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ननु तथापि भिन्नोपाधिकं विरुद्धधर्मदयमेकत्र समाविशतु तथापि येनाकारेण भेदः तेन भेद एव, येन चाऽभेदस्तेनाऽभेद एवेत्येकान्तो ऽनेकान्तवादिनामपि दुवर इति चेत् ? न भेदाभेदयोरन्योन्यव्याप्तिभावेन 'तेन भेद एव' इत्यादेरर्थशून्यत्वात् एकाकारेणाभेदस्यैवाऽपराकारेण भेदरूपत्वात् । भेदावच्छेदकं यतन्नाभेदावच्छेदकमिति तु सम्मतमेवेति न दोषावहम्, अन्यथा तयोर्भिन्नोपाधिकत्वाऽसम्भवादित्यामे डितमेव ।
जयलता औ
तां नौमि शारदां नित्यं, काश्मीरपुरवासिनीम् । चित्ररूपविवेको व्याख्यातो यत्कृपयैव हि ॥१॥
ननु इति । चेदित्यनेनाऽस्यान्चयः । ' तथापि इत्यस्य स्थाने एवं' इति पाठ: समीचीनः । भिन्नोपाधिकं विरुद्धधर्मद्रयं एकानेकत्व - नित्यानित्यत्व वाच्यावाच्यत्वादिलचणपरस्परविरुद्ध युगलं एकत्र धर्मिणि समाविशतु । इदमपि अभ्युपगमवादेन मनुवादिनोच्यते । तथापि = एकत्र यथाकथञ्चित् विरुद्धधर्मद्वयसमविशसननेऽपि येन आकारेण धर्मग्य धर्मितां भेदस्तेन आकारण भेद एव, न त्वभेदोऽपि येन आकारण चाभेद: तेन आकारण अभेद पत्र, न तु भेदोऽपि इत्वप एकान्तः तु स्याद्वादिनामपि दुर्वार एव । ततश्चापसिद्धान्त प्रतिज्ञाहान्यादयो दोषाः दरितिकान्तानुपगमे च सङ्करभ्यतिकरादिदोषा इत्युभयमुखीराक्षरी प्रादुर्भवतीति नन्वाशयः ।
प्रकरणकारस्तमाशकरोति नेति । भेदाभेदयोरन्योन्यव्याप्तिभावेन स्वीकारात । न हि आफले रक्तल - इयामत्वयोरिव भेदाभेदावेकत्र धर्मिणि पार्श्वयेनावस्थिती किन्तु परस्परमनुविद्धत्वेनैव गुलिकार्या गुडनागख्योरिव । ततश्व 'तेन भेद एव' इत्यादेः दुपदावनस्य अर्थशून्यत्वात् = निरर्थकत्वात् । अन्योन्यव्याप्तिमेव समर्थयति एकाकारेण जातस्य अभेदस्य एव अमराकारेण ज्ञातस्य भेदरूपत्वात् दण्डाकारेण सर्वस्व कुण्डलाकारंग कुण्डलिरूपत्ववतु श्रद्राऽवयवाकारेणाऽनेकस्वाञ्च्याकारकत्ववदिति चिमनीयम् ।
भेदावच्छेदकं
भेदनियामक भेदप्रतीतिनियामकं भेदव्यवहारनियामकं वा यत् रूपं तत् रूपमेव नाभेदावच्छेदकं = नाभेदनियामकं तत्प्रतीतिनियामकं तदुद्व्यवहारनियामक वा इति तु स्याद्वादिनामस्माकं सम्भतमेव अनेकान्नस्य सम्पगेकान्ताविनाभावित्वात्, अन्यथा प्रतीतिव्यवहारादीनां निरत् । इति हेता: छेद
मेदा
| भेदप्रवेशनं न दीपावहं = नापसिद्धान्तादिदूषणापादकम्। विपक्षबाधमाह. अन्यथा = अवच्छेदकभेदसून विकल भेदाभेदसमावेश, तयोः भेदाभेद: भिनोपाधिकत्वासम्भवादिति ।
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तत्वम
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का तिरस्कार कर सकते हैं ? स्याद्वाद के उन्मूलन में अपने मन्तब्य का ही उन्मूलन हो जायेगा । इस तरह इन नव्य विद्वानों के प्रति मूलकारश्री की उपर्युक्त उक्ति नितान्त समीचीन है । इस तरह सब वक्तव्य संगत ही है यह फलित होता है।
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# मेदाभेद अन्योन्यव्याप्त है क
ननु इति । यहाँ यह वक्तव्य कि
एक ही धर्मी में भिन्न उपाधिवाले दो धर्म का उपाधिभेद की अपेक्षा समांत्रेश
भले ही हो जाय फिर भी धर्म और धर्म का जिस रूप से भेद होगा उस रूप से केवल भेद ही रहेगा और जिस रूप
से होगा रूप से केवल ही रहेगा। यह स्वीकार तो अनेकान्तवादी के लिए भी आवश्यक है। मगर ऐसा स्वीकार करने पर अनेकान्तवादी का एकान्तवाद में प्रवेश हो जायेगा, जिसकी बदौलत अपसिद्धान्त निग्रहस्थान की प्राप्ति स्वाज्ञादी के मत में आयेगी भी इसलिए निराकृत हो जाता है कि भेद और अभेद परस्वव्याप्त हैं । अतः 'जिस रूप से भेद होगा उस रूप से केवल भेद ही होगा' इत्यादि वक्तव्य निर्धक है। एकाकार से प्रतीत होता हुआ अभेद ही अपराकार से मेदस्वरूप है। दूसरा यह भी ज्ञातव्य है कि भेद और अभेद का अवच्छेदकभेन तो हमें मान्य ही है। भेद का जो अंक tate का छेद नहीं है और अभेद जो अवच्छेदक है वह भेद का नहीं है यह तो सम्यगेकान्तस्वरूप होने की वजह यथार्थ अनेकान्तवाद में स्वीकृत होने से हम स्वावादियों के पक्ष में दोपपादक नहीं बन सकता । यदि भेट और ria के Faitre में aa Hraा जाय तब तो 'भि उपाधिया दो धर्म का उपाधिभेद की अपेक्षा एक प में समावेश भले ही हो जाय.. ऐसा जो कहा गया है वह भी नामुमकिन हो जायगा, चूँकि भिन्नपाधिकत्व का अर्थ ही | भिन्नावच्छेदकल्प है । केवल शब्दान्तर है, अधांन्तर नहीं । अतः एक के अस्वीकार में दूसरा भी अस्वीकृत ही हो जायगा ।