्वन नारूपवसिद्भः तत्समदंतकपालनारूपत्वचिद्भया न नत्र घटे स्वाश्रयसमवेतवृतित्वसम्बन्धन कमालिकारूपं वर्तते, न वा नघटसमवतपरिमाणादी स्वाश्रयसमवनवृत्तित्वसम्बन्धेन कपालरूपं वर्तते येन चाक्षुष सम्भवत् । सार्वजनीनच नानारूपावदवयवारब्धकपालिकासमवंतकपालारब्धघट-तत्परिमाणादिगोचरं चाक्षुषन । ततश्चलादान्यतिरकन्यभिचागंदव न विषयतया द्रव्यनरपरिमाणादिचाक्षुषं प्रनि स्वश्रयसमवेतवृनित्वसम्बन्धेन रूपस्य कारणत्वाभिधानं सङ्गनिमङ्गति ।
'इत्यश्च नाशघटस्य नीरूपत्वं नादृशघटवृत्तिसंयोगादिचाक्षुषं न स्यादि ति वश्यमाणग्रन्थप्रस्तावार्थमुपक्रमते । किनति । यदि विषयतया द्रव्य -तत्समवेतगोचरचाक्षुष प्रति स्वाश्रयसमवनवृत्तित्वसम्बन्धन रूपस्य कारणत्वं स्यात तदा घटाकादासंयोगादिचाक्षुषमपि स्यादव, कपालरूपस्य स्वाश्रयसमवेनवृत्तित्वसम्बन्धन वटाकारागयोगादी सन्चात, घटाकादासंयंगादः कपालरूपाश्रयकपालसमवतघटवृत्तित्वात् । न च तद् भवतीत्यतो घटाकाशमयांगायचाक्षुषत्वानुरोधेन चाचपत्वावच्छिनं = द्रव्यसमवतगोचरदोनों के चाक्षुप साक्षात्कार की अनुपपनि हो सकती नहीं है। ऐसा मानने में ही परमाणु और दूयणुक की भी सिद्धि हो सकती है, क्योंकि व्यणुक = त्रुटि के प्रत्यक्ष के प्रति परमाणुगत रूप स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध से कारण होगा और त्रुटिसमवन परिमाणादि के प्रति व्यणुकगत रूप स्वाश्रयसमवेतवृतित्वसम्बन्ध में कारण बनेगा । परमाणु का स्वीकार किये बिना त्रुटि के चाक्षुप की उपपत्ति कथमपि संगन न होगी, क्योंकि स्व = परमाणुरूप के आश्रय = परमाणु में समवेत दयणुक में त्र्यणुक वृत्ति होने से परमाणु का स्वीकार करने पर ही स्वाश्रयसमवनवृत्तित्य सम्बन्ध मे परमाणुरूप के आश्रय व्यणुक के चाक्षुष की उपपत्ति होगी । एवं त्रुटिगत परिमाणादि के चाक्षुप की मंगति द्वयणुक के अङ्गीकार के बिना नामुमकिन है, क्योंकि स्व = द्यणुकरूप के आश्रय = द्वयणुक में वृत्ति । समवन) त्र्यणुक होने म दयणुक को मान्य करने पर ही स्वाभपसमवेतवृनित्वसम्बन्ध मे द्वयणुकरूप के आश्रय त्रुटि के चाक्षुप की उत्पति हो सकती है। इस तरह द्रव्य और द्रव्यसमवन के चाक्षुप की साधारण कारणता का स्वीकार कर के स्वाश्रयसमवंतवृनिन्वसम्बन्ध में ही रूप को उसका कारण माननः सुसंगत है' । <
नरूपविहीनघटनादी के गत की जालोचन! - चिन्त्यम्. इनि । मगर प्रकरणकार श्रीमद्नी का उपर्युक्त कथन के खिलाफ यह मन्तव्य है कि उक्त मत विचारणीय है, न कि रिना विचार किये स्वीकार्य । इसका कारण यह है कि चित्रकपालिका स्थल में उसका सम्भव नहीं है। अन्तर्निहितार्थ पह है कि जहाँ कपालिका ही विभिन्नरूपबदवयवों से उत्पन्न होगी वहाँ कपालिका भी नाप होगी । अतः उस स्थल में घट और घटसमवेत परिमाणादि के चाक्षुप साक्षात्कार की अनुपपनि होगी। कपालिका नीरूप होने से कपाल भी नीरूप ही होगा। तब कपालिकारूप स्वाश्रयसमवंतवृत्तित्वसम्बन्ध में घट में और कपालरूप स्वाश्रयममपतवृत्तित्वसम्बन्ध से घटसमवेत