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* रागाभट्टमताकामानम * इत्याः। इति न केषामप्येषामेकरूपानकनाशयसमादेश: रातः ।
reशापि ये नील-पीत-रक्ताधारब्धघटादी नील-पीत-रक्तेभ्य एव नील-पीतोभयज-रक्तपीतोभयज-त्रितयचित्राणामुत्पति: सर्वेषां सामनीसत्वात, अनुभवसिन्दत्वाच्च । ता त्रित
- जयलता - अत्यप्रसङ्गो:पि प्रत्युक्तः, अवचिनी नीरूपन्नानभ्युपगमात् । इत्यञ्च ब्याज्यवृत्तिनानारूपापक्षस्यैव निर्दोषत्वमित्याहुः । आहुरित्यनेना स्वग्मोमानं कृतम | नबीजश्चदम याश्यवृन्याधारत्वस्य परम्परासम्बन्धन नदुपपादन गौरवाच !
रामन्द्रभट्टस्तु भाल-पातकपालारब्धे घंटे पीतकपालावन्दन नीलरूपोतानिवारणाय ननदरयावदन नालादिम प्रति ननदवयवगनीलान्यरूपत्वेन प्रतिबन्धकत्वं वायर । रुगस्य न्यायनितामते प्रतिबध्यप्रतिबन्धकमानो न कम्प्यत एव । | किन्तु आयानि तत्तदवयवावच्छेदन तत्तद्रा प्रति तनदयवनततनपाणामब हतत्वं कलप्यत इति न गवमिनि वान्न्यम् | न्यायनिशकलादिरूपस्थले दाम्लरूपादी तनदवयवावच्छिन्नत्त्वस्य विरहणोक्तरूपेण कार्यकारणभावकल्पनाप्रवक्तगौरवाभावान न चैवपि अतिरिक्तचित्ररूपं प्रति अवयवगतनानारूपाणां कारणत्वकल्पनमधिकनिति वाच्यम्, 'चित्रपट इत्यादिप्रतीत: नानारूपसमुदायविषयकत्वकल्पनामपक्ष्य एकत्रिरूपविषयकत्वकल्पने लाघवस्यातिस्फुटत्वादिति' ।त.सं.ग.पृ. २२५) इनि चन्दन अतिरिक्तचित्र पपक्षे पनि ।
समाधत्तं . तथापीनि । एतच्छलोकविवरणागनायन 'यद्यपि' इतिपदेन सहास्यान्नया: कार्यः । ये नव्यनयायिकादय: नीलपीतरकाद्यारब्धघटादी = नीलपातकादिरूपवदवयवाग्धेश्वविनि स्वावमयसमयनेम्यां नील-पीत-क्तिभ्य पर स्वसमचापि - समवंतत्यसम्बन्धेग नीलपीतोभयज-रक्तपीतोभयज-त्रितयजचित्राणां = नालपानरूपोभयजन्यतावच्छेदकारिलक्षणचित्रत्वावच्छिन्नम्य. रक्तपाताभयजन्यतावच्छेदकविलक्षणचित्रच विशिष्टस्य, नीलरक्ताभयरूपजन्यतावच्छेदकचित्रत्वान्तर शालिनी नीलपानरकरूपविनयकार्यनावच्छेदकचित्रत्वविशेषविभूषितस्य च उत्पत्तिः, सर्वेषां निरुतरियाणां सामग्रीसत्त्वात् । न चैकमंत्र नदस्त्विनि वाच्यम्, सनदवयनद्वयमानाद्ययन्छंटनन्द्रियान्त्रिक सनि विलक्षणविलक्षणचित्ररूपागां अनुभवसिद्धत्वात । इनांस्तु विशेषः तत्र = घटादी
में न्याष्यवृत्ति अनेक रूप का स्वीकार करने पर 'मुखे पुनरेव पाण्डुरः' इत्यादि में मुखादिपदोनर सप्तमी विभत्ति की अवचित्रत्वार्थ में संगति नहीं हो सकेगी, क्योंकि व्याप्यवृनि रूप अवच्छेदकतासम्बन्ध से नहीं किन्तु समवाय सम्बन्ध से ही रहता है <-तो यह इसलिए निराधार हो जाती है कि मुखादिपदोत्तर सप्तमी विभक्ति का अवचिन्नत्व अर्थ न मान कर वृत्नित्व अर्थ ही मानने से सप्तमी विभक्ति की उपपत्ति हो सकती है। अत: मुखादिनिरूपिनवृत्तिताविशिष्ट पाण्डुर १ = पीताभ शुक्ल रूप) आदि रूप की स्वसमन्यायिसमवेतवसम्बन्ध से अवयची वृप में प्रतीति होती है - ऐसा माना जाता है । अतः व्याप्यवृनि अनेक रूप के स्वीकारमन में कोई दोष नहीं है , ऐसा अपर मनीषियों का वक्तव्य है। इस उपर्युन दीर्य विचार्गवमर्श से यह फलित होता है कि कोई भी नैयायिक विद्वान् या दार्शनिक को एक धर्मी में एक रूप और अनेक रूप उभय का समावेश मान्य करते नहीं हैं। कोई अवधी में कंबल अतिरिक्त चित्र रूप को सम्मति देता है तो काई ज्याप्यवृनि अनेक रूप का एकत्र समावेश करता है तो अन्य अत्र्याध्ययुनि अनेक रूप का एकत्र भवटकता सम्बन्ध में अहीकार करता है। मगर किसीको भी एक धर्मी में एक रूप और अनेक रूप दोनों का समावेश मान्य ही नहीं है नव मूलकार श्रीमद हेमचन्द्रसूरीश्वरजी महाराज की यह उक्ति कि 'एक धर्मी में एक और अनेक चित्र रूपों को प्रामाणिक कहनेवाला नैयायिक या वैगेषिक अनेकान्तवाद का प्रतिक्षेप नहीं कर सकता' कैमे समीचीन होगी ?
तथापि.1 यह वाणी आपकी कुपमंदुनिता की द्योतक है। इसका कारण यह है कि मूलकारश्री की यह उनि उन नव्य नैयायिकों के प्रति है जो 'नील, पीत, रक्त आदि कपालों से आरब्ध घट में नीलपीतोभयजन्य, पीतरतीभषजन्य रक्तनीलोभयजन्य एवं नीलपीतरकत्रितयजन्य-इन सभी चित्र रूपों की उत्पत्ति होती है. ऐसा मानते हैं । उन नव्य नैयायिकों का यह अभिप्राय है कि --> उक्त घट में इन सब चित्र रूपों की सामग्री बिगमान है 1 अनः उक्त घट में किसी एक चित्र रूप की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, क्योंकि भिन्न भिन्न अवयवद्वयमात्रावच्छेदेन इन्द्रियसन्निकर्ष होने पर विलक्षण विलक्षण चित्र रूप का अनुभव भी सब लोगों को निर्विवादरूप से होता है । अतः अनुभव के विफज केवल दापवमात्र से वहाँ सिर्फ एक चित्ररूप का स्वीकार नहीं किया जा सकता। हाँ, इतनी विशपता इस मन में अवश्य है कि उभयजन्य चित्र रूप अवयवी घट में अन्याप्यवृत्ति यानी किञ्चिदवच्छेदन वृत्ति होता है और त्रितयरूपजन्य चित्र रूप घट में व्याप्यवृनि