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एकत्र करणाऽकरणांनयमावेदाः
पर्यायतया करोति न तु द्रव्यत्वेनेत्यत्रापि व्देरुप्यावतारात् । 'पर्यायत्वेन दर्तृत्वमेव, द्रव्यत्वेनाऽकर्तृत्वमिति असारम् स्वभावसाङ्कर्याऽऽपातात् विनिगमनाविरहाच्च । किस स्वकार्यकर्तृत्व-परकार्याऽकर्तृत्वाभ्यामप्येकस्य करणाकरणदेरूप्यम् ।
करोति न करोति वा जगति कारणं कार्यमप्यकारणहितार्थिनो भगवतः श्रुते युज्यते । करोति यदि सर्वथा जनु कपालमालाऽपि तत्पदं जनयितुं प्रभुर्भवतु तन्तुसौभाग्यभूः ॥भा * मयलता जै
६१२ मध्यमस्याद्भाण्ड
वक्ष्यमाणविकल्पतितात् । अत एव कारणस्य पर्यायत्वेन कर्तृत्वमेव द्रव्यत्वेन पुनः अकर्तृत्वमिति न करणाकरणयोरेकन विरोध: अवच्छेदकारेदेकत्री भयकुसमावेशसम्भवादिति अपि समाधानं असारम्, स्वभावसाङ्कर्यापातात् = एकदैव कार्यद्वारा उभयस्वरूपवस्तुप्रतीती कार्यजननाजननी भयस्वभावसायप्रसङ्गादित्यर्थः । एतेन कार्यद्वारीभरूपवस्त्वप्रतीनेस्तदसिद्धिरिनि प्रत्युक्तम्, विनिगमनाविरहात् = द्रव्यत्वेन करोति पर्याचा तु न इत्यविनिगमान 'अयं कारणं" इति वचनात् । एतेन पर्यायतया करोति न तु इव्यत्वनेति करणाकरणविरोधपरिहार इत्यपि प्रत्याख्यातम् । यद्वा द्रव्यार्थिकयमतेन द्रव्यत्वेन कर्तृत्वमेव पर्यायतया कर्तृत्वमित्यविनिगमादित्यर्थः । अनेन पर्यायत्वेन कर्तृत्वनेत्र द्रव्यत्वना कर्तृत्वमित्यपि निरस्तम् । तर्हि स्याद्वादे कथं करणाकरणायमंकन सिध्येत् ? इत्याशङ्कायामाह किभेति स्वकार्यकर्तृत्व परकार्याकर्तृत्वाभ्यां = स्वनिष्ठकारगतानिरूपित कार्यतावच्छेदकावच्छिन्नजनका स्वेतरनिष्टकारणतानिपितकार्यतावच्छेदकावन्निजनकत्वाभावाभ्या अपि एकस्य वस्तुन: करणा करणरूप्यं सिध्यति ।
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यचीक्तं यतयः करोति स तु द्रव्यत्वेन' नत्र विकल्प रूप्यमेवमवतरति किं पर्यायतया सर्वथा करोति न या द्रव्यत्वेनाऽपि सर्वधाऽकरणं न वा इतिवता सर्वथा करणे कपालमा मृदुद्रव्यस्य घटवत् पदादिकरणप्रसङ्गात् पर्यागतया सर्वशःकरणं पदादिवत घटाकरणसद्गात् । द्रव्यत्वेन सर्वथा करणस्वभाव द्रव्यस्य गुणाकरणप्रसङ्गात् न सर्वभाकरणस्वभावानभ्युपगंगे नजद्वपस्य प्रकृतार्थगमकत्वात्परनये द्रव्यलेन सर्वथा|करणस्वभावापत्ती से एक प्रसङ्गः । इत्थञ्चकान्तवादाद् व्यावर्तमानः करणाकरणाय स्वभावी नेकान्तवाद एवं विश्राम्यतीत्याशयेन पद्मद्वयमारचयति करोतीति । संक्षयस्त्वेवर जगति कारणं कार्य करोति न वा ? इति मीमांसाऽनि अकारणहितार्थिनः
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नहीं है । अतः एक धर्मी (= कारण) में करणाकरण उभयस्वरूप की सिद्धि हो सकती है' - मगर यह उक्ति भी आगे दिखाये जानेवाले दो विकल्पों से ग्रस्त होने से अनादरणीय है। अन्य किसीका यह कथन भी कि कारण में रथयात्मना कर्तृत्व ही है और इन्यात्मना अकर्तृ । मतलब कि कपाल, तन्तु आदि पर्यायों की अपेक्षा कारण में कर्तृत्व = कार्यजनकत्व ही है। सिर्फ द्रव्य होने के नाते उसमें कर्तृत्व नहीं रह सकता, अन्यथा सब द्रव्यों में ऋयत्व समान होने की वजह सर्वकार्यकर्तृत्व की आपनि आयेगी । अतः पर्याय की अपेक्षा कर्तृत्व और यत्व की अपेक्षा कर्तृत्व एक धर्मी में सिद्ध होने से करण अकरण उभयस्वभाव की सिद्धि हो सकती है' - असार है। इसका कारण यह है कि इस पक्ष में विनिगमनाविरह दीप प्रसक्त होता है। मतलब कि 'कारण में प्रत्यात्मना ही कर्तुत्व है, पर्यायात्मना अकर्तृत्य ही है' ऐसा भी माना जा सकता है। अतः पर्यायत्वेन कर्तृत्व ही है और अन्यत्वेन अकर्तुत्व' यह एकान्त स्वीकार्य नहीं हो सकता । इस तरह 'कारण पर्यायविधया कार्य को उत्पन्न करता है, न कि उत्यविधया- यहाँ भी यह कहा जा सकता है कि कारण द्रव्यविधया कार्य को उत्पन्न करता है, न कि पर्यार्याविधया । अतः उपर्युक्त द्वितीय मत भी अनादरणीय ही है तथा जो पूर्व में कहा गया था कि 'एकदा कार्य के द्वारा करणाकरण उभयस्वभाव की प्रतीति नहीं होती है - वह भी असंगत ही है, क्योंकि वैसा होने पर जननाजनन स्वभाव में मांकर्य का प्रसंग होता है। यहाँ यह शंका हो कि तब तो कारण में करण अकरणोभयस्वभाव की सिद्धि ही न हो सकेगी तो यह इसलिए निराधार हो जाती है कि कारणमात्र में स्वकार्य का कर्तृत्व और परकीय कार्य का कर्तृत्व होता है । कपाल में घटकर्तृत्व ही होता है, न कि पदादिकर्तुत्व । अतः स्वकार्यकर्तृत्व और परकार्याकर्तृत्व इन दो धर्मो की अपेक्षा भी एक ही कारणात्मक धर्मी में करणाकरणरूप्य की सिद्धि हो सकती है ।
बाद में करमाकरणस्वभाव की अनुपपत्ति
करोति । कारण इस जगत में कार्य को उत्पन्न करता है या नहीं ? यह विचारविमर्श भी अकारण परहितरसिक