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** धर्मधर्मभावविचारः * न कुरुते करणं यदि सर्वथा, स्मरणमेव तदस्य न युज्यते । अजनयत्परकामिह स्वयं न जनयेदपि किसन तद्यत: ॥२॥
अनास्वादितस्वभावभेदयोः कथं धर्मधर्मिभाव इति चेत् ? न, धर्मधर्मिणोमिधोभेदात, प्रतिनियतधायतित्वेनैव केवलमभेदात् ।
-* गयलता म = तीर्थकरनामादयात् तधास्वाभाव्याञ्च निरुपधिपरकल्याणपरस्य भगवन एव श्रुतं = प्रवचन युज्यते, न तु मायाचितीर्थे, पतः यदि कारणं सर्वथा कार्य करोनि इत्येवं कक्षीक्रियते, ननु कपालमालाऽपि तत् = तस्मात् प्रकृताभ्युपगमबलादिति यावत्, घमिच पटं जनयितुं प्रभुः = अलं भवतु तन्तुसौभाग्यभूः = तन्तुनिष्ठपटजननस्वभावलक्षणसौभाग्यभूमिः कागलमालेति घण्टालोलान्यायेनाऽत्राप्यन्यते ॥१|| यदि करणं = कारणं सर्वथा = सर्वप्रकारैः कार्यं न कुरुते इत्येवमङगीक्रियते, तत् = ततः अस्य = कारणत्वेनाभिमतन्य स्मरणमंच = स्मृतिरपि न युज्यते, यतः = यस्मात्कारणात् तत् = करणे इह = जगति परकार्यमजनयत् तद्रदेव स्वयं न किश्चनापि कार्यं जनयेत् ॥२॥ तस्मात् करणाकरणद्वैरूप्यमपि स्याद्वादाभिधानं कथञ्चित्पक्षमेव समाश्रयति । एतेन कारणस्य कर्तृत्वस्वभाव एव, न तु स्वकार्यकर्तृत्वस्वभावो गौरवादिया पराकृतमिति दिक् ।
ननु अनास्वादितस्वभावभेदयोः = अभिनस्वभावयोः तयोः कथं धर्मर्मिभावः सम्भवेत् । न हि स्वमेव स्वम्य धर्मो भवितुमर्हतीति चेत् ? न, धर्म-धर्मिणोः मिथो भेदात् = परस्परं भेदाभ्युपगमात् तयोर्धर्मधर्मिभावोऽनपाय एव । 'कयं तर्हि तयोरभेदोक्तिः सङ्गच्छेत ?' इत्याशङ्कायामह · प्रनिनियनधाश्रितत्त्वनैव केवलमभेदात्, न तु सर्वधा । यदि धर्मधर्मिगो: सर्वधा भेद एवं स्यात, तर्हि पृशियादेरिवाकाशदेरपि गन्धो धर्म: स्यात. मित्रत्याविशेषात् । न चैवमस्ति, पृधिव्यादिप्रतिनियतधर्मिण्येव गन्धादेगश्रितचोपलम्भान् । अतः प्रतिनियतधर्मिसमाश्रितत्वापक्षयव तया: केवलमभेद त्यभ्युपगम्यते । न वैतावतैव प्रत्यक्षादिप्रमाणसिद्धः तयामेंदः पलायितो भवति किन्वरच्छदक मंदन तत्रैव प्रगयितमहतीनि न नयाधमधर्मिभावानुपपत्तिरित्यभिप्रायः ।
जिनेश्वर भगवंत के शासन = अनेकान्तबाद में ही संगत होता है, न कि एकान्तबादी परतीर्थिक के दर्शन में । इसका कारण | यह है कि यदि एकान्तवाद के अनुरोध से विचार किया जाप तर दो विकल्प उपस्थित होते हैं कि - 'करण क्या कार्य को सर्वया उत्पन्न करता है ? पा सर्वथा उत्पन्न करता नहीं है ?' इन दो विकल्पों में से प्रथम विकल्प को मान्य करने पर कमालाचली घट की भाँति पट को भी उत्पन्न करेगी और नन्तु का पटजननस्वभावात्मक जो स्वभाव है उसका आश्रय भी वही बन जायेगी, क्योंकि उनका सर्व प्रकार से कार्यजननस्वभार है। इस पक्ष का यहाँ आश्रय किया गया है । पदि इस आपनि को हटाने के लिए दूसरे विकल्प का स्वीकार किया जाय तर तो कारणत्वेन अभिमत कपालादि का स्मरण करना भी असंगत हो जायेगा, क्योंकि कपालावली का सर्वथा अजननस्वभाव मानने पर ना जैसे उससे पट की उत्पनि नहीं होती है ठीक वैसे ही घर की भी उत्पनि नहीं होगी । कुछ भी कार्य न करने पर तो उसको कौन पाद भी करेगा ? निकम्मे नर के नामस्मरण को तो दूर से ही सलाम ! इस तरह विचारविमर्श करने पर एकान्तवाद में अनुपपन्न करणाकरणस्वभाव स्वरूप कन्या अंत में जा कर अनेकान्तवाद के पक्ष में बैठ कर बाद में अनेकान्तबादी के गले में ही विजयमारा हालेगी। मतलब कि कारणमात्र करणाकरण उभपस्वभाव से युक्त है . यह सिद्ध होता है।
धर्मि भाववित्तार अना । यहाँ यह शंका करना कि -> धर्म और धर्मी में केवल अभेद मानने पर तो उनके बीच धर्म धर्मिभाव ॥ ही न बन सकेगा, क्योंकि धर्मधर्मिभाव स्वभावभेदनियन = स्वभावभेट का न्याय है' ठीक नहीं है. क्योंकि धर्म और धर्मी में परस्पर भेद है ही, जिसका अपलाप हम करते नहीं हैं। फिर भी धर्म और धर्मी में अभेद मानने का कारण यह है कि प्रतिनियत धर्मी में धर्म आश्रित है । मतलब यह है कि गन्ध पृथ्वी से भिन्न हो, तब तो पृथ्वी की भाँति जल, तेज आदि में भी उसकी उपलब्धि होनी चाहिए, म्योंकि गन्ध और जलादि के बीच भिन्नत्व है ही। मगर गन्ध की उपलब्धि पृथ्वी में ही होती है, न कि जलादि में । इस दृष्टि से गन्ध और पृथ्वी में केवल अभेद माना गया है।