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६१: मध्यमम्बादाटरहस्य मार: . का."
*गशमनिगमः अवच्छेदकभेदं विनैव भेदाभेदः स्यान्दादिनामभिमतो नान्यथा, परमतप्रवेशात् । तदुक्तं pittotreti) मरगतता 'न चैवं भेदाभेदः अवच्छेकभेदेन तत्सत्वाभ्युपगमादिति, वर अज्ञानविलसितम उपाधिभेदोपहित विरुदं जार्थेष्वसत्वं सदवाच्यते च' इत्यादिता
गयलाता त्यत्त्विति । तदज्ञानविटमिनमित्वननास्या उन्चयः । अवच्छेदकभेदं विनैव एकत्र भेदाभेदः = भंदामंदसमावेश: स्याद्वादिनामभिमतः, न अन्यथा = अवदकमेंटेन, परमतप्रवेशात = एकान्तवादिदगंगणवेशागतात । किमत्र बीजं ? इत्याराहकायामाह - नदक्तमिति । अनमानरखण्ड मणिकता = नन चिन्तामणिकारेन, 'न च एवं भेदाभेटः = दादबानिम्तन, अवच्छेदकमेंटेन नन्सत्त्वाभ्युपगमादिति । श्यामापत्रस्यपदस्य मदनच समापरिंटचे, तदन्योन्यागाचच श्यामाचन्छन्दा इत्यवमयदक भेटगुरस्कांग्ण तदभ्युपगमान्न भेदाभेदमनप्रबंश इत्यानपायकं गङ्गशवचनं तदयापपयन यांद ग्यादादिमन व दकट निरस्कृन्यैकत्र भेदाभेदस्वीकार : स्यान, अन्यथा गणिकारस्थापि स्याहादिमनप्रदाः न्यादिति तन्निगकरणा. मिठायनयुक्तमझेशवचना-व्यथानुपपन्या म्याद्वाद यच्छंदकभेदमपहायकत्र भदानंदसमावशः सम्मन इति यत्तुमाकूतम् ।
तदज्ञानविलसित्तम् । उपाधिभेदोपहितं विरुद्धं नाधेप्वमत्त्वं सदवाव्यते चत्यादिनेति । अत्रीत्तरार्द्धश्चैवं - ‘इत्य प्रबुध्यैर । विरोधी पस्तदेगी, ता. । योग्य.२४) ग्रन्यकृता कलिकालसर्वज्ञविरुदवना श्रीडमचन्द्रसूरीश्वरेण, अपि उपाधिभेदेनैव, न तपाधिमं विहायकत्र सत्त्चासत्त्वसमावेशाभिधानात अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिकायामिति गम्यते । ननूपाधिभेटनर सन्गसच्चादीनामका समावशा प्रति गदितः न त्ववच्छेदकभंदनदि मुग्धा शड़कायामाह, - अत्र - पतत्कारिकायां हि 'उपाधयांवच्छेदका अंशप्रकागः' (भा.म.गा. २४ ए.) इति व्याख्यातं स्याद्वादमन्ना श्रीमल्लिपेणमुरिवरेण ति गम्यते । अत्र मोपयोगित्यात् तद या पायाख्या प्रदर्शन --> ५ = दार्थप चंतनाचनना अमञ्च = नास्तित्वं न विरुद्धं = न विरोधावरुदम् = अस्तित्वेन सह विरोध नानभवतात्यर्थ: । नकवलमनत्वं न विरुद्ध किन्न मदनाच्याने च । मन्त्रावाच॑ च सदवाय, नया नावी मटनच्यते अस्तित्वावक्तव्यले इत्यर्थः । तपि न चिमड़े । तथाहि - अस्तित्त्वं नास्तित्वेन सह न विरुध्यते । अबक्तव्यत्वमपि विधिनिषेधरूपमन्यान्यं न विमध्यनं । अथवा अबक्तव्यत्वं उतन्यत्वेन सार्क न निराधमवति । अनेन च नास्तित्त्वास्तित्वावक्तव्यत्वळ क्षणभङ्गत्रवेग सकलसप्तमग्या निर्विरोधता उपलक्षिता । अमीयामंच स्याणां मुख्यत्वान्लेषभङ्गानां च मयांगजवनामाण्यवान्तर्भावादिनि ।
नन्तं धाः पम्प बिन्द्रा नल्कचमकत्र यस्टन्दंषां समावेगः सम्भवनाति विशेपणवण हनमाह. . उपाधिमंदी. पहिमिति । उपाधयोऽवच्छेदका अंशप्रकारास्नेग मंदा नानात्वं नेनापहितमर्पितम् । असन्यस्य विशेषगमेतत् : उपाधि दोपहित
उपाणिभेद को सत्ता सत्त, का समावेश गनु। यहाँ एकान्तबादी की ओर मे यदि ऐसा कहा जाय कि --> "स्वात्राटी को अच्छेदकमेट के बिना ही एक धमी में भेदाभेद का समावेश अभिमत है, न कि अवच्छेदकमंड से । यदि अबदकभेद से ही स्याद्वादी एकत्र भेदाभेद का समावेश करे नब तो एकान्तबाद में उसका प्रवेश हो जायगा । इसन्दिप ता तच्चचिन्तामणिग्रन्थकार गंगेशजी ने अनुमानरचण्ड में कहा है कि 'श्याम का रक्त घर में भेद और अभंर मानने पर भी भेदाभेट, जो भंदाभेदबादी ग्यादादी को अभिमन है, प्रसक्त नहीं है, क्योंकि अवच्छेदकभेद से ही एक धर्मी में भेद और अभेद का समावेश हम अभिमत है । यदि अवच्छेदकभेद में ही स्याद्वादी को भेद और अभेद का एक धर्मी में समावेश अभिमत होता नर गंगेशजी ने सा नहीं कहा होता । अतः गंगेवा उपाध्याय के वचन की अन्यथा अनुपपत्ति से यह निर्विवाद सिद्ध होता है कि स्याद्वार में अवच्छंढकभेद के बिना ही एकत्र भेदाभेद का ममावेश अभिमत है" <- नो यह एकान्तबादी के अज्ञान का ही विलास है, क्योंकि स्वयं ग्रंथकार श्रीकलिकालसर्वज्ञ भगवंत ने ही अन्ययोगच्यचच्छेदद्वात्रिंशिका में कहा है चि. 'पदार्थों में उपाधिभेन में उपहित - अर्पित मन्त्र, असच और अवाच्यता परस्पर विरुद्ध नहीं है' । खुद मूलकार ने भी एकत्र उपाधिभेद से ही सत्त्व और असत्त्व आदि धर्मों के ममावेश का प्रतिपादन किया है तव -> 'स्याबाद में बिना अपरेटकभेद के ही भंदामेंट का एकत्र समावेश मान्य है' <- ऐसा उद्भावन करना अपनी भूखता का ही केवल प्रदर्शन है । यहाँ यह शंका भी कि -> 'ग्रन्धकारश्री ने तो उपाधिभेद से सत्त्व, असच आदि का एक धर्मी में समाचश मान्य किया है, न कि अवच्छटकभंद में - इसलिए निरस्त हो जाती है कि अन्ययोगन्यवच्छेदवात्रिंशिका की स्याद्वादमंजरी नामक व्याख्या में श्रीमडिपणजी उपर्युस कारिका की