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६१६ मध्यमस्याडादरहस्ये खण्डः ३ . का.९. * आवश्यकनियुक्तिवचनविचारः * | सति ज्ञानजनकत्वेन तस्या धमजनकत्वसिन्दः । 'धमो नान्यथाख्याति: किन्तु असत्ख्यातिरिति चेत् ? न, असनिकृष्टस्यासाक्षात्कारादित्यन्यत्र विस्तरः ।
एतेन अत्यन्तासत्ययि ज्ञानमः शब्दः करोति हि। अबाधातु प्रमामात्र स्वत:प्रामाण्यनिश्वलाम् । (खं.खं.खा. 9/9) इत्यपि निरस्ता, योग्यताज्ञानं विना ता शाब्दबोधानुदयात् ।
- शैयलता है= वासनाया; भ्रमजनकत्वसिद्धेः निरुक्तप्रमाणत्वापातन असतः सच्चापत्तिबारव । न च कवलं प्रमाऽजनकत्वमेवास्त्वप्रमाणत्वं लाघवादिति वाच्यम्, उदासीनस्यायप्रमाणत्वापतेः। अस्तु वा तथा तथापि त्वया वासनाया भ्रमजनकत्वाभिधानासिद्धमेवासत: सत्त्वमित्युभयतः पासारतः ।
ननु भ्रमो नान्यथाख्यात्तिः = नान्यधास्थितस्यार्थस्याऽन्यथाभानं, किन्तु असत्यातिः = सर्वथाऽसतो भानमिति न जगतः पारमार्थिकत्वसिद्धिर्न वा धर्मधर्मिभावस्याऽपि वास्तस्त्वसिद्धिरिति चेत् ? न, असनिकृष्टस्य = इन्द्रियाऽसम्बद्धस्य, असाक्षात्कारान् = प्रत्यक्षविषयत्वविरहात. अन्यथा सर्वदा सर्वेषां सर्वत्र सर्वसाक्षात्कारप्रसङ्गात. असनिकृष्टत्वाऽविशेषात । न चैवं 'रूवं पुण पासद अपुटुं' (आ.नि.लो...) इत्यस्य भङ्गप्रसङ्ग इति वक्तव्यम्, चक्षुषः संयोगसम्बन्धन स्वविषयासम्बद्भत्वेऽपि आभिमुख्यसम्बन्धन तत्सम्बद्रत्वात् । अत एव 'रूवं पुण पास अणभिमुहं तु' इति नोक्तम् । न हि शुक्त्यनभिमुखस्य पंसः 'इदं रजतमि'ति चाक्षष कदापि जायते, इन्द्रिपसन्निकटस्यैव व्यावहारिकसाक्षात्कारविषयत्वात् भ्रमस्थलऽपि येन कचिदिन्द्रियसन्निकर्पस्या :वश्यमभ्युपगन्तव्यतया नदाश्रयविधया बाह्यार्थसिद्धेः असतव्यातिस्थान न्यधाख्यातिरेवात्मलाभ लभन इति सिद्धम् । अन्यत्र = सम्मतितर्क -स्याहादरत्नाकर-स्याद्वादकल्पलतादौ बिस्तरः।
एतेन = असतण्यातिनिरासेन, अस्य च निरस्तमित्यनेनान्वयः । खण्डनखण्डखाद्यकारिकामाबेदयति दुषयितुं - अत्यन्तति । संक्षेपार्थश्वास्या एवम् - शब्दः श्रूयमाणः अत्यन्तासति = सर्वथासति अपि अर्थे वाशशङ्गादिलक्षणे ज्ञानं - शाब्दबोध, करोति = विषयतासम्बन्धेन जनयति हि = पत्र विषयस्य अपराधात् नु अत्र स्वतः प्रामाण्यनिश्चलां प्रमां करोति । तन्निरासे हेतुमाह . योग्यताज्ञानं = चावाभावज्ञानं, विना तत्र = शशशृङ्गादी विषये, शाब्दबोधानुदयात, तदुकभी भी मिथ्या होनी नहीं है। अनः मिथ्या - असत् वासनात्मक हेतु से सत् = प्रमा की उत्पत्ति को मान्य करनी होगी । यदि वासना को अप्रामाणिक - प्रमाण मे असिद्ध मानी जाप तो भी असत् से सत् बनने की आपत्ति आयेगी, क्योंकि असत् से सत का जन्म न मानने पर असदाकार ग्राहक को अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । रजतात्मना असत् शक्ति का सदात्मना ३ रजतात्मना ज्ञान करानेवाला ही तो अप्रमाण कहा जाता है। यहाँ यह कथन कि -> "वासना को अप्रमाण कहने का मतलब यह है कि यह प्रमा = सत्य ज्ञान का उत्पन्न नहीं करती है। मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि वह भ्रम = मिथ्या बुद्धि को उत्पन्न करती है । इसलिण 'वासना भ्रमजनक होने की बजह असत् का सर बनने की आपत्ति आयेगी' इस आपत्ति को अवकाश नहीं है" <- भी असंगत है, क्योंकि जो प्रमा का जनक नहीं होते हुए ज्ञान का जनक हो वह भ्रम का ही जनक होता है - यह तो अन्यथा अनुपपति से सिद्ध होता है । अतः भ्रमात्मक सत् का सर्वधा तुच्छ वासना से जन्म होगा-यह मान्य करना होगा।
असात्स्यातिनिराकरण यहीं यह कहना कि -> 'भ्रमपद का अर्थ है असल्यानि, न कि अन्यधारख्याति । अतः वासना से भ्रम का जन्म होने पर भी सारा जगत् मिथ्या सिद्ध हो जाने से आखिर में तो हमारे गीद्धमत की ही सिद्धि हुई न ?'- भी निराधार है, क्योंकि इन्द्रिय से असनिकृष्ट का कभी भी प्रत्यक्ष होता नहीं है । 'इदं रजतं' इत्याकारक भ्रम भी शुक्ति के साथ इन्द्रियसनिकर्प होने पर ही उत्पन्न हो सकता है। हाँ, शुक्ति के साथ इन्द्रिपसभिकर्ष होने से वह आम कहा जाता है और रजन के साथ इन्द्रिय समिकर्ष होने पर वह प्रमाशद से व्यवहार्य बनता है -यह एक अलग बात है । मगर इन्द्रिय का किसी न किसी पदार्थ के साथ सम्बन्ध तो जरूर होना चाहिए । अत: प्रत्यक्षकारणीभूत सत्रिकर्ष का आश्रय होने की वजह भी बाह्य पदार्थ में पारमार्थिकना अराधिन ही है। विषयभूत नाह्य पदार्प काल्पनिक = असत् होने पर उसके साथ इन्द्रियसत्रिकर्ष भी काल्पनिक हो जायेगा । इस परिस्थिति में भ्रमात्मक बास्तविक. = विद्यमान प्रत्यक्ष की उत्पत्ति कैसे हो सकेगी ! अत: अन्ययाख्यानि यानी अन्यस्वरूप से रही हुई चीज का अन्यरूप से भान होना ही भ्रम है यह मानना होगा। इस विषय