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● मध्यमस्वारस्ये : ३ का. * अव्याप्यवृत्तिवानुपकारणताविचार
प्रति चक्षुः संयोगावच्छेदकावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिनाधारताया: सन्निकर्षत्वस्य संयोगादिस्थले क्लृप्तत्वादित्याहुः ।
अत्र यद्यपि चित्ररूपवादिनां नीलादिकं प्रति नीलेतरादीनां प्रतिबन्धकत्वं नीलाभावादीनां
* जयलता
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अन्याय
प्रति चक्षुः संयोगावच्छेदकावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारतायाः = चक्षुःसंयोगस्याऽवच्छेदको यो विषयदेशः तदवच्छिन समवायरसम्बन्धेनाऽबच्छिन्ना याव्यायवृत्तिनिरूपिता अधिकता तत्रिरूपिताया अभियतायाः सत्रिकर्षत्वस्य वृनिविषयकचाक्षुषकारणतावच्छेदकप्रत्यासतित्वस्य संयोगादिस्यले संयोगादिवापरले. आदिशब्देन विभागादिग्रहणं, क्लृप्तत्वात् = प्रमाणसिद्धत्वात् । यथा शाखायां कपिसंयोगवति वृक्ष मूलावच्छेदेन चक्षुः संयोगात्रां कपिसंयोग स्वयं यांगाचच्छेदकेंद्रशावच्छिन्नसमवायसम्बन्धावच्छिन्नकपिसंयोगाधिकरणतानिरूपिताधयता सम्बन्धेन चक्षुषोऽसत्त्वान्न कपिसंयांचा लौकिकविषयतासम्बन्धेन तत्र जायते तद्वदेव नीलपीतार नीलकपालावच्छेदेन चक्षुः सन्निकर्षदशायां प्रातरूपं स्वयंयोगावच्छेदकदेशावच्छिन्नममवायावच्छिन्नपीताधिकरणतानिरूपिताधवदासम्बन्धेन चक्षुषोऽसत्यान्न लोकिकविषयतया पतिचाक्षुषप्रसङ्गः। निरूक्तसंसर्गस्य संयोगादिस्थल प्रमाणमिद्धत्वान्नाऽव्यायवृत्तिनीलपीतादिरूपकल्प संसर्गगोरवमपीति नानारूपवदययवारयदेव्यायवृत्तीनि नानारूपान्यवारायन्तं न त्वतिरिक्तं चित्र गौरवात । न च नीलकपालिकावच्छेदेन चक्षुः सन्निकर तत्सम नीलपीताविच्छिन्नत्वनियमात् तदवच्छेदन चक्षुः सन्निकर्षे पीतचाक्षुषप्रसङ्ग इत्याशङ्कनीयम्, संयोगव्यक्तिर्यदेशव्यापिनी तत्र परम्परया तद्देश एवाऽवच्छेदको न तु सम्पूर्णोऽवयव इत्यभ्युपगमात् चित्ररूप चचिचाक्षु उक्तकार्यकारणभावकल्प नागौरवमिति भव्याप्यवृत्तिरूपवादिन आहुः । आहुरित्यनेनाऽस्वरसः प्रदर्शितः, चित्ररूपस्य प्रमाणसिद्ध तादृशगौरवस्य फलाभिमुखत्वेनाऽदीपलादिति विभावनीयम् ।
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अत्र = चित्ररूपस्थले यवपीत्यस्यान्योऽग्रे तुल्यमित्यनेन चित्ररूपवादिना अतिरिक्तचित्ररूपवादिना समवायेन नीलादिकं प्रति स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्धेन नीलेतरादीनां प्रतिबन्धकत्वं कल्पनीय, अन्यथा प्रागुक्तदिशा तब नीलादिपदार्थप्रतियोगिकसमवायसम्बन्ध मे अबच्छिन ऐसी आधारता ही सन्निकर्ष चाक्षुपकारणतावच्छेदक सम्बन्ध है' यह संयोगादि स्थल में क्लुम = आवश्यक होने से उसीसे इस आपनि का निराकरण हो जाता है । आशय यह है कि वृक्ष में शाखावच्छेदेन कपिसंयोग होने पर भी मूलावच्छेदेन वृक्ष में मनिकर्म होने पर कपिसंयोग का चाक्षुप प्रत्यक्ष होता नहीं है। इसके अनुरोध से ऐसा कार्यकारणभाव माना जाता है कि विपयतासम्बन्ध से अन्याप्यवृत्तिविषयक चाक्षुष साक्षात्कार के प्रति चसंयोगावच्छेदकावि ऐसे अव्याप्यवृत्तिपदार्थप्रतियोगिक समवायसम्बन्ध से अवच्छिन्न ऐसी आधारता से निरूपित आधेयता स्वरूप सम्बन्ध से क्षु कारण है । कपिसंयांगप्रतियोगिकसमवायसम्बन्ध से अवच्चि आधारता गुलाबनि वृक्ष में नहीं है, बल्कि शाखावच्छिन्न वृक्ष में है। अतः वृक्ष में शाखावच्छेदेन चक्षुसंयोग होने पर ही चसंयोगावच्छेदकशाखावच्छिन्न ऐसे समत्राय सम्बन्ध से अवच्छिन आधारता वृक्ष में संभावित होगी । अतः स्वसंयोगावच्छेदकावश्रिसमवायसम्बन्धावचित्राधारता निरूपितायता सम्बन्ध से कपिसंयोग में चक्षु तो शास्वावच्छेदेन वृक्ष में चक्षुनंयोग होने पर ही रहेगी । इस तरह नीलपीत शेतकपालत्रितयाभ घट में नीलकपालावच्छेदेन चसंयोग होने पर चक्षु स्वसंयोगावच्छेदकीभूतनीलकपालावच्छिन्न नीलरूपप्रतियोगिक समवाय सम्बन्ध से अबच्छिन्न आधारता निरूपित आधेयता सम्बन्ध से नीट में रहने की बजह नील रूप का ही चाखूष होता है, न कि पीत रूप का । तादृशघवृनि पीत रूप के चाक्षुप साक्षात्कार के प्रति वक्षु स्वसंयोगावच्छेदकतकपालावच्छिन्न ऐसे पीतरूपप्रतियोगिक समवाय सम्बन्ध से अवच्छिन्न आधान्तानिरूपित आयता सम्बन्ध से कारण है, जो पीतकपालावच्छेदेन घट में चसंयोग होने पर ही मुमकिन है । इस तरह संयोगादि अव्याप्यवृत्निपदार्थ के चाक्षुष साक्षात्कार में अवश्यकतृप्त कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से ही उपर्युक्त अतिप्रसन का वारण हो जाने से अव्याप्यवृत्ति अनेक रूप पक्ष में अतिरिक्त कारणता की कल्पना का गौरव निरवकाश है। अतः नानाजातीयरूपवाले अवयवों से आरत्र्य अवयवी में अवच्छेदकतासम्बन्ध से अनेक रूप की कल्पना ही प्रामाणिक है यह नव्य नैयायिकों का, जो अतिरिक्त चित्ररूप को मान्य करते नहीं हैं, अभिप्राय है ।
- अव्याप्यवृत्तिरूपपदा और चित्ररूपपक्ष में तुल्य कार्यकारणभाव २
अत्र यद्यपि । यहाँ यह ज्ञातव्य है कि अतिरिक्तचित्ररूपवादी के मत में समवाय सम्बन्ध में नीलादि रूप के प्रति स्वसंभवादिसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलेतर रूपादि को प्रतिबन्धक मानना होगा, अन्यथा चित्रघट में नीलादि रूप की समवाय